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Thursday, 28 March, 2024
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अम्बेडकरवाद को नई बुलंदियों पर ले गए मान्यवर कांशीराम

कांशीराम के नजरिए से अंबेडकरवाद को देखें तो किसी भी संगठन या फिर संस्थान को अंबेडकरवादी तभी कहा जा सकता है, जब यह पता हो कि उसका उद्देश्य क्या है.

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भारत में राजनीति का ग्रामर बदल देने वाले मान्यवर कांशीराम का उदय सत्तर के दशक में हुआ और उनके इस योगदान की वजह से उनके समर्थकों तथा उनके विरोधियों तक ने इस व्यक्तित्व के महत्व को स्वीकार किया. कांशीराम की बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अभी हाल में अर्जुन सिंह द्वारा उन पर बनाई गयी फिल्म ‘दि ग्रेट लीडर कांशीराम’ देखते ही देखते यू यूट्यूब पर छा गयी. उन पर बने गाने इन दिनों पब्लिक में खूब सुने जाते हैं. सिर्फ इतना ही नहीं, आजकल यूट्यूब पर उनके पुराने भाषण और टीवी चैनलों को दिये इंटरव्यू भी ढूंढ ढूंढ कर सुने जाते हैं.

अम्बेडकरवाद बनाम कांशीरामवाद

कांशीराम और उनके संघर्षों के बारे में जब भी बातचीत होती है, तो उन पर एक आरोप आम तौर पर लगता है कि वो अम्बेडकरवाद से विमुख राजनेता थे. अम्बेडकरवाद से उनकी विमुखता के पीछे तर्क दिया जाता है कि वो सत्ता हासिल करने के लिए साधनों की पवित्रता पर यकीन नहीं करते थे, जबकि डॉ अम्बेडकर नैतिक मूल्यों के समर्थक थे. इन्हीं आरोपों की वजह से कांशीराम की पार्टी, बीएसपी को पोस्ट-अंबेडकराइट यानि अम्बेडकरवाद से बाद की पार्टी कहा गया, और उनकी विचारधारा को कुछ लोगों ने कांशीरामवाद नाम दिया.

कांशीराम के जीवन संघर्ष पर लिखने वाले अभय कुमार दुबे, सतनाम सिंह, एच एल दुसाध, बद्री नारायण आदि लेखकों ने उनकी विचारधारा पर थोड़ा बहुत प्रकाश डाला है, लेकिन इस बीच अभी हाल ही में ए. आर. अकेला ने कांशीराम द्वारा प्रकाशित की गयी पत्र-पत्रिकाओं से उनके संपादकीय लेखों और साक्षात्कारों को हिन्दी में अनुवाद करके कई खण्डों में प्रकाशित करवाया है, जो कि कांशीराम के विचारों को समग्र रूप से समझने में काफी मदद करती है.

कांशीराम के संपादकीय लेखों को पढ़ने से पता चलता है कि शुरुआती दिनों से ही उन पर अम्बेडकरवाद से विमुख होने के आरोप लगते रहे थे. उन पर ये आरोप ज्यादातर आरपीआई और दलित पैन्थर के लोग लगाते थे. अपने लेखों में वो समय-समय पर इस आरोप का जवाब भी देते रहते थे. उनका मानना था कि जिनकी वजह से अम्बेडकरवादी आंदोलन कमजोर हुआ है, वो लोग नहीं चाहते कि अम्बेडकरवाद पुनर्जीवित हो, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो जनता के बीच उन्हें अपनी असफलता का हिसाब देना पड़ेगा.

दि ओप्रेस्ड इंडियन के अपने संपादकीय लेखों में कांशीराम जगह-जगह यह उद्धृत करते हैं कि कैसे उनका आंदोलन डॉ. अाम्बेडकर का आंदोलन है, और कैसे वो इसे दीर्घायु करने लिए काम कर रहे हैं. इस विषय पर उनका सबसे महत्वपूर्ण लेख अप्रैल 1979 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने अपने विचार की आंदोलन से जुड़े निम्न पहलुओं के तौर पर चर्चा की, जो कि उनके अनुसार उन्होंने डॉ. अम्बेडकर से सीखा-

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1. अम्बेडकरवाद की परिभाषा

कांशीराम ने डॉ अम्बेडकर द्वारा 1925 में स्थापित ‘डिप्रेस्ड क्लास इंटीट्यूट’ की परिभाषा से अंबेडकरवाद की परिभाषा निकाली. डॉ अाम्बेडकर के अनुसार, ‘डिप्रेस्ड क्लासेज इंस्टीट्यूट डिप्रेस्ड क्लासेज के लोगों का संगठन है, जो डिप्रेस्ड क्लासेज के हितों के लिए, डिप्रेस्ड क्लासेज के लोगों द्वारा चलाया जाता है. संस्थान का उद्देश्य उन्हें वर्तमान दबी-कुचली स्थिति से निकालकर एक ऐसी स्थिति में पहुंचाना है, जहां उनको सामाजिक और राजनीतिक समानता प्राप्त हो, तथा उनके आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो.’

इस प्रकार कांशीराम के नजरिए से अंबेडकरवाद को देखें तो किसी भी संगठन या फिर संस्थान को अंबेडकरवादी तभी कहा जा सकता है, जब यह पता हो कि उसका उद्देश्य क्या है, किसके लिए काम कर रहा है, कौन चला रहा है, और किसके पैसे से चल रहा है? ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि अंबेडकरवादी विचारधारा जातिगत गुलामी के खिलाफ आंदोलन है, जो कि बिना आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान का निर्माण किए संभव नहीं है.

संगठन/संस्थान निर्माण किसी भी व्यक्ति या समाज में आत्मविश्वास पैदा करता है, क्योंकि उससे उस समाज/व्यक्ति को पता चलता है कि वह भी कुछ कर सकता है. आत्मविश्वास व्यक्ति में आत्मसम्मान पैदा करता है. आत्म सम्मान यानि सेल्फ रिस्पेक्ट का मतलब है कि अपने सकारात्मक कार्य की वजह से खुद का सम्मान करना. स्वाभिमान का मतलब है कि व्यक्ति अपने द्वारा चुने हुए कार्य करे, और लोग उसी कार्य के अनुसार उसका सम्मान करें. स्वाभिमान की भावना गुलामी के खिलाफ सतत संघर्ष के लिए बेहद जरूरी है. कांशीराम के अनुसार अम्बेडकरवादी आंदोलन को आत्मनिर्भरता हसिल करने के लिए अपने संसाधन (रुपया, मानव संसाधन) और संचार माध्यम (समाचार चैनल, संस्थान, संगठन) स्थापित करने चाहिए.

कांशीराम की दी हुई अंबेडकरवाद की उक्त परिभाषा आज बहुत ही महत्वपूर्ण हो गयी है, क्योंकि आजकल आए दिन अम्बेडकर के नाम पर कोई ना कोई संगठन बन रहा है.

2. आंदोलन की गतिशीलता

अम्बेडकरवाद को पुनर्जीवित करने और उसको गतिमान बनाए रखने के लिए कांशीराम शोधार्थियों से अंबेडकरवाद पर अपना सैद्धांतिक ज्ञान और सामाजिक कार्यकर्ताओं से अपना व्यावहारिक ज्ञान साझा करने की अपील करते हैं. उनके अनुसार अंबेडकरवाद तभी गतिमान रह सकता है, जब वह बिना अपनी मूल भावना मिटाये समयानुसार अपने अंदर परिवर्तन कर ले. इसके लिए वो बाबासाहब द्वारा सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए समय-समय पर शुरू की गयी पत्र पत्रिकाओं- मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत (1927), जनता (1930), समता और प्रबुद्ध भारत (1955) का उदाहरण देते हैं, और अपने द्वारा शुरू किए गए दि ओप्रेस्ड इंडियन, बहुजन नायक, बहुजन टाइम्स आदि का हवाला देते हैं.

इसी तरीके से बाबासाहब ने अपने जीवन काल में अलग-अलग कार्यों के लिए विभिन्न संगठन- बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1925), इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1936), और आल इंडिया शिड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन बनाया (1942), और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (1956) की संकल्पना की. साथ ही उन्होंने सिद्धार्थ कालेज और मिलिंद कालेज की भी स्थापना की. कांशीराम के अनुसार उन्होंने बाबा साहब से ही प्रेरणा लेकर जरूरत के मुताबिक बामसेफ, बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर, डीएसफोर और बीएसपी बनाई.

3. नकारात्मकता को हटकर नवीन ऊर्जा का प्रवाह

कांशीराम के अनुसार आंदोलन में लगातार मिल रही असफलता हताशा और नकारात्मकता का माहौल पैदा करती है, जिससे कि समाज में भय और निराश बढ़ जाती है. ऐसी स्थिति यथास्थितिवाद को भी जन्म देती है, जहां लोग अपनी क्षमता पर ही शक करना शुरू कर देते हैं. उनके अनुसार आरपीआई और दलित पैन्थर की असफलता का यही परिणाम हुआ. इसके उदाहरणस्वरूप वो बाबासाहब के धर्मांतरण की रजत जयंती पर 14 अक्तूबर 1975 में नागपुर में हुए बौद्ध सम्मेलन में पास हुए प्रस्ताव को देते हैं जिसमें कहा गया कि ‘सरकार और दूसरे लोगों को हमें (दलितों को) उठाना चाहिए, नहीं तो हम (दलित) कभी उठ नहीं पाएंगे’. कांशीराम के अनुसार यह प्रस्ताव अम्बेडकर के 14 अक्तूबर 1956 के दृष्टिकोण साफ अलग था क्योंकि तब यह कहा गया था कि ‘हम स्वयं को उठाएंगे, हम मानवता को उठाएंगे’.

चहुंओर आई असफलता से उपजी निराशा को समाप्त करने के लिए उन्होंने चलता फिरता अंबेडकर मेला, साइकिल मार्च, जेल भरो आंदोलन, जन संसद आदि आयोजित किए. अपने आंदोलन को आत्म-निर्भर बनने के लिए पे बैक टू सोसायटी की अवधारणा पर बल दिया.

समाज में नकारात्मकता फैलाने वाले नेताओं को चिन्हित करने के लिए उन्होंने चमचा युग नामक किताब लिखी, क्योंकि उनके अनुसार आरक्षित सीटों से चुनकर जाने वाले नेता अपने समाज की आवाज ना बनकर अपने मालिक की आवाज बन गए. उन्होंने ऐसे नेताओं के खिलाफ जागरूकता फैलाने के लिए पूना पैक्ट के खिलाफ धिक्कार दिवस मनाया लेकिन इससे आंदोलन में नकारात्मकता ना फैले, इसके लिए सेपरेट एलेक्टोरेट की अपनी मांग छोड़ दी. नवंबर 1982 के अपने संपादकीय लेख में उन्होने इसके व्यापक कारण बताए.

अपने आंदोलन में नवीन ऊर्जा के सृजन के लिए उन्होंने अन्याय मुक्त क्षेत्र की अवधारणा की बात की जिसके तहत अक्तूबर 1983 में होशियारपुर और नागपुर को अन्यायमुक्त क्षेत्र के तौर पर ग्रहण किया. इसी कड़ी में उन्होंने जापान में बुराकू लिबरेशन रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा दिसंबर 1983 में आयोजित भेदभाव के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में शिरकत की और ऐसा ही सम्मेलन भारत में करने के बारे में सोचने के साथ-साथ अपने समर्थकों से अनुरोध किया कि दुनिया भर में जहां कहीं भी भेदभाव के खिलाफ संघर्ष हो रहा हो उसके पक्ष में खड़े हों, ताकि भविष्य में उनके हितों की सुरक्षा हो सके.

4. असमानता के प्रतीक ब्राह्मणवाद पर सतत हमला

कांशीराम ब्राह्मणवाद को भारत में जाति आधारित की नींव मानते थे, इसलिए वो उसके प्रतीको को ध्वस्त करने के लिए हमेशा संघर्षरत थे. मिसाल के तौर पर उहोने पूना को हमेशा ही अपने आंदोलन का एक केंद्र बनाकर रखा क्योंकि पूना से ही पेशवा शासन की शुरुआत हुई थी. अपने लेखों में वो गाय को आगे करके की जाने वाली राजनीति से लेकर सांप्रदायिक दंगों में दलितों की सहभागिता पर भी आगाह करते रहते थे.

कांशीराम हर अम्बेडकर जयंती पर आग्रह करते थे कि बाबासाहेब को याद करने का पूजा केंद्रित तरीका बदलकर मिशन केन्द्रित बनाना चाहिए, जिसके लिए इसे वार्षिक मामला ना बनाकर दैनिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बनाया जाए.

ब्राह्मणवाद के प्रतीक चिन्हों के ही बहिष्कार के तौर पर उन्होंने भगवान बुद्ध के बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को अपने आंदोलन का मुख्य ध्येय बनाया.

5. आंदोलन को आयामों पर अलग-अलग लड़ना

कांशीराम के अनुसार डॉ अम्बेडकर के बाद अम्बेडकरवादी आंदोलन के असफल होने का एक बड़ा करना उनके अनुयायियों द्वारा आंदोलन के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आयामों को एक दूसरे से मिला देना था. उनके अनुसार खुद बाबा साहब अपने जीवनकाल में इससे बचते रहे, इसके उदाहरण स्वरूप उन्होंने बाबासाहब के लखनऊ में दिये किसी भाषण को उद्धृत करते थे, जहां वो कहते हैं कि जिनकी आवश्यकताएं एक हैं, उन्हें एक दूसरे के साथ जुड़ जाना चाहिए. कांशीराम ने कहा कि वो अपने जीवनकाल में आंदोलन के विभिन्न आयामो को एक दूसरे में मिलाने की गलती कभी नहीं करेंगे.

( लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से पीएचडी कर रहे हैं)

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