क्या एनडीए–2 उसी राह निकल पड़ी है जिस राह पर यूपीए-2 गई थी ? यों दोनों में मेल बैठाना बेमानी है तो भी इंडिया टुडे का नवीनतम मूड ऑफ नेशन सर्वे (एमओटीएम) हमें इस लुभाऊ सवाल पर सोचने को उकसाता तो है ही. एक राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोले खड़ा है और सत्ताधारी पार्टी अपनी दूसरी पारी में अपना तख्तो-ताज संभाले इस आंदोलन से जूझ रही है तो ऐसे में यूपीए-2 के शासन के उस दौर की याद आना स्वाभाविक है जब वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से चहुंओर घिर गई थी.
वक्त के इस खास मुकाम पर खड़े होकर एनडीए-2 और यूपीए-2 की दशा के बीच समानता के साक्ष्य खोजने के लिए इंडिया टुडे का सर्वेक्षण एक अच्छी जगह है. इंडिया टुडे का मूड ऑव द नेशन सर्वे छह माह पर होता है और निरंतरता के एतबार से देखें तो ये सर्वेक्षण देश में अपने किस्म का अनूठा डेटा-भंडार है. ( यों लोकनीति-सीएसडीएस का मूड ऑफ द नेशन सर्वेक्षण मुझे कहीं ज्यादा पसंद है लेकिन वो एक बार फिर से बाधित हुआ है). इंडिया टुडे के मूड ऑफ द नेशन सर्वे की पद्धति और गुणवत्ता में वक्त के साथ बदलाव आया है तो भी इसके सर्वेक्षकों के निष्कर्ष पर मेरा भरोसा बना हुआ है और मैं उन निष्कर्षों के हवाले से बात करना ठीक समझता हूं. इसी कारण मुझे हर बार इंतज़ार लगा रहता है और मैं सर्वेक्षण के निष्कर्षों को बड़े धीरज से पढ़ता-गुनता हूं. इंडिया टुडे के मूड ऑफ द नेशन ऋंखला के इस नवीनतम चरण के लिए मौका-मुआयना का काम 2019 के दिसंबर के आखिर के दस दिनों में हुआ. हमेशा की तरह इस बार भी सर्वेक्षण करने वालों ने 19 राज्यों के लगभग 12000 उत्तरदाताओं यानि एक छोटे मगर प्रातिनिधिक सैम्पल के सहारे अपनी बात कही है. अब चाहे ये सर्वेक्षण कुछ अधूरा ही क्यों ना जान पड़ता हो लेकिन ड्राईंग-रुम में चलने वाली गप्प-गोष्ठियों की तुलना में ऐसे सर्वेक्षण को आधार बनाकर कोई बात कहना कहीं ज्यादा उचित है.
इस सर्वेक्षण में ऐसे कई संकेत है, जो जताते जान पड़ते हैं कि बीजेपी की लोकप्रियता का ग्राफ अब गिरावट पर है. सर्वेक्षण के आधार पर एक बड़ा अनुमान तो यही सामने आया है कि आज की तारीख में चुनाव हो जाये तो एनडीए को 2019 के चुनाव में जितनी सीटें मिली थीं उससे 50 सीटें कम हो जायेंगी और अगर अभी की स्थिति में विपक्षी पार्टियों के किसी महागठबंधन की कल्पना की जाये जिसमें शिवसेना भी शामिल हो तो सीटों का संख्या और नीचे जायेगी. सर्वेक्षण के मुताबिक एनडीए के वोट शेयर में 4 फीसद की गिरावट आयी है. उसका वोट शेयर लोकसभा चुनावों के 45 फीसद से घटकर अब 41 प्रतिशत पर आ गया है. अब इस तस्वीर में लोकसभा चुनावों के बाद हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों को जोड़कर देखिए. आप को साफ दिखेगा कि एनडीए का सितारा लगातार नीचे की तरफ खिसक रहा है.
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लेकिन, मैं ऐसे किसी खुशगवार निष्कर्ष पर पहुंचने की हड़बड़ी में नहीं हूं. सीटों को लेकर जताये गये अनुमान को मैं कभी गंभीरता से नहीं लेता, खासकर उस स्थिति में जब चुनाव कई साल दूर हों. मतदाताओं को अपने मन का ठीक-ठीक पता नहीं होता और सर्वेक्षण करने वाले ये नहीं जान पाते कि महागठबंधन की स्थिति में तस्वीर क्या रंग पकड़ेगी और फिर, एक बात ये भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का सितारा जिस चरम ऊंचाई पर पहुंचा था अगर आज उससे कुछ बालिश्त नीचे नज़र आ रहा है तो इसे लेकर कोई बड़ा निष्कर्ष निकालने की ज़रुरत नहीं. गौर करने की एक बात ये भी है कि बीजेपी की लोकप्रियता बेशक घटी है. लेकिन इस घटती को राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की विरोधी कांग्रेस के खाते में हुई बढ़ती नहीं कहा जा सकता.
प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में हल्की सी गिरावट जरुर आयी है. लेकिन अब भी 68 फीसद मतदाताओं के मन में उनके प्रति पसंद बनी हुई है. प्रधानमंत्री पद की होड़ के एतबार से देखें तो नरेन्द्र मोदी अपने प्रतिद्वन्द्वियों से कई कोस आगे हैं ( सर्वेक्षण के मुताबिक 53 फीसद उत्तरदाताओं ने प्रधानमंत्री के प्रति अपनी पसंद जतायी जबकि राहुल गांधी के प्रति अपनी पसंद जताने वाले उत्तरदाताओं की तादाद 13 फीसद थी. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में अभी कुछ अंकों की और गिरावट आती है तो भी उनके लिए चिन्ता की कोई बात नहीं क्योंकि विपक्ष का कोई भी नेता लोकप्रियता के पैमाने पर अभी उनके आगे पासंग बराबर नहीं बैठता.
अर्थव्यवस्था को लेकर सर्वेक्षण के संकेत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, हांलांकि ये उतने दमदार नहीं जितनी कि मुझे उम्मीद थी. 32 फीसद का आंकड़ा बताता है कि लोगों के मन में फिलहाल बेरोजगारी की चिन्ता सबसे ज्यादा प्रबल है. साल 2016 के अगस्त में जब इंडिया टुडे का मूड ऑफ द नेशन सर्वे हुआ था, तभी से बेरोजगारी को लेकर लोगों के मन में ऐसी चिन्ता कायम चली आ रही है. लेकिन अगर ऐसा है तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं क्योंकि देश में बेरोजगारी की दशा बड़ी संगीन है, खासकर शिक्षित नौजवानों में. दरअसल कहना तो ये चाहिए कि हद दर्जे की संगीन बेरोजगारी की सच्चाई सर्वेक्षण में पूरी तरह आ नहीं पायी है.
खेतिहर संकट भले ही समाचारों की सुर्खियों से गायब हो चला है. लेकिन लोगों के मन में अब भी एक बड़ी चिन्ता के रुप में मौजूद है. यों देखें तो नरेन्द्र मोदी को किसानों के वोट हासिल करने में कामयाबी मिली लेकिन लोगों के मन से ये बात नहीं निकल पायी है कि उनके शासन में किसान बदहाली के शिकार हुए हैं. साथ ही, खाद्य-पदार्थों की मुद्रास्फीति अब उपभोक्ताओं को सताने लगी है, यों महंगाई को लेकर चिन्ता अभी लोगों में विशेष गहरी नहीं है. बीते-पुराने और बुरे करार दिये गये यूपीए को आज की तारीख में अर्थव्यवस्था को संभालने-चलाने के एतबार से कहीं ज्यादा बेहतर माना जाने लगा है. अर्थव्यवस्था की दशा के लिहाज से देखें तो लोग अब साफ-साफ तीन खेमों में बंटे दिखायी दे रहे हैं: 29 फीसद लोग आस्थावान हैं. उनका मानना है कि अर्थव्यवस्था की दशा को लेकर विशेष चिन्ता करने की बात नहीं. 29 फीसद शंकित हैं, उनका मानना है कि अर्थव्यवस्था गतिरोध की शिकार है या फिर ढलान पर है जबकि 32 प्रतिशत लोग अभी अनिर्णय की स्थिति में हैं, इनका कहना है कि अर्थव्यवस्था उभार पर तो है लेकिन उभार की गति धीमी है. तो फिर, सत्तातंत्र के लिए ये एक बुरी खबर है लेकिन उतनी बुरी नहीं जितनी कि अर्थव्यवस्था की वास्तविक हालत के हिसाब से होनी चाहिए. जनमत सरकार से दूर खींचा है लेकिन इतना भी दूर नहीं जो कहा जाय कि मोहभंग की स्थिति आ चुकी है.
क्या बहुसंख्यकवादी नीतियां काम कर रही हैं?
लोकसभा चुनावों के बाद से सरकार ने बहुसंख्यकवादी रुझान वाली नीतियों पर चलना शुरु किया है और मेरे ख्याल से इस बाबत मूड ऑफ द नेशन सर्वे के निष्कर्ष कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. अमित शाह को आगे कर एनडीए-2 कश्मीर, नागरिकता संशोधन अधिनियम तथा राष्ट्रव्यापी एनआरसी सरीखे कदमों के सहारे बड़े आक्रामक तेवर के साथ ध्रुवीकरण की राह पर है. हालांकि ये नीतियां लंबी अवधि में राष्ट्रहित तथा देश की अंतर्राष्ट्रीय साख के लिए घातक हैं लेकिन मुझे ये भी लगता है कि तात्कालिक तौर पर ये कदम बीजेपी को सियासी तौर पर फायदा पहुंचा सकते हैं.
सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता है कि बीजेपी ने कुछ ज्यादा ही बड़ा दांव हथियाने के लिए अपने पत्ते फेंके थे. धारा 370 को हटाने के सवाल पर सर्वेक्षण के उत्तरदाता सरकार की तरफ हैं लेकिन ये समर्थन उतना भी ज्यादा नहीं जितने की बीजेपी को उम्मीद रही होगी. इसी तरह सीएए को समर्थन देने वालों की तादाद इसका विरोध करने वाली की तादाद से ज्यादा है (41 प्रतिशत उत्तरदाता सीएए की तरफदारी में हैं जबकि 26 प्रतिशत इसके विरोध में). यही बात एनआरसी पर लागू होती है.(49 प्रतिशत पक्ष में जबकि 26 प्रतिशत विपक्ष में). लेकिन बीजेपी ने जितने ध्रुवीकरण की उम्मीद लगायी थी, ये तादाद उसके सामने कुछ भी नहीं. उत्तरदाताओं की अधिकतर तादाद ( 52 प्रतिशत) मानती है कि अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. इससे भी ज्यादा अहम बात : 53 प्रतिशत उत्तरदाता मानते हैं कि अल्पसंख्यक अगर असुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो ऐसा महसूस करना लाजिमी ही है. सरकार के लिए सबसे बुरी खबर ये है कि ज्यादातर लोग सीएए-एनआरसी को एक जुगत के रुप में देख रहे हैं, ऐसी जुगत जिसके सहारे सरकार ने लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश की है ( 43 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने सीएए-एनआरसी को ध्यान भटकाने की जुगत माना जबकि ऐसा ना मानने वालों की तादाद 32 प्रतिशत है). यह भी याद करें कि सर्वेक्षण जेएनयू में हुए कांड के पहले हो चुका था. अगर जेएनयू वाली घटना के बाद के वक्त में सर्वे होता तो सरकार की वैधता कुछ और कम दीख पड़ती.
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लेकिन इसे मिस्टर मोदी के पतन और पराभव की शुरुआत के रुप में देखना ठीक नहीं. एक वजह तो यही कि साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की जीत का आंकड़ा उस साधारण सी जीत से कहीं ज्यादा रहा जो 2009 में यूपीए ने हासिल की थी. इसके अतिरिक्त ये भी ध्यान में रखें कि अन्ना हजारे के आंदोलन को तो मीडिया ने अपने सर आंखों पर बैठाया था लेकिन ये बात सीएए-एनआरसी विरोधी जन-आंदोलन पर लागू नहीं होती. सबसे बड़ी बात ये कि पतन और पराभव की शुरुआत सरीखे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना हड़बड़ी कहलाएगा क्योंकि मोदी सरकार अपने चरित्र में मनमोहन सिंह की सरकार से बहुत अलग है. मोदी सरकार के साथ चाहे जो कुछ हो लेकिन ये सरकार अपने पतन और पराभव की पटकथा उस तरह तो खुद अपने ही हाथों से नहीं ही लिखेगी जैसा कि यूपीए-2 ने लिखा था. म
नमोहन सिंह की सरकार अगर नीतियों की अमलदारी के मोर्चे पर लकवाग्रस्त थी तो फिर कहा जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली मौजूदा सरकार अति-सक्रियता और अधि-सक्रियता की शिकार है और अपने अतिशय उछल-कूद में दिशाहीनता की शिकार हो चली है. हम पिछली सरकार से इस सरकार की तुलना नहीं कर सकते क्योंकि मौजूदा सरकार की बागडोर सियासी छल-छद्म में माहिर दो नेताओं के हाथ में है और ये दो नेता किसी मान-मूल्य, रीति-परिपाटी या फिर अपनी अंतप्रेरणा के नैतिक अंकुश के आगे हथियार डालने वालों में से कत्तई नहीं. यूपीए-2 ने बड़ी निरीहता के साथ 2014 में आत्मसमर्पण किया था लेकिन मौजूदा सरकार का पराभव उस रीति से नहीं होगा. हमें इस सरकार के पराभव की ताबीर तलाशने के लिए पीछे मुड़कर 1977 की तरफ देखना होगा या फिर अपने पड़ोस के मुल्कों में झांकना होगा जहां इस तेवर की सरकारों को लोगों ने ध्वस्त किया.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)
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