छुट्टियों के इस सीजन में आई कुछ आरामतलबी वाली बातें कर लें. देखें कि पिछली गर्मियों में एक टिप्पणीकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में क्या लिखा था- ‘उनका कहना है कि उनका मिशन देश में आत्मविश्वास पैदा करना है… थके-हारे, शुष्क और हताश पराजयवाद से लड़ना है.’ लेकिन, ‘कई लोगों के लिए वे सार्वजनिक मूल्यों के अवसान के प्रतीक हैं और उत्तर-सत्यवादी राजनीति के चेहरे हैं… उनके उग्र आलोचक उन्हें झूठ के बूते शिखर पर पहुंचा मायावी मानते हैं, जो लोकतंत्र के लिए एक खतरा हैं और जो अपनी तरक्की के सिवा किसी और चीज में विश्वास नहीं करते…जो देश की अर्थव्यवस्था और चुनावी नक्शे को बुनियादी रूप से बदलने में लगे हैं.’
हमारे इस टिप्पणीकार ने लिखा— ‘देशभक्तिपूर्ण आशावाद के उनके तर्क का अपना आकर्षण तो है ही, लेकिन क्या इसके पीछे अधिक स्वार्थी भावनाएं नहीं छिपी हुई हैं? वे देश के हित में काम कर रहे हैं या अपने हित के लिए? … हमारी एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि लोगों को एहसास होना चाहिए कि वे खुद से बड़ी किसी चीज के हिस्से हैं… और उन्हें यह चिंता नहीं करने देनी चाहिए कि उनकी परंपराओं तथा संबंधों को कमजोर किया जा रहा है.’
कोविड की महामारी के दौरान बदइंतजामी के लिए प्रधानमंत्री की कड़ी आलोचना की गई है. लेकिन ‘लोग उनके मामले में बहुत धैर्य रखते हैं, उनके प्रति क्षमाभाव रखते हैं क्योंकि वे ठेठ नेता जैसे नहीं हैं.’ इससे विपक्ष को निराशा होती है. उन पर कोई तोहमत चस्पा नहीं होती, यह उनके विरोधियों को विक्षिप्त करता है… कई बार वे विवादों के घेरे में फंसे मगर बेदाग निकल गए.
उनकी चुनावी प्रतिभा कुछ तो उनकी इस क्षमता की वजह से है कि वे विपक्ष को साफ-साफ सोचने से रोक देते हैं— उनके प्रति नफरत की वजह से वे यह नहीं देख पाते कि वे लोकप्रिय क्यों हैं, न ही यह समझ पाते हैं कि उनका क्या करें.
‘उनके लिए राजनीति, और जीवन तथ्यों पर झगड़ने के लिए नहीं है बल्कि लोगों को ऐसी कहानी पेश करने के लिए है जिस पर वे विश्वास कर लें… मनुष्य कल्पनाजीवी प्राणी है.’
इस तरह, उन्होंने एक लोकलुभावन, राष्ट्रवादी’… विद्रोह छेड़ दिया है अनुचित व्यवस्था के खिलाफ, जिसे आक्रोश से ताकत मिलती है.’
समस्या यह है कि यह, जोन दीदियों के शब्दों में, स्वप्न-राजनीति है. इसलिए, प्रधानमंत्री को ‘अब उन समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए, जिन्हें केवल मान्यता के बूते नहीं निपटाया जा सकता. कुछ लोगों को डर है कि अगर उनकी घरेलू आर्थिक परियोजना विफल हुई तो देश पहचान की विद्वेषपूर्ण राजनीति का सहारा लेने लगेगा… यहां तक कि उनके एक करीबी सहायक ने भी चिंता जाहिर की कि प्रधानमंत्री देश की समस्याओं के बारे में व्यवस्थित तरीके से नहीं विचार करते कि वे अटूट आस्थाओं पर बहुत निर्भर करते हैं.’
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आम तर्क
अगर अभी तक आपने यह अनुमान नहीं लगाया है तो जान लीजिए कि यह सब नरेंद्र मोदी के बारे में नहीं कहा गया है हालांकि इनमें से अधिकतर बातें उन पर भी लागू होती हैं. उपरोक्त उद्धरण टॉम मैकटागु की पुस्तक ‘द एटलांटिक ’ में बोरिस जॉनसन के परिचय से लिये गए हैं.
आप सोच रहे होंगे कि दो व्यक्ति इतने समान कैसे हो सकते हैं. जॉनसन एटन और ऑक्सफोर्ड से निकले हैं. मोदी के करीने से काटे गए बालों और गंभीर हावभाव के विपरीत ब्रिटिश प्रधानमंत्री के बाल करीने से बिखरे होते हैं और हावभाव मज़ाकिया-सा होता है. मोदी की तुलना प्रायः तुर्की के रिसेप एर्दोगन, हंगरी के विक्टर ओर्बान और ब्राज़ील के जाइर बोलसेनारो से की जाती है. ये सब अधिनायकवादी लोकलुभावन नेता माने जाते हैं. यानी लोकतंत्र के प्रतिष्ठित गढ़ों में भी लोकलुभावनवादियों ने एक क्लब बना लिया है.
जॉनसन की सदस्यता को डोनाल्ड ट्रंप की सदस्यता से जोड़कर देखा जाता है. फ्रांस के अगले राष्ट्रपति के रूप में एरिक जेम्मौर शायद इस क्लब में न शामिल हों, लेकिन यह आम जुमला सुना जा सकता है कि ‘नव-उदारवाद का जमाना गया, अब हस्तक्षेपवादी सरकार का समय आ गया है, प्रवास का दौर गया, अब आक्रोश को भड़काने का समय आ गया है, संस्कृति ने अर्थव्यवस्था को परास्त कर दिया है और जो राजनीतिक रूप से गलत है उसे छाती फुलाकर कहना जरूरी है.
मैकटागु ने जॉनसन के प्रमुख विदेश नीति सलाहकार और ‘रियलपॉलिटिक’ के लेखक जॉन बिव को उदधृत किया है कि युगचेतना ही ‘देश की राजनीति की दिशा तय करने वाली सबसे महत्वपूर्ण चीज है.’ यह तब भी सही है जब ट्रंप सत्ता से बाहर हैं और जब जॉनसन के लिए हालात प्रतिकूल हो रहे हैं.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)