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Friday, 22 November, 2024
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मोदी अगले सप्ताह 70 के हो जायेंगे, एक बेहतर विरासत छोड़ कर जाने का समय निकलता जा रहा है

अधिकतर ताकतवर नेता विरासत में कमजोर अर्थव्यवस्था छोड़ जाने के लिए ही जाने जाते रहे हैं. मोदी चाहें तो इस जमात में गिने जाने से बच सकते हैं, लेकिन चुनौतियां उनके लिए बढ़ती जा रही हैं.

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नरेंद्र मोदी अगले सप्ताह 70 वर्ष के हो जाएंगे. पिछले छह से ज्यादा वर्षों से वे प्रधानमंत्री हैं, इससे पहले करीब 13 साल तक वे मुख्यमंत्री रहे और गुजरात की अर्थव्यवस्था को उन्होंने मजबूत बनाया. कई मानकों पर इसके कामकाज को सुधारा लेकिन उतना नहीं जितने के दावे किए गए. कई पुरानी समस्याओं के नये समाधान दिए. वे पूरी ऊर्जा और संकल्प से भरे रहते थे. नर्मदा जल के आगमन और कपास की नई किस्मों के उपयोग ने कृषि पैदावार में तेजी से वृद्धि कर दी. लेकिन गुजरात इंटरनेशनल फाइनांसियल टेक-सिटी जैसी परियोजनाओं की प्रगति बहुत धीमी रही हैं.

इस लिहाज से, उन्होंने गुजरात में जितना परिवर्तन लाया उससे ज्यादा परिवर्तन भारत में लाया है. हालांकि वे गुजरात में जितने समय मुख्यमंत्री रहे उससे केवल आधे समय से देश के प्रधानमंत्री हैं. विंध्य पर्वत के उत्तर की और कुछ हद तक दक्षिण की भी राजनीति बदल गई है और कुल मिलाकर निर्लज्ज बहुसंख्यकवाद हावी होता जा रहा है. रामजन्मभूमि मामले (खुद को ही खंडित करने वाले अदालती फैसले के जरिए) और जम्मू-कश्मीर मामले (संवैधानिक प्रावधानों के चतुर तकनीकी इस्तेमाल के जरिए) को जिस तरह निबटाया गया उसे भारत के बहुसंख्यकों का समर्थन मिला. इसलिए, विपक्ष जिन मुद्दों पर आलोचना कर रहा था. उन्हें मोदी के जनाधार ने उपलब्धियां माना. लेकिन, राज्यतंत्र और स्वायत्त संस्थाओं को जिस तरह लंबे समय से पार्टी के मकसद साधने का औज़ार बनाया गया है. वह भाजपा का पेटेंट तो नहीं है मगर इसने गणतंत्र के मूल दस्तावेज़ को लुप्तप्राय की सूची में डाल दिया है.

जहां तक आर्थिक विरासत की बात है, तो वह अभी भी आकार ही ले रही है. मोदी ने जो-जो पहल की है उनका वर्गीकरण किया जा सकता है. जीवन को आसान बनाने, इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश, और अक्षय ऊर्जा जैसे कार्यक्रमों पर खर्च बहुद हद तक सफल रहे हैं हालांकि वे छिटपुट ही हैं. लेकिन नीतिगत पहल कम सफल रहे हैं- मसलन बैंकों के लिए ‘इंद्रधनुष’, बिजली के लिए ‘उदय’, जीएसटी. कार्यक्रम केन्द्रित लक्ष्यों को हासिल करने में अच्छे सफलता मिली है- मसलन जन धन, अक्षय ऊर्जा, स्वच्छ भारत, उज्ज्वला आदि. लेकिन व्यापक लक्ष्यों के मामले में बुरा हाल रहा है- जैसे किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करना, जीडीपी में मैनुफैक्चरिंग का योगदान 2022 तक 15 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करना.


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इसी तरह की उपलब्धियों के स्तर की व्याख्या उठाए गए कामों की जटिलता के आधार पर की जा सकती है- मसलन हाइवे या शौचालय का निर्माण किसी सेक्टर को सुधारने से ज्यादा आसान है और यह भी अर्थव्यवस्था के ढांचे को बदलने से ज्यादा आसान है. मुख्यमंत्री लोग आसान काम करते हैं जबकि राजनीतिक रूप से सफल प्रधानमंत्री भी आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करने वाले जटिल लीवरों के आगे विफल साबित हो सकते हैं.

जैसा कि होता है, मोदी भी अपने शुरू के तीन साल अच्छा काम कर सके लेकिन अर्थव्यवस्था को तेल की कीमतों में भारी गिरावट- 2011-14 के 100 डॉलर प्रति बैरल से 60 से भी कम डॉलर प्रति बैरल- से काफी फायदा हुआ. इससे जीडीपी में सालाना 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई. मनमोहन सिंह के अंतिम साल में आर्थिक वृद्धि दर 6.4 प्रतिशत से मोदी के सबसे बेहतर साल (2016-17) में 8.3 प्रतिशत तक पहुंची, तो इसमें तेल की कीमत का भी बड़ा योगदान था. अगले तीन साल में वृद्धि दर इससे आधी रह गई. रामबाण चलाने की गफलत में भारी गलतियां की गईं जिनमें नोटबंदी, मार्च-अप्रैल का लॉकडाउन था जिसके कारण मजदूरों का भारी संख्या में पलायन हुआ.

इसका नतीजा यह हुआ कि रोजगार घट गए, व्यवसाय जगत में मुश्किलों, और दबाव में पड़े बैंकों के कारण भविष्य धूमिल हो गया. इस बीच, दिवालिया कानून और मौद्रिक लक्ष्यों को परे कर दिया गया है, और जीएसटी घालमेल में पड़ी है. अब आत्मनिर्भरता का जो नया लक्ष्य रखा गया है उसकी परीक्षा अभी बाकी है. इन सबके बीच, क्षमता का सवाल भी कहीं उभर रहा है. जब काम ज्यादा पेचीदा हो, तो केवल ‘कड़ी मेहनत’ काफी नहीं होती.


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अधिकतर ताकतवर नेता विरासत में कमजोर अर्थव्यवस्था छोड़ जाने के लिए ही जाने जाते रहे हैं. व्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व में रूस की अर्थव्यवस्था 2008 के अपने आकार के मुक़ाबले सिकुड़ चुकी है. एर्दोगन की तुर्की की मुद्रा ने पांच साल में अपनी 60 प्रतिशत कीमत खो दी है. वेनेजुएला में हुगो शावेज, ब्राज़ील में लूला दा सिल्वा, अर्जेन्टीना में पेरोन शूररो में तो सफल रहे लेकिन वे जो विरासत छोड़ गए उनकी शायद ही तारीफ की जा सकती है. मोदी इस जमात में गिने जाने से बच सकते हैं, लेकिन बड़े आर्थिक संकेतक और व्यवस्थाजनित अड़चनें उनके लिए बड़ी बाधाएं हैं. वैसे, समय उनके पक्ष में है. अपना कार्यकाल पूरा करने वाले पिछले तीन प्रधानमंत्रियों ने 70 की उम्र पार करने के बाद शुरुआत की थी. मोदी तो उनसे कम उम्र के भी हैं और ज्यादा चुस्त-दुरुस्त भी हैं. लेकिन उन्हें अगर चुनौतियों को परास्त करना है, तो उन्हें दिशा बदलने की ताकत खुद में ही पैदा करनी होगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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