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Saturday, 4 January, 2025
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मोहन भागवत का भाषण ज़मीनी स्तर पर हिंदू कट्टरपंथियों पर काम नहीं कर रहा है

अगर भागवत का समावेशिता का आह्वान वास्तविक है, तो उन्हें अपने वैचारिक पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर विघटनकारी तत्वों के खिलाफ निर्णायक रूप से कार्रवाई करनी चाहिए.

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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा भारत से वैश्विक मंच पर सांप्रदायिक सद्भाव का उदाहरण स्थापित करने का आग्रह करने के कुछ दिनों बाद, हिंदूवादी संगठनों ने हरियाणा के अंबाला और रोहतक में ईसाई सभाओं को बाधित किया. उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि, जैसा कि भागवत ने बताया, रामकृष्ण मिशन भी क्रिसमस मनाता है. हरियाणा की घटना से पता चलता है कि आरएसएस प्रमुख ने विघटनकारी तत्वों की निंदा करके सही किया, जो खुद को “हिंदुओं के नेता” के रूप में स्थापित करने के लिए विभाजन पैदा करते हैं.

मोहन भागवत स्पष्ट रूप से शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के एक मॉडल पर जोर दे रहे हैं, जहां हर भारतीय स्वतंत्र रूप से अपने धर्म का पालन कर सके. फिर, हम अभी भी मस्जिद-मंदिर विवाद और क्रिसमस समारोहों में व्यवधान क्यों देखते हैं? सटीक कारण का पता लगाना मुश्किल है.

क्या भागवत का समावेशिता का संदेश उनके अपने वैचारिक दायरे में प्रतिध्वनित होने में विफल हो रहा है, या क्या ऐसी घटनाएं सद्भाव की दिशा में किसी भी कदम को कमजोर करने के लिए कट्टरपंथी तत्वों द्वारा किया गया एक सोचा-समझा प्रयास है?

आस्था बहुत निजी होती है

विश्व हिंदू परिषद (VHP) की युवा शाखा बजरंग दल विवादों से अछूती नहीं है. इसकी अलोकतांत्रिक रणनीति और भीड़ का व्यवहार नियमित रूप से सुर्खियों में रहा है. वैलेंटाइन डे पर युवा जोड़ों पर नैतिक पुलिसिंग से लेकर ‘भारतीय संस्कृति के खिलाफ’ किसी भी चीज़ का आक्रामक तरीके से विरोध करने तक, बजरंग दल के कार्यों की व्यापक आलोचना हुई है.

हालांकि, एक अव्यक्त समझ है कि हिंदू समाज का एक वर्ग बजरंग दल और VHP को अपने हितों की रक्षा के लिए ‘ज़रूरी’ मानता है. यह औचित्य मुख्य रूप से इस यकीन से निकला है कि ये संगठन सांप्रदायिक और सांस्कृतिक मामलों में ‘ईसाई धर्मांतरण’ या ‘मुस्लिम वीटो’ के प्रतिकार के रूप में कार्य करते हैं. यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मिशनरी लोगों को धर्मांतरित करने के लिए गुप्त रणनीति अपनाते हैं, जिससे अन्य सांस्कृतिक और धार्मिक पहचानों को खतरा होता है.

आस्था एक बहुत निजी मामला है. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मान्यताओं और विश्वासों के आधार पर अपने धर्म का पालन करने, उसे बदलने या त्यागने की स्वतंत्रता होनी चाहिए. ऐसी स्वतंत्रता एक समावेशी और लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला है, लेकिन यह आदर्श अक्सर सामाजिक वास्तविकताओं से टकराता है, जहां धर्म को पहचान की राजनीति, सत्ता संघर्ष और सामाजिक नियंत्रण के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. जनसांख्यिकीय बदलावों का डर, साथ ही दलितों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण को लेकर गहरी बेचैनी, ऐसे विरोध को बढ़ावा देती है.

भीड़ केवल अराजकता का कारण

उन लोगों के बीच इनकार को देखना निराशाजनक है जो इन समूहों को अपने हितों के वैध रक्षक मानते हैं. वो यह पहचानने में विफल रहते हैं कि कोई भी हिंसक समूह, चाहे उसके शुरुआती इरादे कुछ भी हों, नागरिक समाज और उन्हीं लोगों के लिए खतरा पैदा करता है जिनकी सुरक्षा का वह दावा करता है. अंततः, ये समूह अराजकता के साधन बन जाते हैं, अक्सर अपने ही समुदायों पर हमला करते हैं और एक खंडित, भयभीत समाज को पीछे छोड़ देते हैं. भय और बल पर बना समाज कभी भी किसी के हितों की सही मायने में रक्षा नहीं कर सकता.

अगर, चिंता वास्तव में दलितों और आदिवासियों के अन्य धर्मों में धर्मांतरण करने की है, तो मूल कारणों को संबोधित क्यों नहीं किया जाता? उदाहरण के लिए अगर ईसाई मिशनरी सामाजिक पहुंच का उपयोग करते हैं — जैसे कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना — कमजोर समुदायों को प्रभावित करने और धर्मांतरण को बढ़ावा देने के लिए, तो क्या हिंसा सही प्रतिक्रिया होगी? निश्चित रूप से लोकतंत्र में नहीं. आक्रामकता का सहारा लेने के बजाय, प्रयासों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक और आर्थिक एकीकरण और उत्थान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, ताकि उनके मौजूदा धर्म और समाज के भीतर सम्मान, समानता और अवसर सुनिश्चित हो सकें.

डॉ. बीआर आंबेडकर ने एक बार इस मुद्दे को संबोधित करते हुए कहा था: “आदिवासियों को सभ्य बनाने का मतलब है उन्हें अपना बनाना, उनके बीच रहना और उनके प्रति सहानुभूति रखना – संक्षेप में, उनसे प्रेम करना। एक हिंदू के लिए ऐसा करना कैसे संभव है? उसका पूरा जीवन अपनी जाति को बचाने के लिए एक बेचैन प्रयास है। अगर ये जंगली लोग जंगली ही रहेंगे, तो वे हिंदुओं को कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकते… लेकिन अगर उन्हें गैर-हिंदुओं द्वारा पुनः प्राप्त कर लिया जाता है और उनके धर्म में परिवर्तित कर दिया जाता है, तो वे हिंदुओं के दुश्मनों की संख्या बढ़ा देंगे। अगर ऐसा होता है, तो हिंदू को खुद को और अपनी जाति व्यवस्था को धन्यवाद देना होगा।”

आरएसएस ने पूर्व प्रमुख एमएस गोलवलकर के विवादास्पद सिद्धांत से खुद को अलग कर लिया है कि मुसलमान और ईसाई “आंतरिक दुश्मन” हैं। भागवत ने 2018 में कहा था, “संघ एक हठधर्मी संगठन नहीं है। समय बदलता है, और तदनुसार हमारे विचार बदलते हैं।” लेकिन उनके शब्द कट्टरपंथी भीड़ को सांप्रदायिक सद्भाव को लगातार बाधित करने से रोकने में विफल रहे हैं। यदि भागवत का समावेशिता का आह्वान वास्तविक है, तो उन्हें अपने वैचारिक पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर मौजूद कुटिल तत्वों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करनी चाहिए।

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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