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Friday, 1 November, 2024
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मोदी शाह के ज़हर की काट है ममता बनर्जी का ज़हर

स्ट्रीट-फाइटर मोदी-शाह की जोड़ी हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के जिस जहर को अपने ब्रह्मास्त्र के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं उसको पश्चिम बंगाल में काटने में जुटी हैं ममता बनर्जी.

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आप चाहें तो जो भी उपमा चुन लें- लोहा ही लोहे को काटता है या यह कि हीरा ही हीरे को काटता है या फिर यह भी कि जहर ही जहर को काटता है. सबका मतलब एक ही है. लेकिन हम देश के अब तक के जिस सबसे तीखे जहरबुझे चुनाव अभियान की बात कर रहे हैं उसके लिए तो जहर वाली उपमा ही ज्यादा सटीक होगी.

इस अभियान के तेवर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही तय किए. इस विशिष्ट उपलब्धि से उन्हें दूसरा कोई वंचित नहीं कर सकता. विरोधियों को देशद्रोही, पाकिस्तान से साठ-गांठ करने वाला बताने से लेकर परिवारों को ‘बेल पर बाहर और जेल के रास्ते पर’ बताने तक क्या-क्या नहीं कहा उन्होंने. उनकी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी बखूबी उनके नक्शेकदम पर चलते रहे हैं. कोई मुस्लिम प्रवासियों को दीमक आदि बता रहा है, तो कोई बजरंगबली और अली में मुक़ाबला करा रहा है.

देश के अधिकांश हिस्से, खासकर हिंदी पट्टी में यह सब खूब असर भी कर रहा है. लेकिन एक फर्क है. यह सब वहीं कारगर हो रहा है जहां कांग्रेस भाजपा को सीधी टक्कर दे रही है.

महाराष्ट्र से लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश तक भाजपा की यह रणनीति कारगर होती लग रही है. इसलिए कि उसका मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस से है. कांग्रेस उसके जवाब में यह कह रही है कि जब इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए तो आप हमारे देशप्रेम पर सवाल कैसे उठा सकते हैं, जब हमारे पिता और हमारी दादी आतंकवादियों के हमले में शहीद हुईं तो आप यह कैसे कह सकते हैं कि हमने आतंकवाद के प्रति नरम रुख अपनाया? लेकिन यह सब बचाव में दिया गया तर्क लगता है, जिसके तेवर न तो सही लगते हैं और न एकदम गलत. इसलिए कि, जैसा कि हमें मालूम है, नारियल पानी से जहर को नहीं काटा जा सकता.


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यह सब कैसे काम करता है, यह समझना है तो जरा मेरे साथ पश्चिम बंगाल चलिए, जहां इस बार जुबानी और जिस्मानी, दोनों मामलों में देश का सबसे हिंसक चुनाव लड़ा जा रहा है. यही वह प्रदेश है जहां मोदी और शाह को ‘दीदी’ ममता बनर्जी के रूप में असली जोड़ीदार मिल गई हैं, हालांकि दीदी के वफ़ादारों को ‘बंद्योपाध्याय’ वाली पुरानी शैली पसंद है. भाजपा को जवाब देते हुए ममता एक भी शब्द ऐसा नहीं बोलतीं जिससे लगे कि वे बचाव की मुद्रा में हैं या पीड़ित हैं. और चूंकि आपने उनका मखौल उड़ाया है, तो वे आपकी इस तरह भद पीटेंगी जैसी किसी ने न पीटी होगी. वैसे, इधर राज ठाकरे भी उभर आए हैं.

मोदी-शाह की भाजपा बंगाल को पिछले पांच साल से निशाना बना रही है. अगर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण उनके लिए सत्ता हासिल करने का सूत्र है, तो बंगाल इस मामले में उत्तर प्रदेश से ज्यादा आसान प्रयोग स्थल साबित हो सकता है. इसलिए कि असम की तरह बंगाल में भी मुस्लिम आबादी करीब 30 प्रतिशत है. जैसा कि असम के मामले में कांग्रेस का नाम लिया जाता है, बंगाल के मामले में माना जाता है कि वोट के लिए उनका तुष्टीकरण पहले वाम दलों ने किया और अब ममता कर रही हैं.

असम में यह कारगर साबित हुआ, तो बंगाल में भी होगा. यही वजह है कि भाजपा के नेता यहां की 42 में से 22 सीटें जीत कर सफाया करने के दावे कर रहे हैं. यूपी (80), महाराष्ट्र (48) के बाद पश्चिम बंगाल ही सांसदों की तीसरी सबसे बड़ी जमात लोकसभा में भेजता है. लेकिन भाजपा अगर यह उम्मीद कर रही है कि यूपी और दूसरे राज्यों में उसने 2014 में जो बढ़त हासिल की थी वह इस बार गंवा सकती है और इसकी भरपाई वह बंगाल से कर लेगी, तो उसे दोबारा सोच-विचार कर लेना चाहिए. सच है कि यहां मोदी की चुनावी रैलियां काफी बड़ी और जोशीली हुई हैं. लेकिन भाजपा का जनाधार यहां इतना छोटा है कि उसे यहां चुनावी कंचनजंघा की चोटी पर ही चढ़ने जैसा ही उपक्रम करना होगा.

ममता भाजपा की डराने-धमकाने की चालों से डरने वाली भी नहीं हैं. वे आज शायद देश की सबसे, मायावती से भी कड़ी नेता हैं. वे सड़क पर लड़ने वाली योद्धा रही हैं. राहुल और प्रियंका, कमलनाथ और अखिलेश यादव ऐसे नहीं हैं. बात को और स्पष्ट करने के लिए कह सकते हैं कि अरविंद केजरीवाल ऐसे योद्धा हैं. जो राज्य ममता के लिए वाम मोर्चे का यातना शिविर जैसा था, उसमें अस्तित्व की लड़ाई लड़कर फौलाद बन चुकीं वह प्रतिकूलताओं को भी अवसरों में बदलने की कला जानती हैं. या, मोदी के इस तंज़ का भी लाभ उठना जानती हैं कि बंगालियों के लिए दुर्गा पूजा मनाना भी मुश्किल होता जा रहा है.


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मैं उस दिन उनकी रैलियों में उनके साथ रहा जिस दिन तूफान फानी के शुरुआती झोंके उनके हेलिकॉप्टर को झटके दे रहे थे. भाटापाड़ा (बैरकपुर, जहां से पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी चुनाव लड़ रहे हैं) और कोलकाता के बाहरी इलाके राजारहाट (जहां से काकोली घोष तीसरी बार जीतने की उम्मीद कर रही हैं) में भी दुर्गा पूजा ही चुनावी मुद्दा है. हाथ में कॉर्डलेस माइक लेकर मंच पर एक छोर से दूसरे छोर तक आवाजाही करते हुए ममता बिना किसी पर नज़र डाले जिस रफ्तार से बोलती हैं उसके आगे गौतम गंभीर सरीखे तेज वक्ता भी फीके नज़र आते हैं. ममता हुंकार भरते हुए बोलती हैं, ‘मोदी बाबू! हम बंगालियों को चीख-चीखकर गाली देने से पहले जरा होमवर्क तो कर लीजिए. बच्चे जब बिना होमवर्क किए स्कूल जाते हैं तो दीदीमनी लोग उनको डांटती हैं. आप जब झूठ बोलेंगे तो लोग क्या करेंगे? आप बंगाल आकर लोगों से बोलते हैं कि यहां दुर्गा पूजा नहीं होती?’

‘माताओं, बहनों, अब आप ही बोलो, आप दुर्गा पूजा मनाती हैं कि नहीं?’

भीड़ : मनाते हैं!!!

ममता : क्या आपको दुर्गा पूजा मनाने से कोई रोकता है?

भीड़ : नहीं !!!

ममता : ज़ोर से बोलो! क्या यहां दुर्गा पूजा होती है?

भीड़ : हां….!!!

ममता : और लक्ष्मी पूजा?

भीड़ : हां….!!!

ममता : सरस्वती पूजा?

भीड़ : हां….!!!

ममता : बोड़ो दिन (क्रिसमस)?

भीड़ : हां….!!!

ममता : रमज़ान?

भीड़ : हां….!!!

ममता : छठ पूजा?

भीड़ : हां….!!!

‘लेकिन यहां एक ही चीज़ नहीं होती… मोदी, मोदी होई ना… बीजेपी-बीजेपी होई ना… मिथ्या होई ना, कुत्स (चरित्र हनन) होई ना.’

ममता चाकू को और घुमाती हैं और ऐसा वे धीरे से नहीं करतीं— अपना होमवर्क करो और यह निश्चित कर लो कि तुम अपने को मूर्ख मत साबित कर लो. मोदी राहुल को जिस तरह ‘शाहज़ादा’ कहते हैं या राहुल मोदी को जिस तरह ‘चोर’ कहते हैं उससे भी सौ गुना तंज़ के साथ ममता मोदी को ‘मोदी बाबू’ कहकर संबोधित करती हैं. एक ही सांस में वे बंगाल में होने वाली सभी पूजाओं को गिना डालती हैं और मोदी पर ताना कसते हुए सवाल करती हैं, उन्हें सरस्वती मंत्र याद भी है? फिर वे सरस्वती मंत्र का पाठ कर डालती हैं. भीड़ तालियां पीटती है, जिसमें हजारों मुसलमान भी शामिल हैं. मोदी को हर धर्म के बारे में क्या पता है?

इसके बाद तुरंत वे खान-पान पर आ जाती हैं— ‘मोदी बाबू, जब हम गुजरात जाते हैं तो ढोकला खाते हैं, तमिलनाडु में इडली हैं, केरल में उप्मा, बिहार में लिट्टी-चोखा, गुरुद्वारे में हलवा, पंजाब में लस्सी लेते हैं. आप हुक्म देते हैं, मछली मत खाओ, मीट मत खाओ, अंडे मत खाओ. गर्भवती औरत अंडे न खाए. अरे भाई, आप कौन होते हैं हुक्म देने वाले कि औरत क्या खाए, क्या न खाए?’ ममता कहती हैं, देश से कहा जा रहा है कि जो मोदी खाते हैं वही खाओ, जो बंडी वे पहनते हैं वही पहनो, दिनभर टीवी पर उनको ही देखो. ‘मैं सोचती थी कि वे आरएसएस के एक नि:स्वार्थ प्रचारक हैं लेकिन ये आरएसएस वाले, जो कभी खाकी निक्कर में घूमा करते थे, अब पतलून पहनकर हाथ में ब्रीफकेस लेकर शॉपिंग मॉल में घूमते हैं और करोड़ों बना रहे हैं.’

ममता नोटबंदी के लिए मोदी पर हमले करती हैं और राफेल पर बिना कुछ बोले अंतिम प्रहार करती हैं, ‘अभी कुछ दिन पहले तक जो पार्टी भूखों मर रही थी, एक ही बीड़ी को तीन बार पीती थी, आज अरबों की मालिक है.’ राहुल की सभाओं की अगली कतार से उठने वाले नारों से कहीं ज़ोर से और कहीं स्वतःस्फूर्त ढंग से उठने वाले ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के बीच ममता कहती हैं, ‘…और वे खुद को चौकीदार कहते हैं!’ बंगाल में राहुल की पार्टी भी उनकी प्रतिद्वंद्वी है, लेकिन उन्होंने उनके नारे को सफाई से अपना लिया है.


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अब सवाल उठता है कि जिस नारे को कांग्रेस ने ईजाद किया और पूरे देश में फैलाया, वह एक राज्य की नेता के हाथों में इतना असरदार कैसे हो गया? इसका छोटा-सा जवाब यह है कि कांग्रेस मोदी-शाह के खेल को अभी तक समझ नहीं पाई है. वाजपेयी-आडवाणी के विपरीत यह जोड़ी स्ट्रीट-फाइटर है और इसने पार्टी के डीएनए को बदल दिया है. स्ट्रीट-फाइटरों से लड़ने के लिए स्ट्रीट-फाइटरों की ही जरूरत पड़ती है.

याद रहे, हमने शुरू में ही कहा था— लोहा ही लोहे को काटता है, या हीरा ही हीरे को, या फिर यह भी कि जहर ही जहर को काटता है. अगर मोदी-शाह की जोड़ी ने जहरीले, ध्रुवीकरण वाले चुनाव अभियान को ही 2019 के लिए अपना ब्रह्मास्त्र बनाया है, तो ममता इसकी सीमाओं को उजागर कर रही हैं, कि 42 सांसदों वाले उनके राज्य में ‘एइ केनो चोलबे ना’.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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