प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि ऐसी पाक-साफ है कि बीजेपी जो भी करती है उसका उसके चुनावी नतीजों पर लगभग उपेक्षणीय असर पड़ता है. उसकी कथनी और करनी में भले खाई हो, मतदाता उस पर बहुत ध्यान नहीं देते.
मसलन, अगले महीने होने वाले हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के उम्मीदवारों की सूची पर नज़र डालिए. शिमला शहरी सीट से उसने चायवाले और पूर्व अखबार विक्रेता संजय सूद को खड़ा किया है और इसको लेकर काफी चर्चा हो रही है. राज्य के मंत्री सुरेश भारद्वाज इस सीट पर पिछले लगातार तीन बार चुनाव जीत चुके हैं लेकिन यह सीट उन्हें सूद के लिए खाली करनी पड़ी. बेशक वे कोई साधारण चायवाले नहीं हैं. वे राज्य में पार्टी के कोषाध्यक्ष हैं. बीजेपी ने अपने एक चौथाई विधायकों का टिकट काट दिया है. यह काम न करने के लिए राज्य सरकार को सजा देने के मतदाताओं के इरादे को उलझाने की उसकी पुरानी रणनीति रही है.
जिन लोगों को टिकट दिया गया है उनमें पूर्व दूरसंचार मंत्री सुखराम के, जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले में सजा दी गई थी, बेटे भी हैं. राज्य के निवर्तमान जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह के बेटे, पूर्व मंत्री नरेंद्र ब्रागटा के बेटे, भाजपा विधायक पावन नय्यर की पत्नी के अलावा कुछ दलबदलुओं को भी टिकट दिया गया है. यह सब कोई नई बात नहीं है. बीजेपी वंशजों, और दागी नेताओं को टिकट देती रही है और उन्हें पार्टी तथा सरकार में आगे भी बढ़ाती रही है. फिर भी वह विपक्ष पर परिवारवादी और भ्रष्ट होने के आरोप लगाती रही है.
यह पीएम मोदी का प्रताप है, भाजपा पर कोई तोहमत चिपकती नहीं.
उन्होंने बीजेपी के मूल वैचारिक एजेंडे— अयोध्या राम मंदिर, अनुच्छेद 370— को जबरन लागू कर दिया. वे राष्ट्रीय एजेंडा बन गए, और उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी हथियार डाल दिए. अयोध्या में भव्य दीपोत्सव समारोह में मोदी दीया जलाते रहे और उनके विरोधी सकते, ईर्ष्या, और असहायता से देखते रह गए. ऐसा ही तब हुआ जब मोदी हिमाचली टोपी पहनकर केदारनाथ और बद्रीनाथ में दर्शन और पूजा कर रहे थे. हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विपक्ष के पास कोई जवाब नहीं है.
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अगला ‘राष्ट्रीय’ एजेंडा
अपने पूर्ण वर्चस्व के इस माहौल में बीजेपी ने अपना अगला वैचारिक एजेंडा लागू करने की ओर कदम बढ़ा दिया है. यह उसके पूर्व संस्करण जनसंघ और आरएसएस का भी एजेंडा है— भारत को ‘ताकतवर’ बनाने के लिए चाहिए एक राष्ट्र और एक भाषा. अमित शाह ने 2019 में कहा था कि ‘दुनियाभर में भारत की एक पहचान बने इसके उसकी एक भाषा जरूरी है. आज अगर पूरे देश को एक सूत्र से कोई भाषा जोड़ सकती है तो वह है हिंदी.’
वे इस मसले पर संघ के पुराण विचार को ही रख रहे थे. और वे यहीं नहीं रुके. 16 अक्टूबर को भोपाल में उन्होंने मेडिकल के छात्रों के लिए एनाटोमी, मेडिकल बायोकेमिस्ट्री, और मेडिकल फिजियोलॉजी पर हिंदी में पाठ्यपुस्तकों का विमोचन किया. भाजपा आलाकमान जबकि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जगह नया चेहरा आगे बढ़ाने की सोच रहा है, चौहान ने हिंदी में नेडिकल की पढ़ाई की महत्वाकांक्षी योजना शुरू कर दी है. इसने मेडिकल जमात में बहस को जन्म दे दिया है.
यहां मैं वरिष्ठ डॉक्टरों द्वारा मुझे भेजे गए कुछ वाट्सऐप मैसेज साझा कर रहा हूं—
हिंदी समर्थक: ‘मुझे समझ में नहीं आता कि मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए आप यूक्रेनी, हंगारियन, रूसी, होनोलूलू की भाषा तो सीख सकते हैं लेकिन भारतीय भाषा की बात आती है तो आपके पेट में दर्द होने लगता है.’
“जो लोग अंग्रेजी बहुत अच्छी तरह नहीं जानते उनके लिए मुक़ाबला बराबरी का हो जाता है.”
“यह अपने संस्कृति पर गर्व का भाव पैदा करेगा और उपनिवेशवाद की जंजीरें तोड़ेगा.”
हिंदी विरोधी: “वैश्विक भाषा के साथ जाने में क्या प्रॉब्लम है? विश्वगुरु बनना है तो दुनिया के साथ चलना जरूरी है.”
“हिंदी को बढ़ावा देने के लिए स्प्लीन को तिल्ली कहना होगा और किडनी को वृक्क, न की देवनागरी लिपि में स्प्लीन और किडनी लिखना होगा. इससे हिंदी को कैसे बढ़ावा मिलेगा? इस मसले पर काफी विचार-विमर्श होना चाहिए… वरना निचले स्तर की शिक्षा मिलेगी और निचले स्तर के डॉक्टर मिलेंगे.”
“तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र, ओडीशा के बारे में भी सोचिए, उनकी भाषाओं में भी मेडिकल की पढ़ाई कीजिए. इससे भाषाओं को लेकर शीतयुद्ध शुरू हो जाएगा और नुकसान मरीजों, छात्रों और पूरी मेडिकल पढ़ाई का होगा.”
“मेडिकल रिसर्च केवल अंग्रेजी में उपलब्ध है और अभी भी चूंकि वास्तव में रिसर्च विदेश में हो रहे हैं… हम उनके ही रिसर्च पर दोबारा सर्च करते हैं.”
“भारतीय डॉक्टर दूसरे देशों में हिट हैं क्योंकि वे विज्ञान और अंग्रेजी के ज्ञान में उनकी बराबरी करते हैं और उनके मुक़ाबले ज्यादा मेहनत करते हैं… हिंदी लागू करने का क्रेडिट लेने की कोशिश में कोई भी देश को होने वाले नुकसान के बारे में नहीं सोच रहा है.”
“पूरे पाठ्यक्रम का अनुवाद करना विशद काम है, और हिंदी बोलने वालों को भी विज्ञान के शब्द हिंदी में
समझने में मुश्किल होगी.”
“भारत में रिसर्च पिछड़ता ही है, और उसे विदेश में मान्यता मिलना कठिन है. किसी समस्या के लिए अंग्रेजी के जो शब्द हर इस्तेमाल किए जाते है उनमें जब रिसर्च करने वाले लोग इस तरह फेरबदल करते हैं तब नयी भाषा दुनिया के नक्शे में कैसे शामिल होगी?”
वाट्सऐप के बाहर भी कई सवाल उठाए जा रहे हैं. दुनियाभर में हर दिन जब एक नया रिसर्च सामने आ रहा है उनसे हिंदी मीडियम वाले एमबीबीएस डॉक्टर खुद को किस तरह अपडेट करेंगे? यह निरंतर विकासशील विज्ञान है, और हरेक डॉक्टर को—भोपाल वालों को भी दुनियाभर में हो रहे रिसर्च की जानकारी रहनी चाहिए. हिंदी मीडियम वाले एमबीबीएस डॉक्टर को अगर भारत या विदेश में अगर किसी गैर- हिंदी संस्थान में आगे पढ़ाई करने का मौका मिलेगा तब वह क्या करेगा? मेडिकल जमात में मज़ाक चल रहा है कि यह ‘प्रतिभा पलायन’ को रोकने का सबसे अच्छा उपाय है. कई इंजीनियर और दूसरे प्रोफेशनल के सामने भी यह सवाल खड़ा हो सकता है. शाह की अध्यक्षता वाली सरकारी भाषा पर संसदीय समिति ने सिफारिश की है कि केंद्रीय विद्यालयों से लेकर आईआईटी तक सभी टेक्निकल और गैर-टेक्निकल संस्थानों में हिंदी को पढ़ाई अनिवार्य की जाए.
दक्षिण भारत में भाजपा विरोधियों ने उम्मीद के मुताबिक इस पर हमला कर दिया. मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने हिंदी ‘थोपे’ जाने के खिलाफ विधानसभा से प्रस्ताव पास करवाया, जबकि केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भेजा है. दक्षिण भारत में अपना विस्तार करने की बड़ी महत्वाकांक्षा रखने वाली पार्टी के लिए हिंदी पर ज़ोर देने के जोखिम तो हैं ही. लेकिन शाह को शायद हम लोगों से ज्यादा बेहतर पता होगा.
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क्या भारत तैयार है?
राजनीति अपनी जगह है, लेकिन हिंदी पर बहस में दोनों पक्षों के अपने-अपनी तर्क हैं.
एक डॉक्टर ने कहा कि अगर चीनी, जापानी, जर्मन, रूसी लोग अपने भाषाओं में मेडिकल और टेक्निकल शिक्षा ले सकते हैं, तो भारतीय क्यों नहीं? हर तरह से ले सकते हैं. लेकिन जैसा कि दूसरे डॉक्टरों का कहना है, क्या हम इसके लिए तैयार हैं.? क्या हम छकड़े को घोड़े के आगे तो नहीं लगा रहे हैं? सबसे पहले, क्या अमित शाह के पास उन सवालों के जवाब हैं, जो हिंदी विरोधी डॉक्टरों ने उठाए हैं?
सवाल यह नहीं है कि भारत को एक सूत्र में जोड़ने के लिए एक ही भाषा जरूरी है? सवाल यह है कि क्या देश इसके लिए तैयार है?
राजनीतिक विरोधियों को अलग रखें, खुद भाजपा भी इस मसले पर बंटी हुई है. त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री बिप्लब देब ने शाह के ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ के फॉर्मूले का समर्थन किया है, जबकि वर्तमान मुख्यमंत्री माणिक साहा का विचार अलग है. दांत के डॉक्टर से नेता बने साहा ने पिछले सप्ताह कहा, ‘माननीय प्रधानमंत्री हमेशा कहते हैं कि भविष्य में कोई भी ज्ञान के बिना प्रगति नहीं कर सकता. इसलिए आपको उपयुक्त शिक्षा मिलनी चाहिए. और अंग्रेजी जाने बिना देश के दूसरे भागों और विदेश के छात्रों से मुक़ाबला करना बहुत मुश्किल होगा. अंग्रेजी हम सबके लिए बहुत जरूरी है.” वे त्रिपुरा में अंग्रेजी मीडियम वाले डिग्री कॉलेज का उदघाटन कर रहे थे. राज्य में अंग्रेजी और बंगला अनिवार्य विषय हैं. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पिछले साल करीब 15 हजार प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों को अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में बदल दिया.
योगी ने 2017 में मुख्यमंत्री बनने के कुछ सप्ताह के अंदर ही एक समाचार पोर्टल से बातचीत में नर्सरी से ही अंग्रेजी पढ़ाना शुरू करने के अपने इरादे के बारे में कहा था कि ‘पारंपरिक तथा आधुनिक स्कूलों के बीच मेलजोल होना चाहिए… हमारी शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे और आधुनिक भी हो.’
हाल में असम मंत्रिमंडल ने क्लास तीन से गणित एवं विज्ञान विषयों को अंग्रेजी पढ़ाए जाने का फैसला किया. इस फैसले का बचाव करते हुए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि गरीब परिवारों से ज्यादा डॉक्टर और इंजीनियर निकलने चाहिए. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने उनका बयान छापा कि समृद्ध वर्ग को गरीब परिवारों से यह नहीं कहना चाहिए कि वे स्थानीय भाषा में पढ़ाई करें और खुद वे अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में भेजें.’
सरमा सटीक बात कह रहे हैं. अमित शाह को यह सर्वे कराना चाहिए कि खुद उनके मंत्री हिंदी को मुख्य मीडियम बनाने के बारे में क्या कह रहे हैं. जैसा कि ‘दिप्रिंट’ ने 2020 में खबर दी थी, मोदी के करीब एक दर्जन मंत्रियों ने अपने बच्चों को पढ़ने के लिए ऑक्सफोर्ड, हार्वर्ड और दूसरे विदेशी विश्वविद्यालयों में भेजा.
शाह को यह भी पता करना चाहिए किए उनके सहयोगी मंत्रियों ने अपने बच्चों, पोते-पोतियों को किन स्कूलों में भेजा— हिंदी मीडियम या अंग्रेजी मीडियम. लोहिया के शिष्य भी अंग्रेजी विरोधी ब्रिगेड के हैं. लेकिन पता कीजिए कि अखिलेश यादव की दो बेटियां कहां पढ़ रही हैं. उन्होंने उन्हें लंदन भेज दिया है. पीएम मोदी देश को अंग्रेजी भाषा के साथ जुड़ी ‘गुलाम मानसिकता’ से उबारना चाहते हैं. लेकिन उनके मुख्यमंत्री और मंत्री ही उनसे सहमत नहीं नज़र आ रहे हैं.
डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. @dksingh73 हैंडल से ट्वीट करते हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.
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