दो सप्ताह पहले जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ‘खोले जाने और इस्टर तक गति पकड़ने के लिए तैयार’ होने की उम्मीद व्यक्त की थी तो उनकी बात निहायत ही मूर्खतापूर्ण लगी थी.
अब कुछेक दिन बाद ही इस्टर है, लेकिन अमेरिका में कोविड-19 संक्रमण के मामले 4,00,000 और होने वाली मौतों की संख्या 12,000 को पार करने वाली है. ऐसे में ट्रंप एक हृदयहीन व्यक्ति मालूम पड़ते हैं जिन्हें अपने लोगों की मुसीबतों की कोई फिक्र नहीं है.
हालांकि, आर्थिक गतिवधियां इस्टर तक शुरू करने की समयसीमा के बारे में ट्रंप भले ही गलत हों लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि रोज़गार की स्थिति और अर्थव्यवस्था में निरंतर जारी गिरावट का कमज़ोर वर्गों के स्वास्थ्य और ज़िंदगी पर बहुत गहरा असर पड़ेगा. लोगों की जान बचाने के उद्देश्य से निवारक प्रयास के रूप में लागू किया गया लॉकडाउन अंतत: आजीविका और ज़िंदगी दोनों को ही नष्ट करने की वजह बन सकता है.
भारत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी नौकरशाही और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों का भारी दबाव है कि लॉकडाउन को 14-15 अप्रैल की दरम्यानी मध्यरात्रि से आगे बढ़ाया जाए. इस संबंध में फैसले की घड़ी आने तक देश में कोविड-19 संक्रमण के मामले 10,000 से ऊपर हो चुके होंगे, जो शायद उसके अगले एक सप्ताह में दोगुने हो जाएं. जाहिर है लॉकडाउन को आगे बढ़ाने का प्रलोभन बहुत अधिक होगा पर उन्हें इससे बचना चाहिए.
लॉकडाउन के कारण बेरोज़गारी दर में उछाल– सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकॉनमी (सीएमआइई) के अनुसार अनुमानित 23.4 प्रतिशत, सिर्फ शहरी क्षेत्रों के लिए 30.9 प्रतिशत– को देखते हुए लॉकडाउन को 15 अप्रैल से आगे बढ़ाने के समर्थन में दी जा रही दलील को खारिज किया जा सकता है.
बेशक, लॉकडाउन को एक झटके में खत्म करने की आवश्यकता नहीं है और इसे कोविड-19 संक्रमण के प्रमुख केंद्रों और अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों के बीच संतुलन बिठाते हुए चरणबद्ध तरीक़े से समाप्त करना होगा. सरकार को 15 अप्रैल से लॉकडाउन को हटाने के तरीकों पर विचार करना चाहिए. मोदी को लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने के सुझाव को नहीं मानना चाहिए और उन्हें केवल कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित इलाकों को अपवाद के रूप में देखने की ज़रूरत है.
ये रही वजहें.
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सर्वप्रथम, जहां स्वास्थ्य प्रतिष्ठान की सलाह को हल्के में लेते हुए खारिज नहीं किया सकता है वहीं लॉकडाउन बढ़ाने की राज्यों की राजनीतिक मांग आंशिक रूप से उनके खुद के हितों के कारण है. राजनीतिक नेता कई कारणों से महामारी से प्यार करते हैं और मुख्य वजह ये है कि महामारी उन्हें मुफ्त का माल और रियायतें बांटकर खुद को परोपकारी साबित करने का अवसर मुहैया कराती है.
साथ ही, लॉकडाउन में नौकरशाही एवं कानून प्रवर्तन की एजेंसियों के हाथों में अभूतपूर्व ताकत होती है जिसके कारण नेता अपनी राजनीतिक बिसात पर सुरक्षित महसूस करते हैं.
लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने के पक्ष में कुछ दलीलें भले ही तार्किक हों लेकिन जब इस विचार को तमाम पार्टियों के नेताओं द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा हो तो हमें इसे उतना अधिक महत्व दिए जाने की ज़रूरत नहीं है. सिर्फ भाजपा शासित राज्य ही नहीं, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ जैसे गैर-भाजपा शासित राज्य भी लॉकडाउन बढ़ाने की मांग कर रहे हैं. ये अपने आप में इस मांग को लेकर सतर्कता बरते जाने की वजह है.
दूसरे, जब कंपनियों का व्यवसाय चौपट होता है तो सुस्थापित कंपनियों को छोड़कर, अक्सर उनके साथ कई और धंधे भी तबाह होते हैं और उनके द्वारा वर्तमान में उपलब्ध कराए जा रहे रोज़गार के अवसर हमेशा के लिए खत्म हो सकते हैं.
ये कहना आसान है कि सरकारों और बैंकों को व्यवसायों को बनाए रखने के लिए ज़रूरी वित्तीय सहायता देनी चाहिए. लेकिन कोविड-19 से पूर्व की आर्थिक सुस्ती के माहौल में जब बड़ी संख्या में छोटे और मंझोले व्यवसाय पहले से ही परेशानियों का सामना कर रहे हों तो ऐसे में व्यवसायों को डूबने से बचाने की चुनौती पहले से भी अधिक कठिन हो जाती है.
जब व्यवसायों की स्थिति लंबे समय तक खराब चल रही हो तो उन्हें वेंटिलेटरों के सहारे बचाए रखने से बेहतर है कि उन्हें डूबने दिया जाए. सक्षम व्यवसायों को बचाने के लिए, राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन 15 अप्रैल को खत्म होना चाहिए. तभी कंपनियों को दी जानेवाली वित्तीय सहायता कारगर साबित हो सकेगी.
तीसरे, लॉकडाउन की अवधि में किसी तरह के विस्तार का मतलब होगा नियोक्ताओं द्वारा इंसानी श्रम के बजाय मशीनों और ऑटोमेशन पर निर्भरता बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ाना. लॉकडाउन जितना लंबा खिंचेगा, मानव श्रम की जगह तकनीकी विकल्पों का उपयोग उतनी ही तेज़ी से बढ़ेगा. अमेरिका के लचीले श्रम बाजार में ऐसा बारंबार देखा जा चुका है, जहां हर मंदी के बाद पहले की तुलना में रोज़गार के कम अवसर सृजित हुए.
भारत में, जहां कि संगठित सेक्टर असंगठित की तुलना में छोटा है, रोज़गार और वेतन को लेकर अधिक लचीलापन असंगठित क्षेत्र में है. इसका मतलब है, छोटे और मध्यम आकार के व्यवसाय– हमारे मुख्य रोज़गार प्रदाता– धंधे में बने रहने के लिए तेज़ी से नौकरियों के अवसर कम करेंगे. व्यवसायी पहले ही लॉकडाउन अवधि बढ़ाए जाने की संभावना को लेकर चिंता जता रहे हैं और पहले उनकी सुध ली जानी चाहिए.
अपने यहां घरेलू रोज़गार सेक्टर, जो लचीली वेतन व्यवस्था के तहत लाखों लोगों को रोजगार देता है, में भी संकुचन आने की आशंका है. घरों में कामवालियों और ड्राइवरों को नौकरी देने वाले पाएंगे कि डिशवॉशरों, फर्श साफ करने वाली मशीनों और खुद ड्राइविंग करने से उनका काम चल सकता है.
वैसे भी, यदि वर्क-फ्रॉम-होम का चलन बढ़ता है तो फिर भला ड्राइवरों की ज़रूरत किसे होगी? लॉकडाउन जितना चलेगा घरेलू कामगारों के लिए पुराने वेतन पर दोबारा रोज़गार पाने की संभावना उतनी ही कम हो जाएगी.
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दुर्भाग्य से, संगठित सेक्टर हो या असंगठित या घरेलू, नियोक्ताओं को परोक्ष रूप में यही संदेश दिया गया कि उनके कामगार संक्रमण का वाहक हो सकते हैं. इसी वजह से दफ्तरों को बंद किया गया और कामवालियों को आवासीय सोसायटियों के गेट से लौटाया गया.
क्या इस परोक्ष संदेश का असर ये नहीं होगा कि जिसे जहां गुंजाइश दिखे वो रोज़गार के अवसर घटाए? कोविड-19 एक उपयोगी कामगार को व्यक्तिगत और संगठनात्मक जोखिम के स्रोत में तब्दील कर रहा है.
चौथी बात, बेरोज़गारी की समस्या संरचनात्मक हो जाने के बाद काम के प्रति श्रमिकों के नज़रिए में भी बदलाव आ जाता है. ये एक स्वीकार्य तथ्य है कि जब एक कामगार लंबे समय तक बेरोज़गार रहता है तो वह काम ढूंढना छोड़ देता है. नोटबंदी के तुरंत बाद ऐसा ही हुआ था जब, सीएमआइई की जनवरी-अप्रैल 2017 की बेरोज़गारी रिपोर्ट के अनुसार, लोगों के रोज़गार ढूंढना छोड़ देने के कारण बेरोज़गारी दर कम हो गई थी.
दीर्घावधि के कोविड लॉकडाउन से हमारी संरचनात्मक बेरोजगारी की दशा पहले से भी बदतर हो जाएगी. शासन पर रोज़गार सृजित किए बिना आय में वृद्धि का दबाव पड़ेगा. महामारी के बाद सामाजिक अशांति की स्थिति आम हो जाएगी.
पांचवीं बात, स्वास्थ्य संबंधी दलीलें भी गहराई से पड़ताल करने पर हल्की पड़ जाती हैं. महामारी के आरंभिक दौर में संक्रमण के फैलाव की तीव्र गति में स्थिरता लाने के प्रयास तार्किक लगते हैं लेकिन सच्चाई ये है: महामारी की दूसरे दौर की आशंका हमेशा बनी रहती है.
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सिंगापुर में स्थानीय संक्रमण के मामले बढ़ने के बाद दोबारा लॉकडाउन लागू करना पड़ा है. जापान में, नुकसानदेह लॉकडाउन को दोबारा लागू करने से बचने के उद्देश्य से आपातकाल घोषित किया जा रहा है. चूंकि टीके और दवाइयां आने में कम-से-कम एक से डेढ़ साल लगेंगे, ऐसे में इतनी लंबी अवधि तक संक्रमण के मामलों की संख्या कम रखने के लिए शायद लॉकडाउन सबसे बढ़िया उपाय नहीं है.
लोगों की जान बचाने के लिए लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने की राजनीतिक सलाह को मानने से पहले मोदी को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए. कई बार इलाज बीमारी के मुकाबले अधिक नुकसानदेह साबित होता है, यानि जान बचाने के लिए आजीविका खत्म करना. बिना आजीविका के जीवन भी उतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है. जैसे बीमारी के लिए सही प्रतिरोधक है स्वस्थ शरीर, उसी तरह कोविड-19 के लिए मध्यम अवधि में सही प्रतिरोधक है स्वस्थ अर्थव्यवस्था.
(जगन्नाथन स्वराज्य के संपादकीय निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
(यह लेख स्वाराज्य वेबसाइट पर पहले प्रकाशित हो चुका है)
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