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Friday, 21 June, 2024
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सऊदी प्रिंस को गले लगा लिया मोदी ने, नाराज होने से पहले जरा हकीकतों पर गौर कर लीजिए

नरेंद्र मोदी ने सऊदी अरब से भारत के रिश्ते में पाकिस्तान और पुलवामा के नाम पर खटास न देकर समझदारी ही दिखाई. वे मनमोहन सिंह की पहल को ही जोरदार ढंग से आगे बढ़ा रहे हैं.

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सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) के भारत दौरे पर राजनयिक प्रोटोकॉल के पालन को लेकर विवाद छिड़ गया है. सच्चाई यह है कि प्रोटोकॉल अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है. अब राष्ट्रों के बीच अक्सर संकेतों में संवाद होते हैं.

यही वजह है कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को यहां अपने स्वागत में एक जूनियर राज्यमंत्री खड़ा मिलता है, लेकिन विभिन्न शक्तियों के नेताओं की अगवानी करने के लिए खुद नरेंद्र मोदी पहुंच जाते हैं. इनमें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू, बांग्लादेश की शेख हसीना, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे, यूएई के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन ज़ाएद (दो बार), जॉर्डन के बादशाह अब्दुल्ला-2 और अब सऊदी के शक्तिशाली क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान.

ट्रूडो को सिख उग्रवाद पर भारत की चिंताओं के प्रति उनकी पार्टी की निरंतर असंवेदनशीलता के बारे में संदेश भेजा गया था. इसके विपरीत दूसरे नेताओं को संदेश भेजा गया कि आप तो हमारे खास दोस्त हैं. आधुनिक राज्याध्यक्ष इसी तरह संवाद करते हैं. डोनाल्ड ट्रम्प तो ट्वीटर पर ही उच्चस्तरीय कूटनीति चलाते हैं.

एमबीएस (मोहम्मद बिन सलमान) की अगवानी करने के लिए हवाईअड्डा पहुंचकर मोदी ने समझदारी ही दिखाई और इस बात को लेकर कोई असंतोष या नखरे नहीं दिखाए कि सऊदी क्राउन प्रिंस ने भारत आने से महज 48 घंटे पहले ही इस्लामाबाद में पाकिस्तान की खूब तारीफ की. इसके अलावा, गौर करने की बात यह है कि मोदी चूंकि जॉर्डन के बादशाह, और यूएई के क्राउन प्रिंस की दो बार अगवानी कर चुके हैं, सो अगर वे सऊदी प्रिंस का स्वागत करने नहीं जाते तो इसे भारी तौहीन माना जाता.

भारत के लिए सऊदी अरब रणनीतिक दृष्टि से इजरायल जैसा नहीं है. लेकिन यह इस्लामिक दुनिया में सबसे अहम ताकत है और भारत के लिए भी बहुत महत्व रखता है. चीन और यूएई के साथ-साथ यह उन तीन मित्र राष्ट्रों में एक है, जिनका पाकिस्तान पर प्रभाव है.

मोदी की आलोचना मुख्यतः तीन बातों के लिए हो रही है. एक तो यह कि एमबीएस ने अभी-अभी पाकिस्तान के साथ जो संयुक्त बयान जारी किया है उसका भारत को विरोध करना चाहिए. दूसरी बात यह कि उन्होंने पाकिस्तान में 20 अरब डॉलर निवेश करने (मदद नहीं) का वादा किया है. और तीसरी बात, ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के स्तंभकार जमाल खशोगी की हत्या में उनकी कथित भूमिका के बारे में संदेह को लेकर पूरी दुनिया, खासकर यूरोप में भारी बवाल मचा हुआ है. दुनिया भर में वहाबी प्रचार को सऊदी अरब के समर्थन, खुलेआम सिर कलम करके सज़ाए-मौत देने की इसकी पैरोकारी जैसी बातों को भी आप इसमें, जोड़ सकते हैं. सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि क्या एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र को दुनिया के सबसे घोर पुरुष-प्रधान, मजहबी मुल्क के सामंती तानाशाह को इतनी तवज्जो देनी चाहिए?

यह कोई हाल की बात नहीं है कि सऊदी अरब ऐसा हो गया है, वह आज जो है वैसा हमेशा से ही रहा है. इसके शासक को इस्लाम के दो सबसे पाक स्थानों के ‘रक्षक’ की उपाधि से नवाजा गया है. यह इस्लाम के बारे में धर्मशास्त्रीय रूप से पवित्र नजरिया रखता है, जिसके तहत यह लाखों मुसलमानों, खासकर शियाओं, को बहिष्कृत मानता है. क्या भारत इसे बदल सकता है?


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भारत एक चीज़ बदल सकता है, जो महत्व रखती है. वह सऊदियों से अपनी पुरानी दूरी को कम कर सकता है. उससे लगभग शत्रुता के भाव, और पाकिस्तान समर्थक उसके रुख में बदलाव ला सकता है. और इससे पहले कि आप मेरे ऊपर अपनी जुबानी एके-47 दागना शुरू कर दें तथा मुझे मोदी का फैन बताकर मुझे फांसी पर चढ़ाने को तैयार हो जाएं, यह जान लीजिए कि इस विवेकपूर्ण राजनीति की शुरुआत मनमोहन सिंह ने की थी.

उनमें यह समझदारी थी कि पाकिस्तान के साथ सत्ता संतुलन को बदलने के लिए सिर्फ यह जरूरी नहीं है कि इस उपमहाद्वीप में अमेरिकी नीति को बेमानी किया जाए. भारत को पाकिस्तान के करीबी देशों— चीन, यूएई, और सऊदी अरब से जुड़ना भी होगा. एक चौथा देश भी है, तुर्की लेकिन भारत का वहां कभी ज्यादा महत्व रहा नहीं. गद्दी पर बैठने के कुछ ही दिनों बाद मनमोहन ने सऊदी बादशाह अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अज़ीज़ को 2006 में गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित करने का दुस्साहस किया था. और आपको पता है? उन्होंने भी हवाई अड्डे पर जाकर बादशाह का स्वागत करके सख्त प्रोटोकॉल को तोड़ा था. बेशक, गले लगना उनकी शैली नहीं थी.

सामंती समाज में बेशक लाखों समस्याएं होती हैं मगर वे सम्मान और आदर मिलने पर वैसी ही प्रतिक्रिया करते हैं. सो, 2010 में जब मनमोहन सऊदी अरब गए (28 वर्षों में वहां जाने वाले वे पहले प्रधानमंत्री थे) तब आप कल्पना कीजिए कि उनकी अगवानी किसने और किस तरह की थी. उस समय क्राउन प्रिंस थे सुलतान बिन अब्दुल अज़ीज़, जिन्होंने पूरे मंत्रिमंडल, सेना प्रमुखों और युवा एमबीएस समेत लगभग पूरे शाही कुनबे के साथ उनका स्वागत किया था.

उस दौरे के बारे में अपने युवा साथी सृजन शुक्ल के साथ जानकरियां इकट्ठा करते हुए मैंने प्रोटोकॉल प्रेमियों की दिलचस्पी का एक मसाला पाया.रियाद हवाई अड्डे पर उन्होंने मनमोहन के स्वागत में प्रोटोकॉल भंग करते हुए लाल कालीन बिछा दिया था, जबकि आम तौर पर वे हरा कालीन बिछाते हैं. उसी साल बाद में एमबीएस (हालांकि उस समय वे आज की तरह वास्तव में शासक नहीं थे) जब भारत आए तो तत्कालीन उपराष्ट्रपति हमीद अंसारी ने उनका स्वागत किया था. यही नहीं, रियाद और दिल्ली में मनमोहन ने तब जो भावुकतापूर्ण भाषण दिए थे उनको भी आप जरा पढ़ लें. उन्होंने कहा था कि दोनों देशों के बीच व्यापारिक तथा सांस्कृतिक संबंध 5000 वर्ष पुराने हैं और एक समय था कि केरल और अरब-फारस के समुद्रतटों के बीच लकड़ी से बने जहाज आया-जाया करते थे. इसके बावजूद दोनों देशों के रिश्ते सहज नहीं थे. मनमोहन ने उन्हें सहज बनाया.

हम अमेरिका के साथ अपने रणनीतिक संबंध पर खुश होते हैं. लेकिन याद रहे कि भारत-सऊदी के बीच रणनीतिक रिश्ते की नींव सिंह और किंग ने ही डाली थी. इसी का नतीजा था कि सऊदी अरब ने मुंबई में लश्कर-ए-तय्यबा के 26/11 के हमलों के मास्टरमाइंड अबु जुंदाल को हमारे हवाले किया. खाड़ी के दूसरे देश भी, खासकर यूएई भी भारत में आतंकी या भ्रष्टाचार की कार्रवाई करके वहां छुपने वालों को भारत के हवाले करते रहे हैं. 2012 से अब तक ऐसे लोगों की संख्या 18 पहुंच चुकी है. यह रणनीतिक बदलाव है और भारत की द्विपक्षीय राजनीतिक पहल का पुरस्कार है.

पी.वी. नरसिंहराव और अटल बिहारी वाजपेयी को इस्लामी विश्व की नाराजगी की वजह से कश्मीर के मोर्चे पर जूझना पड़ा था. ओआइसी (इस्लामी देशों का संगठन) कश्मीर को लेकर बराबर परेशानी पैदा करने वाले प्रस्ताव पास करता रहता था. खाड़ी सहयोग काउंसिल (जीसीसी) की मजबूती ने ओआइसी को बेअसर-सा कर दिया है. भारत ने ईरान के साथ अपने खास और मजबूत रिश्ते को बचाते हुए खाड़ी देशों से संबंध बढ़ाकर ओआइसी की इस स्थिति का फायदा उठाया है.

यह खेल बाद के तीन प्रधानमंत्रियों ने बखूबी खेला(मोदी तीसरे हैं )है. इसके भी परिणामों पर गौर कीजिए. पहला, जीसीसी ने यह मान लिया है कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मसला है. इसके पिछले दो शिखर सम्मेलनों में कश्मीर का कोई जिक्र नहीं किया गया.

तो क्या भारत और सऊदी अरब के बीच सब कुछ बिलकुल दुरुस्त है? बेशक, नहीं. क्या यह रिश्ता पहले के मुक़ाबले बहुत-बहुत बेहतर है? बेशक, हां.

नई दिल्ली और रियाद के बीच रणनीतिक हितों को लेकर बुनियादी टकराव की स्थिति है. पाकिस्तान इस्लामी दुनिया में सऊदी अरब का सबसे करीबी दोस्त है. इसके सैनिक सऊदी सेना ही नहीं बल्कि इसके शाही परिवार की सुरक्षा के लिए सबसे विश्वस्त माने जाते हैं. ऐसे में भारत की यह अपेक्षा बेवकूफी ही होगी कि सऊदी अरब इस्लामी दुनिया के एकमात्र परमाणु अस्त्र सम्पन्न देश को दरकिनार कर दे, जहां दुनिया की सबसे बड़ी सुन्नी आबादी बसी है और जिसकी सीमारेखा ईरान और अफगानिस्तान के साथ सबसे लंबी है.

इसी तरह, ईरान के साथ भारत के रणनीतिक संबंध काफी करीबी हैं, तो क़तर के साथ भी रिश्ता सौहार्दपूर्ण है. ये दोनों देश सऊदी अरब के सबसे बड़े दुश्मन हैं. लेकिन समझदार मुल्क अपने हितों के साथ कोई समझौता किए बिना एक-दूसरे के साथ खुशी से तालमेल बैठा लेते हैं. यही वजह है कि पाकिस्तान में तो एमबीएस(मोहम्मद बिन सलमान) ने खुल कर कहा कि ईरान एक आतंकवादी देश है, मगर भारत में अपने मेजबान को परेशानी में न डालते हुए उन्होंने कुछ नहीं कहा. जवाब में भारत ने भी उनसे यह आग्रह नहीं किया कि वे पुलवामा कांड या आतंकवाद के लिए पाकिस्तान का नाम लेकर निंदा करें.

हम विदेश नीति के मामले में मोदी के कुछ कदमों की अक्सर आलोचना करते रहे हैं, खासकर उनकी बेहद निजी किस्म की ‘झप्पीवादी’ कूटनीति की, जिसके बारे मैं अपने स्तम्भ में लिख चुका हूं. जो भी हो, उन्हें खाड़ी देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए. बहुत ज्यादा झप्पीवाद इमैनुएल मैक्रों या ट्रंप जैसे नेताओं पर काम न करे, लेकिन बड़े सामंतों के लिए कारगर हो सकता है.

इसलिए, इस पूर्वनिश्चित दौरे को पाकिस्तान या पुलवामा के नाम पर खराब न करके मोदी ने विवेक का परिचय दिया. भारत ने दो दशक की मेहनत के बाद अमेरिकी नीति को भारत बनाम पाकिस्तान की छाया से मुक्त करने में सफलता पाई है. अब अगर हम अपनी विश्वदृष्टि को पाकिस्तान की छाया से मुक्ता नहीं करते तो यह अविश्वसनीय मूर्खता होगी.

नौटंकी करने का काम अपने कमांडो-कॉमिक टीवी चैनलों के जिम्मे छोड़ दीजिए. निरंतर बढ़ते लाभ ही कूटनीति के पुरस्कार होते हैं.

आप कह सकते हैं की यह सब तो ठीक है, लेकिन खशोगी की बर्बर हत्या का क्या? मेरा सुझाव यह है की जब व्लादिमीर पुतिन अगली बार दौरे पर भारत आएं तब जरा गूगल पर यह ‘सर्च’ कीजिएगा कि सर्जी मैगनित्स्के का क्या हुआ?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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