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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतगरबा में मेरी मुस्लिम पहचान कभी कोई समस्या नहीं रही, प्रतिबंध सुरक्षा की गारंटी नहीं देगा

गरबा में मेरी मुस्लिम पहचान कभी कोई समस्या नहीं रही, प्रतिबंध सुरक्षा की गारंटी नहीं देगा

गरबा पंडालों में गैर-हिंदुओं के प्रवेश को प्रतिबंधित करने के विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के आह्वान के बारे में जानने पर, मेरी तत्काल प्रतिक्रिया हैरानी भरी थी.

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यह भारत में त्योहारों का मौसम है, और हवा आध्यात्मिकता, जीवंतता और ‘गरबा’ से भरी हुई है. कई रंगों और हाई-ऑक्टेन संगीत से युक्त यह जीवंत उत्सव नृत्य, नवरात्रि की आनंदमय भावना का प्रतीक है. और यह मुझे याद दिलाता है कि कैसे – दीवाली से लेकर राम नवमी तक – हिंदू त्योहारों ने मुझे हमेशा रोमांचित किया है.

मेरे लिए नवरात्रि सिर्फ एक त्योहार नहीं है; यह उन अनमोल क्षणों की निरंतर याद दिलाता है जिन्होंने मेरी बचपन की सबसे प्यारी यादों की नींव बनाई. मैं अब भी उस उत्साह को अब भी महसूस कर सकती हूं जो त्योहार के करीब आते ही मेरे भीतर उमड़ पड़ा था. मेरे प्यारे पड़ोसी मुझे और मेरी बहन को अपने घर बुलाते थे, हमारे नन्हे-नन्हे पैरों को प्यार से धोते थे और हमें स्वादिष्ट भोजन खिलाते थे. फिर, मेरी बहन, दोस्त और मैं गरबा की लयबद्ध धुनों में खो जाते. कितना सुखद था वह.

मेरी मुस्लिम पहचान मेरे आसपास के हिंदू समुदाय के लिए कभी कोई समस्या नहीं रही. फिर भी, मेरे अपने समुदाय के लोग अक्सर मुझे ऐसे समारोहों में भाग लेने के खिलाफ सलाह देते थे. उनका मानना था कि इससे हमारी धार्मिक शुद्धता बढ़ेगी. सौभाग्य से, उनके पास ढेर सारे भारतीय मुस्लिम आबादी पर ऐसे विचार थोपने का अधिकार नहीं था. हालांकि उनके प्रयास कभी-कभी सफल भी हुए – मुसलमानों का एक वर्ग हमेशा हिंदू उत्सवों में भाग लेने से सख्ती से परहेज करता था. लेकिन ये लोग बड़े भारतीय मुस्लिम समुदाय के लिए नहीं बोलते हैं, जिसने अपनी विविधता बरकरार रखी है और एकरूपता का विरोध किया है.

मेरे हिंदू दोस्त मेरे घर पर ईद के जश्न में शामिल होकर और मुहर्रम के पवित्र जुलूसों में शामिल होकर मेरे जैसे ही सांप्रदायिक सौहार्द्र में मुझे सहयोग देते थे. इस प्रकार, परंपराओं का यह अंतर्संबंध मेरी परवरिश का एक अभिन्न अंग बन गया.

गरबा पंडालों में गैर-हिंदुओं के प्रवेश को प्रतिबंधित करने के विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के आह्वान के बारे में जानने पर, मेरी तत्काल प्रतिक्रिया हैरानी भरी थी. मुझे उन मुसलमानों के साथ अपनी मुलाकातों की याद आई जो अन्य धर्मों के त्योहारों में भाग लेने के खिलाफ वकालत करते थे. इसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया, “इन लोगों में क्या गड़बड़ है? वे उसी व्यवहार की नकल क्यों कर रहे हैं जो मुझे अपने अनुभवों में भ्रमित करने वाला और सीमित सोच वाला लगा?”

ऐसे ‘प्रतिबंध’ का कारण क्या है?

इसके पीछे संभवतः दो तरह की चिंताएं हो सकती हैं. पहला – स्पष्ट और जिसके बारे में काफी बात की जाती है – ‘लव जिहाद’ या गैर-हिंदू युवाओं द्वारा उत्पीड़न के इर्द-गिर्द घूमता है. दूसरा इस धारणा पर केन्द्रित है कि अब्राहमिक रिलीजन या सामी धर्मों के व्यक्ति, विशेष रूप से मुस्लिम, अन्य धर्मों के प्रति सम्मानजनक रवैया नहीं रख सकते हैं. यह धारणा इस बात पर सवाल उठाती है कि उन्हें अन्य धर्मों के त्योहारों में सक्रिय रूप से क्यों भाग लेना चाहिए.

चुनौती तब पैदा होती है जब लोग चिंताओं को दूर करने के बजाय गुटों में बंट जाते हैं. उदारवादी पक्ष जमीनी हकीकत पर ध्यान दिए बिना आलोचना करने लगता है, जबकि रूढ़िवादी अक्सर हर चीज को ब्लैक-एंड-व्हाइट के चश्मे से देखते हैं. यहां भी एक समानांतर परिदृश्य सामने आता है. ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहां हिंदू महिलाओं को आदिवासी और स्त्रीद्वेषी मानसिकता से प्रेरित कुछ मुस्लिम युवाओं के हाथों उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, जो अन्य समुदायों की महिलाओं को ‘उत्पीड़न’ का सबसे आसान ज़रिया मानते हैं. इस वास्तविकता को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है. लेकिन यह समझना भी ज़रूरी है कि सभी मुसलमान इस तरह के व्यवहार को पसंद नहीं करते.

गैर-हिंदुओं को त्योहारों से प्रतिबंधित करना 100 प्रतिशत सुरक्षा की गारंटी नहीं देता है. सामान्य तौर पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बुनियादी उपायों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए. सुरक्षा के नाम पर विभाजन को बढ़ावा देना सही नहीं है.


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मुसलमानों का सामान्यीकरण मत करो

यह सुझाव देना कि मुसलमान अन्य धर्मों का सम्मान नहीं करते हैं और इसलिए, उन्हें अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, पूरे समुदाय की अत्यधिक सामान्यीकृत छवि बनाता है. हालांकि यह सच है कि मुस्लिम समुदाय के भीतर कुछ मुद्दे हैं, लेकिन हर व्यक्ति के खिलाफ ऐसे आरोप लगाना अन्यायपूर्ण है. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अतिवादी विचारों वाले मुसलमान, कुछ विशिष्ट धार्मिक व्याख्या या कारणों से, उत्सव समारोहों में भाग नहीं लेने का विकल्प चुन सकते हैं. हालांकि, वे व्यक्ति जो ऐसे मूल्यों में विश्वास नहीं रखते हैं, वे ही उत्सवों में सक्रिय रूप से शामिल होते हैं और उनकी खुशियां शेयर करते हैं. पूरी तरह से प्रतिबंध लगाकर, हम समझ और एकता को बढ़ावा देने के बजाय अलगाव को और बढ़ावा देने का जोखिम उठाते हैं.

ऐसी दुनिया में जहां कुछ मुस्लिम-बहुल देशों ने क्रिसमस जैसे त्योहारों के उत्सव को प्रतिबंधित कर दिया है, मैं ऐसे देश में रहने के लिए धन्य महसूस करती हूं जहां हमें हर त्योहार का एक साथ आनंद लेने की अनुमति है. यहां हम अपनी पहचान से ऊपर उठकर एक-दूसरे की खुशियों में शामिल होते हैं. भारतीय मुसलमानों को सबको साथ लेकर चलने के सिद्धांत को अपनाना चाहिए और अन्य समुदायों को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए बजाय इसके कि वे अन्यत्र देखी जाने वाली प्रतिबंधात्मक तरीकों को अपनाएं.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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