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Sunday, 22 December, 2024
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मोदी का रिफॉर्म, आम्बेडकर के आदर्श – मूल प्रस्तावना को वापस लाने पर बहस करने का समय आ गया है

नई किताब 'आम्बेडकरऔर मोदी' के विमोचन के मौके पर 12 साल पहले, मोदी की संविधान यात्रा को याद करना जरूरी है.

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जनवरी 2010 में गुजरात में एक असामान्य सार्वजनिक जुलूस निकला. शायद पहली बार भारत में कोई ऐसी परेड निकाली जा रही थी, जिसमें एक हाथी की पीठ पर संविधान की एक विशाल नकल रखी थी. जुलूस में आगे-आगे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी मुस्कुराते हुए चल रहे थे, जिनके साथ बीआर आम्बेडकर की एक प्रतिमा थी.

ये 2010 की वही तस्वीर थी जो एक नई किताब,आम्बेडकर एंड मोदी: रिफॉर्मर्स आइडियाज़ परफॉर्मर्स इंप्लीमेंटेशन के विमोचन में शिरकत करते हुए मेरे दिमाग में घूम गई. नई दिल्ली में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा किए उस पुस्तक विमोचन में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्ण भी मौजूद थे. विमोचन के मौके पर बोलते हुए कोविंद ने याद किया कि कैसे तत्कालीन सीएम मोदी ने उस रैली में आम्बेडकर के आदर्शों और संविधान के प्रति अपनी आस्था और प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया था और आने वाले वर्षों में ऐसी कई और रैलियां होने वाली थीं.

मोदी के आम्बेडकर से रिश्तों के केंद्र में, भारतीय संविधान और संवैधानिक जागरूकता निरंतर फोकस में रही है. बल्कि ये कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मोदी के प्रधानमंत्री काल में ही ऐसा हुआ है कि भारतीय संविधान के निर्माता के तौर पर, आम्बेडकर पर राष्ट्रीय चेतना को उसकी सबसे अधिक तवज्जो मिली है. ये मोदी ही थे जिन्होंने प्रधानमंत्री के अपने पहले कार्यकाल में, 26 नवंबर को संविधान दिवस घोषित करने की बाबत एक आधिकारिक गज़ट अधिसूचना जारी कराई. उसके बाद संविधान में निहित नागरिक कर्त्तव्यों पर एक केंद्रित अभियान भी चलाया गया. उसे एक डिजिटल जन आंदोलन में तब्दील किया गया, जिसमें 23 भाषाओं में प्रस्तावना और एक संविधान क्विज़ के साथ, एक ऑनलाइन पोर्टल शुरू किया गया.

आम्बेडकर और संविधान पर निरंतर फोकस, बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आठ वर्षों की एक विशेषता रही है. ये प्रतिबद्धता उसके बिल्कुल विपरीत है कि आम्बेडकर द्वारा परिकल्पित मूल संविधान का, आज़ादी के बाद कैसे कायापलट किया गया.


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बहुत सारे संशोधन

बतौर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कार्यकालों के बीच भारतीय संविधान में, जिसकी परिकल्पना डॉ बीआर आम्बेडकर ने की थी, 50 से अधिक बार संशोधन किया गया जिनमें इसके मूल प्रावधानों को हल्का करके, उनमें भारी बदलाव कर दिए गए. बल्कि, सामूहिक रूप से सभी कांग्रेस सरकारों ने संविधान में 77 बार संशोधन किया है, जिनकी संख्या बाकी तमाम प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल के दौरान किए गए संशोधनों से दोगुनी है.

संविधान में किए गए 100 से अधिक संशोधन और जिस अलोकतांत्रिक तरीके से इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के दौरान, ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द शामिल करके प्रस्तावना में संशोधन किया था, वो उस सब का परित्याग था जिसमें आम्बेडकर का विश्वास था. बल्कि 15 नवंबर 1948 को संविधान सभा ने प्रस्तावना में समाजवाद के संदर्भों जोड़ने के विषय पर बहस की थी, और ये आम्बेडकर ही थे जिन्होंने ज़ोरदार ढंग से उस मांग को खारिज किया था. आम्बेडकर का तर्क ये था कि इसे शामिल करना लोकतंत्र का परित्याग होगा और उससे लोगों की ये तय करने की आजादी छिन जाएगी कि समय समय पर देश के लिए कौन सी आर्थिक व्यस्था सबसे मुनासिब रहेगी.

मूल रूप में वापसी?

संविधानवाद से आगे बढ़कर ये आम्बेडकर की प्रगतिशील सोच ही है, जो उनके प्रति मोदी के आदर की नींव है. आम्बेडकर की शहरीकरण और औद्योगीकरण की वकालत से लेकर उनके दृढ़ विश्वास तक, सभी के लिए शिक्षा एक समानता लाती है, ये आम्बेडकर के ही आदर्श हैं जो मेक इन इंडिया से लेकर स्वच्छ भारत और राष्ट्रीय शिक्षा नीति जैसी मोदी की बहुत सी पहलकदमियों का सार हैं. राजनीतिक सशक्तीकरण में संविधान की प्रारंभिक भूमिका में, जैसा कि आम्बेडकर ने परिकल्पना की थी, विनम्र पृष्ठभूमि के पुरुषों और महिलाओं को भारत में सर्वोच्च राजनीतिक पदों पर बैठते देखा गया है. इसलिए आम्बेडकर और मोदी सार्वजनिक बहस में समय पर एक हस्तक्षेप है, जो आम्बेडकर के आदर्शों और मोदी के सुधारों के चौराहे पर स्थित है.

आम्बेडकर को शायद ये एक उचित श्रद्धांजलि होगी, अगर इस सार्वजनिक बहस में इस सवाल पर भी विचार किया जाए,   प्रस्तावना को इसके मूल रूप में बहाल किया जाए, इसे आपातकाल के दौरान घुसाए गए शब्दों से मुक्त किया जाए और साथ ही भावी पीढ़ियों को आम्बेडकर की बुद्धिमता भरी बात याद दिलाई जाए, जिसे उन्होंने 15 नवंबर 1948 को संविधान सभा में व्यक्त किया था:

राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, अपने सामाजिक और आर्थिक मामलों में समाज को कैसे संगठित होना चाहिए, ये ऐसे मामले हैं जिन्हें समय और हालात के हिसाब से लोगों को ख़ुद तय करना चाहिए. इसे संविधान के अंदर शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका मतलब लोकतंत्र को पूरी तरह नष्ट कर देना है. अगर आप संविधान में कह देते हैं कि राज्य का सामाजिक संगठन एक विशेष रूप लेगा, तो मेरी नज़र में आप लोगों से ये तय करने की आज़ादी ले रहे हैं, कि वो जिस सामाजिक संगठन में रहना चाहते हैं वो कैसा होना चाहिए…इसलिए मेरी समझ में नहीं आता कि संविधान से लोगों को किसी विशेष रूप के साथ क्यों बांध दिया जाए कि वो एक खास रूप में ही रहेंगे और लोगों पर क्यों न छोड़ दिया जाए कि वो अपने लिए खुद फैसला करें.  

शशि शेखर वेम्पति प्रसार भारती के पूर्व सीईओ हैं और वो @shashidigital पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार नीजि हैं .

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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