scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमोदी की जीत ने भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को जरूरी सुधारों के खिलाफ ला खड़ा किया है

मोदी की जीत ने भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को जरूरी सुधारों के खिलाफ ला खड़ा किया है

मोदी एक मज़बूत नेता के नेतृत्व में सरकार द्वारा संचालित पूंजीवाद के अपने मॉडल को आगे बढ़ाएंगे. पर हमें पता है कि भारत जैसी जटिल और निजी सेक्टर संचालित अर्थव्यवस्था में ये कामयाब नहीं हो सकता.

Text Size:

पिछले कुछ वर्षों में कई बार बातचीत के दौरान भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों ने चिंता जताई थी कि बन रही परिस्थितियों के मद्देनज़र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा बमुश्किल 160-180 सीटों के स्तर को छू पाएंगे और इस कारण मोदी के प्रधानमंत्री बने रहने की संभावना नहीं रह जाएगी. मैं इस पर ये कहते हुए असहमति जताती थी कि मेरा मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के चुनावी जादू पर कहीं अधिक भरोसा है.

लगातार मोदी की वापसी की भविष्यवाणी करने के बावजूद, जीत के स्तर को लेकर मैं भी स्तब्ध हूं. ये स्पष्ट कर दूं कि मोदी की ज़ोरदार वापसी की मेरी राय, किसी सांख्यिकी मॉडल या वैज्ञानिक रायशुमारी पर आधारित ना होकर मेरी सहज अनुभूति मात्र थी. उस अनुभूति से मुझे लगा था कि कांग्रेस के सौम्य राहुल गांधी के विपरीत मोदी और शाह का प्रयास हमेशा जीतने का रहता है, ना कि सम्मानजनक दूसरे नंबर पर आने का. उनकी पराजय की स्थिति में, इतना कुछ दांव पर था कि जिसकी सहज कल्पना नहीं की जा सकती.

बेशक राहुल गांधी अपनी कार्यशैली को बेहतर कर चुके थे और उन्होंने गत दिसंबर में हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत का भी नेतृत्व किया. पर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करने को लेकर पार्टी सुस्त रही और उसने शुरुआती दो-तीन वर्ष यूं ही गंवा दिए और आखिरकार गांधी को अध्यक्ष बनाए जाने के बाद ही पार्टी हरकत में आई. अंतत: ये सब बहुत देर से किए गए अपर्याप्त उपाय साबित हुए. चुनाव अभियान बिखरा हुआ रहा जिसमें ऐसे मुद्दों पर फोकस किया गया जो कि जनता के बीच प्रतिध्वनित नहीं हो पाए, जैसे कि रफाल विवाद जो अनेक मतदाताओं के मन में बनी मोदी की छवि को नुकसान नहीं पहुंचा पाया.


यह भी पढ़ें : चुनावी वादों को निभाने के बजाए, नई सरकार को अर्थव्यवस्था के मामले में ठंडे दिमाग से काम लेना होगा


जो भी कारण रहे हों, तथ्य यही है कि एक डगमगाती अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि में भी मोदी आसानी से दोबारा चुनाव जीत गए. आंकड़ो को छुपाने और उनमें फेरबदल किए जाने के विवाद से साफ जाहिर है कि अर्थव्यवस्था के कई सेक्टरों में स्थिति अच्छी नहीं है और रोज़गार का संकट तो जस-का-तस बना हुआ है ही. मेरे समेत उन सबके लिए जिन्होंने कि मोदी के इन मुद्दों पर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत बताई थी, अब एक आसान राजनीतिक जवाब है. उनके लिए ऐसा करना ज़रूरी नहीं था. मोदी समर्थक अब सहर्ष इन मुद्दों को अप्रासंगिक कह कर खारिज कर सकते हैं या वे इन मुद्दों को वास्तविक दुनिया से दूर रहने वाले उदारवादी आभिजात्यों द्वारा प्रचारित ‘शहरी किवदंती’ करार दे सकते हैं. मोदी नियुक्त एक व्यक्ति द्वारा अर्थव्यवस्था पर मेरी टिप्पणियों को ‘विषाक्त’ तक कहा जा चुका है.

विडंबना ये है. गंवाए अवसरों वाले पांच और वर्षों के बाद आर्थिक सुधारों की कहीं अधिक ज़रूरत बन गई है. लेकिन मोदी की जीत के विशाल स्तर के कारण, जब चुनाव अभियान में अर्थव्यवस्था के अलावा हर बात की चर्चा हुई हो, राजनीतिक अर्थव्यवस्था आर्थिक सुधारों के बेहद प्रतिकूल हो गई है. और हमें किसी संशय में नहीं रहना चाहिए. बहुतायत में ब्रांडेड योजनाओं और परियोजनाओं की शुरुआत भी वास्तविक ढांचागत सुधारों का विकल्प नहीं बन सकती, भले ही कुछ लोगों ने इसी आधार पर वोट डाले हों. वास्तव में मोदी अपने पसंदीदा मॉडल पर काम में तेजी लाने वाले हैं. मोदी का मॉडल उनके जैसे मजबूत नेताओं के नेतृत्व में पूर्वी एशिया की सरकारों द्वारा संचालित पूंजीवाद का एक रूप है, और इस संबंध में सिंगापुर एवं मलेशिया उनके आदर्श हैं.

पर, हम जानते हैं कि इस तरह का आर्थिक मॉडल भारत जैसे विशाल, जटिल और मुख्यत: निजी क्षेत्र संचालित अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कारगर नहीं हो सकता है. सच तो ये है कि 1991 के बाद और 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में पी.वी. नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों ने भारत के निजी क्षेत्र को बंधनमुक्त किया और उस अर्थव्यवस्था की नींव रखी जो कि आज हमारे सामने है.


यह भी पढ़ें : क्या अब भी किसी को शक है कि गांव की अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी?


अरसे पहले किए गए वे सुधार आर्थिक वृद्धि को जारी रखने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, जो कि आंकड़ों से खुद-ब-खुद जाहिर होता है. आगे और बुनियादी सुधार लागू किए बिना भारत द्विअंकीय आर्थिक विकास का सपना तक नहीं देख सकता है. खास कर श्रम और वित्तीय बाज़ारों में इन सुधारों की दरकार है और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का अधिक निजीकरण भी अपेक्षित है. साथ ही, गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) को आसान करते हुए इसे न्यूनतम रियायतों वाली एकल कर प्रणाली का रूप दिए जाने की ज़रूरत है. ये कांग्रेस पार्टी के घोषणा-पत्र के अधिक व्यावहारिक वादों में से एक था और जैसा कि उनसे अपेक्षा की जाती है मोदी पराजित प्रतिद्वंद्वियों के श्रेष्ठ विचारों को अपनाकर फायदे में रहेंगे.

पर, अब जबकि जनता की राय आ चुकी है, ज़्यादा उम्मीद नहीं लगाई जा सकती है. जनादेश मोदी के लिए इस बात की पुष्टि है कि पहले कार्यकाल में उनके सारे निर्णय सही थे. जिनमें नोटबंदी जैसे मनमाने नीतिगत फैसले या आतंकवाद के आरोपी व्यक्ति को लोकसभा उम्मीदवार बनाने जैसे कदम शामिल हैं. अब मोदी का नया भारत बनने वाला है.

(हिंदुस्तान टाइम्स के साथ विशेष व्यवस्था के द्वारा)

(रूपा सुब्रमण्या मुंबई स्थित अर्थशास्त्री हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी विचार हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments