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Friday, 15 November, 2024
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मोदी, नेहरू के ‘ग्लोबल साउथ’ को वापस लाए हैं, लेकिन यह भूगोल, भू-राजनीति, अर्थशास्त्र पर खरा नहीं उतरता

ग्लोबल साउथ का विचार, जिसके मुताबिक भारत या इसके नेता, बाकी देशों के अगुआ बन सकते हैं. नरेंद्र मोदी इसके सबसे प्रमुख और ताकतवर ग्लोबल एम्बेसडर बनकर उभरे हैं.

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जवाहरलाल नेहरू को नकारना या उनसे पल्ला झाड़ना इन दिनों चाहे जितना फैशन में हो, वे हमारी विदेश नीति का जो एक तत्व विरासत में सौंप गए हैं, वह नरेंद्र मोदी की सरकार में भी कायम है.

इस तथ्य को हम बस इतना गिना कर साबित कर सकते थे कि मोदी हाल के दिनों में अपने भाषणों में औद्योगिक देशों के दक्षिण में स्थित अविकसित देशों के लिए प्रयोग किए जाने वाले मुहावरे ‘ग्लोबल साउथ’ का कितनी बार इस्तेमाल करते हैं. इसे वे अमेरिकी कांग्रेस से लेकर जोहान्सबर्ग में ‘ब्रिक्स’ शिखर सम्मेलन में ही नहीं, बल्कि घरेलू मंचों, मसलन स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से दिए अपने भाषण में भी इस्तेमाल कर चुके हैं. इससे पहले, इस साल जनवरी में ‘वायस ऑफ ग्लोबल समिट’ में भी उन्होंने इस मुहावरे का प्रयोग किया था.

तो सबसे पहले इस मुहावरे के पीछे के विचार को विस्तार से समझें, और इसे भी कि यह नेहरू युग से लेकर आज तक क्यों प्रासंगिक बना हुआ है. यह वह विचार है, जो कहता है कि भारत और उसका नेतृत्व कर रहा नेता बाकी सबका अगुआ बन सकता है. यहां ‘बाकी सबका’ क्या मतलब है? इसमें अमेरिका, उसके यूरोपीय सहयोगियों समेत दूसरे मित्र देशों को छोड़ बाकी दुनिया शामिल है. ‘ग्लोबल साउथ’ को गूगल कीजिए, आपको उसमें कई देशों के नाम मिलेंगे. भौगोलिक दृष्टि से देखें तो इसमें दुनिया के दक्षिणी गोलार्द्ध के देश आते हैं.

लेकिन इसके बाद आपके सामने दुविधाएं आ सकती हैं. जापान और दक्षिण कोरिया को किस खांचे में रखें, और भी दूर दक्षिण में स्थित ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को किसमें? इसलिए, भूगोल हमें विफल कर देता है, यह एक व्यापक धारणा तो बनाता है, लेकिन इसे सटीक कसौटी नहीं कहा जा सकता.


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इतिहास बताता है कि उत्तरी और दक्षिणी दुनिया को बांटने वाली रेखा जर्मनी के पूर्व चांसलर विल्हम ‘विली’ ब्रांट के विचारों से उभरी थी. 1980 में, ब्रांट की अध्यक्षता वाले एक आयोग ने ‘नॉर्थ-साउथ : ए प्रोग्राम फॉर सर्वाइवल’ नामक रिपोर्ट पेश की थी, जो तुरंत ‘ब्रांट रिपोर्ट’ के नाम से मशहूर हो गई थी. अफसोस की बात है कि इसमें दुनिया को मनमाने ढंग से 30 डिग्री उत्तर के अक्षांश के आर-पार बांट दिया गया. यह अक्षांश अमेरिका और मेक्सिको के बीच से होकर पूरे अफ्रीका के ऊपर से और फिर सीधे यूरोप से गुजरते हुए ऊपर उठकर चीन को अपनी लपेट में ले लेता है.

लेकिन इसके बाद यह कलाबाजी खाता हुआ ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को छोड़ देता है. और अगर आप और बारीकी में जाएं तो यह ब्रांट द्वारा बताए गए बाहरी क्षेत्र में जापान और दक्षिण कोरिया को भी शामिल करता है. यानी समृद्ध उत्तर और गरीब, जूझते, विकासशील दक्षिण का यह विभाजन भूगोल की कसौटी पर खरा नहीं उतरता.

यह मुहावरा शायद सबसे पहले 1969 में कैथोलिक पत्रिका ‘कॉमनवील’ के एक विशेषांक में इस्तेमाल किया गया था. हां, आपने ठीक अंदाजा लगाया, वह साल ऐसा था जब वियतनाम युद्ध पर विशेषांक प्रकाशित किया गया था. लेखक कार्ल ओग्लेस्बी ने अपने लेख में ‘ग्लोबल साउथ’ पर ‘नॉर्थ’ के सदियों के वर्चस्व की आलोचना करते हुए कहा था कि इससे एक “नाकाबिले बर्दाश्त व्यवस्था” बन गई थी. इसके बाद बीच के पांच दशकों में इसे कई नाम दिए गए— तीसरी दुनिया, विकासशील दुनिया आदि. और अब फिर से ‘ग्लोबल साउथ’ मुहावरे को ढूंढ़ निकाला गया है और पुनर्जीवित किया गया है. मोदी इसके सबसे प्रमुख और ताकतवर ग्लोबल ब्रांड बनकर उभरे हैं.

हम देख चुके हैं कि यह परिभाषा भूगोल की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है. तो इसे अर्थशास्त्र की कसौटी पर कस कर देखते हैं. तमाम हिसाब-किताब और सभी विश्वसनीय स्रोतों के आधार पर आप पाएंगे कि ‘ग्लोबल साउथ’ की सूची में 78 देश आते हैं. इनमें सबसे प्रमुख देश हैं— चीन, भारत, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, नाइजीरिया, और बांग्लादेश. ये छह देश मिलकर इस समूह में सबसे बड़ी आबादी बनते हैं. इनमें आर्थिक दृष्टि से क्या समानता है?

हम जानते हैं कि चीन अभी भी यह बड़बोला दावा करना पसंद करता है कि वे एक विकासशील देश हैं. लेकिन 12,000 डॉलर से ज्यादा की प्रति व्यक्ति आय के उसके आंकड़े के कारण उसे एक विकासशील देश या ‘ग्लोबल साउथ’ की परिभाषा में शायद ही शामिल किया जा सकता है. अगर मान लें कि वह ऐसा है भी, तो क्या वह भारत को इस समूह के नेता के तौर पर कबूल करेगा?

फिर भी आमदनी अगर आपकी कसौटी है, और भौगोलिक रेखाओं को आपकी मर्जी के मुताबिक इधर-उधर खींचा जा सकता है (इस मामले में आम तौर पर विकसित देशों को), तो जल्दी ही रूस ‘ग्लोबल साउथ’ में शामिल होने का योग्य उम्मीदवार नज़र आएगा.

भूगोल और अर्थशास्त्र ने जबकि हमें विफल कर दिया है, तो हम रणनीतिक कसौटियों की ओर मुड़ते हैं. ‘कुटिल’ ग्लोबल नॉर्थ के कई प्रमुख मित्र देश साउथ में हैं—जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, और भारत भी, क्यों नहीं?

अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते को लगातार तीन भारतीय प्रधानमंत्री “स्वाभाविक रणनीतिक सहयोग” का रिश्ता बता चुके हैं. ‘ग्लोबल नॉर्थ’ के कप्तान अमेरिका के दो सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी जापान और ऑस्ट्रेलिया ‘क्वाड’ में हमारे भी सहयोगी हैं. और ग्लोबल साउथ के उन देशों को भी गिनिए, जो हमारे रणनीतिक सहयोगी बन सकते हैं. अगर कोई देश मिल जाए तो मुझे बताइएगा.


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कठोर सच्चाई यह है कि हमारे सहयोगी, हमारे आर्थिक हित, हमारे लोग और उनके जरिए हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक संबंध व हित, सब कुछ उस समूह के साथ जुड़ा है जिसे हम कटाक्ष करते हुए ‘ग्लोबल नॉर्थ’ कहकर खारिज करते हैं. और, हम ऐसा क्यों करते हैं? क्योंकि हम देखते हैं कि वे पहले ही हमसे आगे निकल चुके हैं. इसलिए हम बाकी देशों का अगुआ बनने की कोशिश करते हैं.

नेहरू के भारत को लगातार दो विश्व युद्ध से टूट चुकी दुनिया मिली थी, जो उपनिवेशवादी सत्ताओं के कमजोर होने के साथ खुद को संभालने में लगी थी. उस दुनिया को अमेरिका और सोवियत संघ के दो खेमे आकार दे रहे थे.

नेहरू जिन राजनीतिक उपमाओं का प्रयोग करते थे, उनकी निजी जीवनशैली थी, और उनके जो व्यापक रिश्ते थे वे सब पश्चिमी थे. उनका वैचारिक विकास ब्रिटिश समाजवादियों की संगति में हुआ था. इस सबने उनमें यह भावना भर दी थी कि उन्हें पश्चिम के साथ जुड़ा हुआ नहीं दिखना है.

उस दौर में विभाजन उत्तर-दक्षिण के बीच उतना नहीं था, जितना पूरब-पश्चिम के बीच था. पश्चिम को आक्रामक, वर्चस्ववादी, शोषक, और संशयी माना जाता था, जबकि सोवियत खेमे को किसी तरह से पूरब का हिस्सा माना जाता था. हम जिस पूरब में बसे हैं उससे यह चाहे कितना भी अलग और कटा हुआ क्यों रहा हो, ‘पूरब श्रेष्ठ, पश्चिम बुरा’ के भाव ने जड़ जमा लिया था. यह भाव उस दौर की हमारी लोक संस्कृति में भी गहरे पैठ गया था. राज कपूर की 1960 की फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के लिए गीतकार/कवि शैलेंद्र ने जो गाना लिखा था उसकी इन पंक्तियों पर गौर कीजिए— कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं/ ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं.

आश्चर्य नहीं कि तब नेहरू ने जिस गुट-निरपेक्ष आंदोलन (‘नाम’) की शुरुआत की थी उसका झुकाव अमेरिका विरोधी था. लेकिन वास्तविक गुट-निरपेक्षता का जो भी दिखावा ‘नाम’ में था उसे इंदिरा गांधी ने न केवल सोवियत संघ की ओर अधिक स्पष्ट झुकाव के साथ, बल्कि उसके साथ शांति, मैत्री, और सहयोग की संधि करके खत्म कर डाला. इसके बाद भारत और क्यूबा ही इस आंदोलन के प्रमुख भागीदार बचे, और ‘नाम’ सोवियत खेमे का लगभग पूरी तरह मुख्तार (प्रतिनिधि) बन गया.

इसका असर भारतीयों की कई पीढ़ियों पर इतना गहरा रहा कि भारत को नयी हकीकत को कबूल करने में शीत युद्ध के अंत और सोवियत खेमे के धुआं बन जाने के बाद दो दशक लग गए. मैंने दो दशक इसलिए कहा क्योंकि मैं भारतीय संसद द्वारा भारत-अमेरिका परमाणु संधि की मंजूरी को एक निर्णायक मोड़ मानता हूं.

अब, चीन का उत्कर्ष शीत युद्ध के अंत के बाद के एक-ध्रुवीय विश्व को चुनौती दे रहा है. एक-ध्रुवीयता किसी को पसंद नहीं है, और न होनी चाहिए. यूपीए-2 के दौर में नयी दिल्ली में गुट-निरपेक्ष आंदोलन-2 का काल्पनिक विचार पेश किया गया था, लेकिन यह आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि कांग्रेस जल्दी ही सत्ता से बाहर हो गई. बहुमत के साथ सत्ता में आए मोदी से उम्मीद की गई कि वे अतीत से निर्णायक रूप से रिश्ता तोड़ देंगे. वे व्यावहारिक दृष्टि से, लेन-देन की भावना, और संशय के साथ ऐसा कर भी रहे हैं, जो भारत के लिए अच्छा है.

लेकिन, अमेरिका के एक-ध्रुवीय वर्चस्व को चीन की चुनौती और रूस की तेज गिरावट ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है. इसलिए बहुपक्षता और बहुलतावाद को तरजीह मिल रही है. किसी भी विचार को बिना विचार-विमर्श के खारिज नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन आज यह मानकर चलना सुरक्षित होगा कि अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र के बाहर जो भी नया और बहुपक्षीय होगा उस पर चीन का दबदबा होगा. ‘एससीओ’ और ‘ब्रिक्स’ इसके केवल दो उदाहरण हैं.

इस हालात में, ‘ग्लोबल साउथ’ के नेतृत्व के मसले को वास्तविकता की कसौटी पर कसने की जरूरत है. शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ भौगोलिक रूप से दूरस्थ था और एक सुपरिभाषित खेमे का नेता था, इसलिए वह ‘नाम’ को केवल बाहर से प्रभावित करता था. आज चीन जबकि केंद्रीय मंच पर आ बैठा है और स्थित है, तब ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए आगे का रास्ता अनिश्चित-सा है. हम चाहे यह भले न चाहें मगर नयी उभरती दो ध्रुवीय दुनिया में यह चीनी खेमे में तब्दील हो जाए, इसका खतरा ज्यादा है.

(संपादन- इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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