एक ऐसे मुख्यमंत्री का नाम लीजिए, जो अपने ही राज्य में डर से भागता फिर रहा हो. जी हां, वे हैं हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर, जिन्हें इस बार गणतंत्र दिवस पर पंचकूला में तिरंगा फहराना सुरक्षित लगा, हालांकि पहले यह तय किया गया था कि वे पानीपत में झंडा फहराएंगे. पानीपत-करनाल के उस गांव से मात्र 16 किलोमीटर दूर है, जहां एक पखवाड़े पहले प्रदर्शनकारियों ने उनके लिए बनाए गए हेलीपैड को खराब कर दिया था. एक महीना पहले करनाल के ही दूसरे गांव में उन्हें इसी वजह से अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा था. अंबाला में 13 किसानों के खिलाफ हत्या की कोशिश और दंगे के आरोप में मामला दर्ज किया गया क्योंकि वहां खट्टर को काले झंडे दिखाए गए और उनके काफिले के वाहनों के साथ कथित रूप से ‘डंडों से’ तोड़फोड़ की गई.
अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोच रहे होंगे कि आखिर हरियाणा में क्या खिचड़ी पक रही है, और वह राज्य किसके नियंत्रण में है. यह और बात है कि 90 के दशक में जब वे दोनों आरएसएस के प्रचारक थे और मोदी जब हरियाणा जाते थे तब खट्टर उनके लिए स्वादिष्ट खिचड़ी बनाया करते थे. आज जब वे मुख्यमंत्री हैं तब प्रधानमंत्री मोदी के महत्वाकांक्षी कृषि सुधारों के मामले में कोई राहत की उम्मीद नहीं दिखा रहे हैं. हरियाणा के किसानों को शांत करने और बीच का कोई समाधान निकालने की जगह खट्टर किसानों से टक्कर लेने की मुद्रा में हैं. गणतंत्र दिवस पर अपने भाषण में उन्होंने चेताया, ‘आंदोलन करने की आज़ादी तो है मगर अराजकता फैलाने की छूट नहीं है.’
अगर सरकार को राज्य के 22 में से 17 जिलों में मोबाइल इंटरनेट और एसएमएस सेवाओं को रोकना पड़े तो साफ है कि मुख्यमंत्री को अराजकता फैलने का डर है. लेकिन प्रधानमंत्री हरियाणा में किससे समर्थन की उम्मीद रखें? पांच साल से ज्यादा समय से गद्दी पर बैठे मुख्यमंत्री के पास इतना राजनीतिक साहस नहीं है कि वे अपने लोगों से संवाद कर सके. केंद्र को सहारा देने की बात तो छोड़िए, खट्टर तो बिखराव के कगार पर पहुंची अपनी सरकार को बचाने के लिए उलटे प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का मुंह ताक रहे हैं. इन दोनों से मिलने के लिए वे अपने उप-मुख्यमंत्री और अहम सहयोगी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के नेता दुष्यंत चौटाला के साथ दिल्ली पहुंच गए. भाजपा आलाकमान को संकेत यही दिया गया कि ‘उनकी समस्या का समाधान कीजिए वरना हरियाणा में अपनी पार्टी की सरकार गई.’
अगर जेजेपी के विधायक तीखे तेवर दिखा रहे हैं और विकल्पों की खोज कर रहे हैं, तो इसमें भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व क्या कर सकता है. जेजेपी में फूट पड़ जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन किसी दूसरी पार्टी में फूट पड़ने से रोकना अलग ही मामला है.
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विफल प्रयोग
खट्टर अब राजनीतिक बोझ बन रहे हैं. इसकी ज़िम्मेदारी मोदी और शाह को ही लेनी पड़ेगी. खट्टर सोशल इंजीनियरिंग के उनके प्रयोग के एक हिस्से थे, एक सीधे-से गणित के हिस्से थे कि विविध, एक-दूसरे से भिन्न, और संख्याबल में कमजोर छोटे-छोटे समुदायों को उभारा जाए ताकि वे सब मिलकर दबदबे वाले समुदाय पर हावी हो जाएं. इसलिए उन्होंने हरियाणा में एक पंजाबी खत्री को कुर्सी सौंपी, जहां लगभग एक चौथाई आबादी जाटों की है. महाराष्ट्र में उन्होंने एक ब्राह्मण देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया था, जहां एक तिहाई आबादी मराठों की है. झारखंड में एक ओबीसी रघुवर दास को बागडोर सौंपी थी, जहां 26 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है.
मोदी-शाह की रणनीति की पोल एक के बाद खुल रही है. खट्टर इसकी विफलता साबित करने वाले अगले नेता हो सकते हैं. उनकी प्रशासनिक और राजनीतिक अनुभवहीनता 2016 में आरक्षण को लेकर जाटों के आंदोलन में ही सामने आ गई थी, जब पुलिस को घुटने टेकने पड़ गए थे. इस झटके से अगर वे थोड़े संभल पाए तो इसलिए नहीं कि उन्होंने शासन की कला सीख ली बल्कि इसलिए कि एक ऐसे राज्य में उन्हें साफ-सुथरी छवि वाला माना गया, जहां पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में जेल की सजा काट रहे हैं, तो दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के खिलाफ जमीन अधिग्रहण मामलों में जांच चल रही है हालांकि कांग्रेस इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई बता रही है.
90 सीटों वाली हरियाणा विधानसभा के 2019 के चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग का मोदी-शाह फॉर्मुला बहुत कारगर नहीं रहा था, जिसमें भाजपा ने ‘अबकी बार 70 पार’ का नारा दिया था. भाजपा ने एक खत्री मुख्यमंत्री के नाम पर गैर-जाटों की जैसी एकजुटता हासिल करने की उम्मीद की थी वह पूरी नहीं हो पाई. इसलिए उसे सरकार बनाने के लिए जेजेपी से मजबूरी में हाथ मिलाना पड़ा. इसका नतीजा यह है कि नये कृषि क़ानूनों पर मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री एकमत नहीं हैं. लेकिन वे अलग भी नहीं हो सकते क्योंकि तब दोनों की कुर्सी जाएगी. और, जो किसान आंदोलन चल रहा है वह उन्हें इन विरोधाभासों के साथ एक-दूसरे को साथ-साथ जीने नहीं देगा.
पेच कुछ और है
खट्टर का मामला भाजपा के सामने खड़ी एक बड़ी समस्या की ओर इशारा कर रहा है. मोदी भले एक लोकप्रिय नेता हों, और शाह भले आज के ‘चाणक्य’ माने जाते हों, प्रतिभाओं की खोज करने में वे कमजोर रहे हैं. खट्टर, फडणवीस, रघुवर दास उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे. दूसरे राज्यों में भी उन्होंने जिन नेताओं को मुख्यमंत्री चुना उन पर भी नज़र डाल लीजिए— गुजरात में विजय रूपाणी, असम में सर्वानंद सोनोवाल, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र रावत, हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर, गोवा में प्रमोद सावंत, त्रिपुरा में विप्लव देब और मणिपुर में एन. बिरेन सिंह. इनमें से किसी को क्या आज आप जननेता कह सकते हैं, जबकि मोदी-शाह ने इन्हें वर्षों पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया था? मोदी और शाह को भी यह कहने में मुश्किल होगी.
इस सूची में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को न शामिल करने के लिए मुझे कोसा जा सकता है. लेकिन योगी जनता के नेता के रूप में उभरे हैं. लेकिन क्या वे प्रधानमंत्री की पहली पसंद थे? मुझे नहीं मालूम. इस बारे में अलग-अलग भाजपा नेताओं का अलग-अलग कहना है. मोदी के अलावा केवल शाह और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को ही यह मालूम होगा. लेकिन आप इन लोगों से कुछ जानने की उम्मीद मत कीजिए. आज जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल पद पर बैठे मनोज सिन्हा को भी शायद यह मालूम हो. बताया जाता है कि यूपी के मुख्यमंत्री पद के लिए वे मोदी की पहली पसंद थे. सिन्हा से भी आप इस बारे में कुछ जानने की उम्मीद मत रखिए, मैं बहुत बार कोशिश कर चुका हूं.
भाजपा के बाकी तीन मुख्यमंत्रियों में कर्नाटक के बी.एस. येदियुरप्पा और मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान जनता के नेता हैं मगर वे मोदी-शाह की खोज नहीं हैं. बाकी बचे अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू. अपने राज्य में वे बेशक लोकप्रिय हैं लेकिन उन्होंने भाजपा से मुख्यमंत्री की कुर्सी का सौदा करने के बाद अरुणाचल पीपुल्स पार्टी से पाला बदला था.
यहां तक कि जिन राज्यों में मोदी-शाह ने कुछ नेताओं को परोक्ष रूप से आगे बढ़ाया और संभावित मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया उनसे भी दोनों को निराशा ही मिली. मसलन ओडिशा में उन्होंने केंद्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान को आगे बढ़ाया मगर वे बुरी तरह विफल रहे. भाजपा कांग्रेस को पछाड़कर मुख्य विपक्षी दल तो बन गई मगर 147 सीटों वाली विधानसभा में अपनी 23 सीटों पर मोदी या शाह शायद ही गर्व कर सकते हैं. यही नहीं, केंद्र में मजबूत मंत्री प्रधान ने ओडिशा भाजपा को वफ़ादारों और गैर-वफ़ादारों में बांट दिया. जाहिर है, भाजपा आलाकमान अब वहां अपने एक नये चेहरे को आगे बढ़ाने की सोच रही होगी.
मोदी और शाह ने जिन नेताओं को आगे बढ़ाने की कोशिश की वे उनकी उम्मीदों पर भले ही खरे न उतरे हों मगर इस जोड़ी ने हर राज्य में नया चेहरा ढूंढ़ने की कवायद छोड़ी नहीं है. राजस्थान में वसुंधरा राजे, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, बिहार में सुशील मोदी जैसे पुराने चेहरों का विकल्प खोजने की कोशिश जारी है. येदियुरप्पा और चौहान पूरी जद्दोजहद में लगे हैं कि उनका नाम इस सूची में दर्ज न हो. शायद वह समय आ गया है जब मोदी और शाह नये चेहरे को लेकर अपनी कसौटी बदल दें. एक काम तो वे यह कर सकते हैं कि उन पार्टी नेताओं (दावेदारों) के उन ट्वीटों और बयानों पर ध्यान देना बंद कर दें जिनमें वे उनकी तारीफ के पुल बांध रहे हों. यह इस बात का संकेत दे सकता है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री वास्तव में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कठपुतलियां नहीं चाहते, जैसा कि कांग्रेस का गांधी परिवार चाहता रहा है.
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