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Thursday, 25 April, 2024
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इतिहास की गलती का शिकार हैं समीर वानखेड़े, मुसलमानों और ईसाइयों में भी है जाति और छुआछूत

किसी का शिड्यूल्ड कास्ट का दर्जा सिर्फ इसलिए छीन लेना कि उसने अपना धर्म बदल लिया है, दरअसल उस व्यक्ति की धर्म बदलने की संवैधानिक स्वतंत्रता का निषेध है.

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नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के मुंबई जोन के अफसर समीर वानखेड़े की वजह से ये विवाद अभी फिर से उठा है, वरना ये सवाल पिछले सत्तर साल में अदालत से लेकर संसद में कई बार पूछा जा चुका है. 2008 बैच के इंडियन रेवेन्यू सर्विस के अफसर वानखेड़े कई कारणों से विवाद में हैं. ताजा विवाद शाहरुख खान के बेटे की क्रूज पार्टी में नशाखोरी के आरोपों में हुई गिरफ्तारी को लेकर है. इस बीच, उन पर फिरौती के भी आरोप लगे हैं. इससे पहले भी नशाखोरी के कई हाई प्रोफाइल केस वे देख चुके हैं.

लेकिन जिस विवाद की मैं यहां बात कर रहा हूं, उसका संबंध उनकी प्रोफेशनल से ज्यादा, निजी जिंदगी से है और जैसा कि कहा जाता कि पर्सनल मामलों की भी एक पॉलिटिक्स होती है. दरअसल, महाराष्ट्र के मंत्री और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के नेता नवाब मलिक ने वानखेड़े पर आरोपों की झड़ी लगा दी है, जिसका सार ये है कि वानखेड़े मुसलमान हैं और जब वे मुसलमान हैं तो उन्होंने शिड्यूल्ड कास्ट यानी एससी कोटे से कैसे नौकरी ली.

जो आरोप नवाब मलिक और अन्य पक्षों द्वारा लगाए जा रहे हैं, वे संक्षेप में इस तरह हैं – समीर वानखेड़े के पिता ने एक मुस्लिम महिला से शादी की थी. समीर ‘दाऊद’ खान ने फिर एक मुसलमान महिला से शादी की, जिसका निकाहनामा नवाब मलिक ने सार्वजनिक किया है.

अब नवाब मलिक का कहना है कि समीर मुसलमान है तो उसने एससी कोटे से नौकरी कैसे ली? भारत सरकार के नियमों के हिसाब से तो मुसलमान का एससी का सर्टिफिकेट बन ही नहीं सकता. इसका मतलब है कि समीर वानखेड़े ने किसी एससी कैंडिडेट की सीट ले ली है. नवाब मलिक का कहना है कि नियमों के मुताबिक, ‘समीर वानखेड़े की नौकरी जाएगी.’

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क्या है 1950 का संविधान आदेश

नवाब मलिक दरअसल 1950 के संविधान आदेश (शिड्यूल्ड कास्ट) का जिक्र कर रहे हैं, जिसके तीसरे पैराग्राफ में ये लिखा है कि ‘हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म मानने वालों के अलावा कोई और शिड्यूल्ड कास्ट का सदस्य नहीं हो सकता है.’ यह दरअसल संशोधित आदेश है. इसमें बौद्धों को 1990 के संशोधन के जरिए शामिल किया गया है.

यही आदेश आज भी लागू है और जाहिर है कि अगर समीर वानखेड़े का मुसलमान होना साबित हो गया तो उनका अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट निरस्त हो जाएगा और जैसा कि नवाब मलिक कह रहे हैं कि उनकी नौकरी भी जा सकती है. गलत कास्ट सर्टिफिकेट बनवा कर नौकरी लेने के कारण उन पर मुकदमा भी हो सकता है.

यह दिलचस्प है कि संविधान लागू होने के सात महीने बाद 10 अगस्त, 1950 को आदेश लाकर शिड्यूल्ड कास्ट की एक धार्मिक परिभाषा बनाई गई, जबकि ये काम संविधान में भी किया जा सकता था. संविधान में शिड्यूल्ड कास्ट से संबंधित जो भी अनुच्छेद हैं, उनमें किसी तरह की धार्मिक पाबंदी के होने या नहीं होने का कोई जिक्र नहीं है.

मिसाल के तौर पर, अनुच्छेद 366(24) में शिड्यूल्ड कास्ट को इस तरह परिभाषित किया गया है: ‘शिड्यूल्ड कास्ट से ऐसी जातियां, मूलवंश या जनजातियां अथवा ऐसी जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भाग या उनमें के हिस्से अभिप्रेत हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 341 के अधीन अनुसूचित जातियां समझा जाता है.’ सरकारी हिंदी में लिखे इस वाक्य का मतलब है कि शिड्यूल्ड कास्ट के बारे में और समझने के लिए अनुच्छेद 341 देखें. अनुच्छेद 341 (1) में ये व्यवस्था है कि राष्ट्रपति राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की किसी जाति को सार्वजनिक अधिसूचना के जरिए शिड्यूल्ड कास्ट में शामिल कर सकते हैं. इन दोनों अनुच्छेदों में धर्म का कोई जिक्र नहीं है.

तो क्या ये मान लिया जाए कि संविधान निर्माताओं ने शिड्यूल्ड कास्ट के लिए किसी खास धर्म का सदस्य होने की शर्त नहीं लगाई थी, पर तत्कालीन सरकार ने संविधान लागू होने के बाद ये शर्त लगा दी? तकनीकी तौर पर ये बात सही है, लेकिन ये भी समझना होगा कि शिड्यूल्ड कास्ट की लिस्ट आजादी से पहले की है और इसमें छुआछूत को आधार मानते हुए जिन जातियों की लिस्ट बनाई गई थी. उसमें 1950 के आदेश के जरिए कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया गया था.

ये भी तथ्य है कि जिस दौर में यानी आजादी के आंदोलन और संविधान निर्माण के दौरान जब ये बहसें चल रही थीं, तब मुसलमान और ईसाई समुदायों का नेतृत्व करने वाले नेताओं ने इस बारे में कोई मांग नहीं उठाई. लेकिन ये तो इतिहास की बात है.


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मुसलमानों और ईसाइयों को एससी दर्जा मिलने के तर्क

मैं इस लेख में ये तर्क देना चाहूंगा कि समीर वानखेड़े को अगर मुसलमान मान भी लिया जाए तो उसे शिड्यूल्ड कास्ट का मानने का पर्याप्त नैतिक यानी मोरल (कानूनी नहीं) आधार है. बेशक कानूनी तौर पर स्थिति यही होगी कि अगर वह मुसलमान है तो 1950 के आदेश के तहत, वह शिड्यूल्ड कास्ट का नहीं हो सकता. इसलिए समीर अगर मुसलमान साबित कर दिए जाते हैं तो उनका एससी दर्जा बचाए रखने के लिए 1950 के आदेश को संशोधित या समाप्त करना होगा.

मेरे पांच प्रमुख तर्क हैं

1. भारत में जाति एक ऐसी चीज है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह कभी नहीं जाती. जातियां एक सार्वेभौमिक, अमूमन हर धर्म में मौजूद सामाजिक श्रेणी है. धर्म बदलने से भी जाति नहीं बदलती और न ही सामाजिक हैसियत में ही खास बदलाव आता है. ये संभव है कि किसी धर्म की किताब ये बताती हो कि ईश्वर की नजर में सभी बराबर हैं और इंसान और इंसान में कोई भेद नहीं होता और सभी लोग एक दूसरे के समान हैं, लेकिन दक्षिण एशिया के समाज में ऐसा नहीं चलता है. यहां समतामूलक माने जाने वाले धर्मों को मानने वालों में भी जाति और जातिभेद मौजूद हैं. शादी से लेकर सामाजिक व्यवहार में जाति के आधार पर आचरण किया जाता है. मुसलमानों और ईसाइयों में भी ऐसी जातियां हैं जो अछूत हैं और निम्न स्तरीय कामों में उन्हें ही लगाया जाता है. ये लोग कभी मुक्ति की चाहत में हिंदू धर्म छोड़कर गए होंगे लेकिन नए धर्म में भी उन्हें उनका स्वर्ग नहीं नहीं मिला. इसलिए सिर्फ इस आधार पर किसी का अछूत होना कैसे बदल जाता है कि वह मुसलमान या ईसाई है या बन गया.

2. संविधान आदेश (शिड्यूल्ड कास्ट) 1950 मूल संविधान के बाद आया है और यह संविधान में लिखित समानता के सिद्धांत के खिलाफ खड़ा है. ये मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 25 के खिलाफ है क्योंकि ये धर्म के आधार पर नागरिकों के दो वर्गों के बीच भेदभाव करता है. संविधान हर भारतीय को अपनी पसंद का धर्म मानने, कोई भी धर्म न मानने और धर्म बदलने का अधिकार देता है. इसलिए किसी का शिड्यूल्ड कास्ट का दर्जा सिर्फ इसलिए छीन लेना कि उसने अपना धर्म बदल लिया है, दरअसल उस व्यक्ति की धर्म बदलने की स्वतंत्रता का निषेध है. इस प्रावधान से तो ऐसा लगता है कि इसे इसलिए लाया गया ताकि हिंदू धर्म के दलित, धर्म बदलकर मुसलमान या ईसाई न बनें. बनना भी है तो ज्यादा से ज्यादा सिख या बौद्ध बन जाएं और अपना शिड्यूल्ड कास्ट का दर्जा बचाएं. इसे धार्मिक स्वतंत्रता नहीं कहेंगे.

3. एक तर्क ये है कि इस्लाम और ईसाई धर्म तो समानतामूलक धर्म हैं और हिंदू धर्म की किताबों की तरह उनकी किताबों में जाति और वर्ण नहीं है. इन धर्मों में छुआछूत भी नहीं है. ऐसे में इन धर्मों को मानने वाले ये कैसे कह सकते हैं कि उनके अंदर जातिवाद या छुआछूत है. लेकिन ऐसा कहने का मतलब यह मानना है कि धर्म जीवन व्यवहार नहीं, किताबों से निर्धारित होता है, जो सच नहीं है. समानता का दर्शन तो सिख और बौद्ध धर्म में भी है. अगर समानता का दर्शन सिखाने के बावजूद इस धर्मों में जाति और जातिवाद है और इन धर्मों में एससी हो सकते हैं, तो यही स्थिति मुसलमानों और ईसाइयों की भी मान ली जाए. किताबें समानता सिखातीं है, पर धर्मावलंबी जातिवाद मानते हैं. इसलिए समानतावादी धर्म का पालन करने वालों को अनुसूचित जाति के दर्जे से वंचित रखना गलत है.

4. मुसलमान और ईसाइयों की कई जातियां विभिन्न राज्यों और केंद्र सरकार की लिस्ट में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग में आती हैं. ये एक तरह से इस बात की मान्यता है कि इन दो धर्मों में भी जातिवाद है. अगर इन धर्मों के लोगों का ओबीसी सर्टिफिकेट बन रहा है तो एससी सर्टिफिकेट क्यों नहीं? अभी की व्यवस्था ये है कि मुसलमानों और ईसाइयों में जो जातियां अछूतों के आसपास हैं, उन्हें ओबीसी लिस्ट में शामिल कर लिया गया है. इसके अलावा इन धर्मों की किसान और कारीगर जातियां भी ओबीसी लिस्ट में हैं. मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र की ओबीसी सेंट्रल लिस्ट में ‘मुसलमान भंगी/मेहतर/लालबेग/हलालखोर/खाखरोब जैसी जातियां जो सफाई का काम करती हैं’ शामिल हैं. जाहिर है कि सरकार मुसलमानों और ईसाइयों में जाति के अस्तित्व को मानती है, लेकिन उन्हें एससी में शामिल नहीं किया जाता.

5. मुसलमानों और ईसाइयों की कुछ जातियों को एससी लिस्ट में शामिल नहीं किए जाने के पीछे एक तर्क ये है कि इससे हिंदू-सिख-बौद्ध एससी का हिस्सा कम हो जाएगा और उनके लिए प्रतियोगिता बढ़ जाएगी. बीजेपी और आरएसएस इस तर्क का इस्तेमाल कर रहा है. बीजेपी शुरू से ही इस मांग का विरोध कर रही है कि मुसलमानों और ईसाइयों में भी एससी का दर्जा दिया जाए. लेकिन अगर भविष्य में कोई सरकार एससी कैटेगरी को धर्म की पाबंदी से मुक्त करना चाहती है तो वह एससी का कुल कोटा बढ़ा सकती है क्योंकि नए समुदायों के एससी में शामिल होने के बाद ये करना जरूरी हो जाएगा. इसके अलावा एक तरीका ये भी है कि जो नए लोग एससी में शामिल होंगे, उनके लिए एक सब-कोटा बना दिया जाए. तीसरा तरीका ये है कि ओबीसी के अंदर ही इनके लिए अलग कटेगरी बना दी जाए.

दरअसल ये मामला कई दशकों से विवादों में हैं. सरकार और सुप्रीम कोर्ट की अभी तक की पोजीशन यही है कि 1950 से संविधान आदेश के कारण ये संभव नहीं है. सरकार ने ये भी स्पष्ट किया है कि धर्मांतरण करने वालों को ये सुविधा नहीं मिल सकती है. हालांकि यूपीए सरकार में अल्पसंख्यकों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए गठित जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग ने ये माना था कि धर्म बदलने से जाति नहीं बदलती इसलिए मुसलमानों और ईसाइयों में भी जो जातियां छुआछूत का शिकार हैं, उन्हें एससी का दर्जा मिलना चाहिए. आयोग की ये भी सिफारिश है कि संविधान आदेश 1950 को समाप्त कर देना चाहिए और एससी दर्जे को धर्म की पाबंदी से उसी तरह मुक्त किया जाना चाहिए, जिस तरह से एसटी और ओबीसी के मामले में होता है.

यूपीए सरकार ने इस सिफारिश पर कभी अमल नहीं किया. बीजेपी अल्पसंख्यक कल्याण के लिए ऐसा कुछ करेगी ये सोचना भी वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में संभव नहीं है. इसलिए अभी ये विवाद खत्म होता नजर नहीं आता.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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