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Friday, 22 November, 2024
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मोदी सरकार को चीन की कार्रवाई पर स्पष्ट रूप से बताना चाहिए, भारत को सूचना युद्ध भी जीतने की जरूरत है

जो हुआ है उसे स्वीकार करने में मोदी सरकार को झिझक नहीं होनी चाहिए. चीन के मुकाबले के लिए एक रणनीतिक संचार योजना की ज़रूरत है जोकि अपने कथानक को आगे बढ़ाता जा रहा है.

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बालाकोट के 2019 के हमले ने जो बातें सिखाई उनमें से एक ये भी है कि अपने पास एक उचित संचार तंत्र और शत्रु के मनोवैज्ञानिक अभियानों के मुकाबले के लिए एक सक्षम रणनीति होना महत्वपूर्ण है.

लेकिन लद्दाख में चीन के साथ गतिरोध और संघर्ष के बाद सामने आए कथानक को देखते हुए यही लगता है कि हमें अभी बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है. सीमा पर 1999 के कारगिल युद्ध के बाद के इस सबसे बड़े संकट ने सैन्य तनाव की स्थिति में भारत के पास एक व्यवस्थित और एकीकृत संचार तंत्र नहीं होने के तथ्य को उजागर किया है.

नरेंद्र मोदी सरकार और सैन्य नेतृत्व को रक्षात्मक होने के बजाय, लद्दाख और पूर्वोत्तर में चीनी अतिक्रमण के खिलाफ आधिकारिक रूप से खुलकर बोलना चाहिए. दादागिरी दिखाते हुए ज़मीन हड़पने की चीन की दुस्साहसपूर्ण कोशिश के खिलाफ वैश्विक जनमत तैयार करने के लिए इसका और कोई विकल्प नहीं है.

गलत कदम

मई के आरंभ में तनाव की खबर पहली बार सामने आने के बाद से ही सरकार राजनीतिक और नौकरशाही, दोनों ही स्तरों पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर बनी स्थिति के दायरे, विस्तार और गंभीरता को कम कर के दिखाने की कोशिश कर रही है.

यहां तक कि सेना ने भी ये कहकर तब से चुप्पी ओढ़ रखी है कि गेंद विदेश मंत्रालय के पाले में है.

सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने मई के मध्य में ये दावा करते हुए स्थिति की गंभीरता को कम बताने की कोशिश की थी कि पैंगोंग त्सो और सिक्किम की झड़पों में परस्पर कोई संबंध नहीं है और हर विवाद को स्थापित प्रोटोकॉल तथा दो अनौपचारिक भारत-चीन शिखर सम्मेलनों- वुहान और मामल्लपुरम के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामरिक मार्गदर्शन के अनुरूप सुलझाया जा रहा है.

सेनाध्यक्ष का बयान ऐसे समय आया था जब पत्रकारों को रक्षा एवं सुरक्षा तंत्रों के भीतर से ऐसी सूचनाएं मिलने लगी थीं कि लद्दाख में कई जगहों पर अतिक्रमण हुए हैं और स्थिति उससे कहीं अधिक गंभीर है जितना कि अधिकारी सबको यकीन कराना चाह रहे हैं.

कुछ दिन और बीतने के बाद जब सार्वजनिक रूप से और अधिक जानकारियां सामने आ चुकी थीं. सूत्रों के अनुसार उसके बाद मोदी सरकार ने इस बारे में 18 मई को एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई.


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उस बैठक के बाद अंतत: सरकारी संचार मशीनरी धीरे-धीरे सक्रिय होना शुरू हुई. हालांकि, तब भी ये जाहिर करने की कोशिश नहीं की गई कि चीन आखिर क्या कर रहा है और स्थिति कितनी खराब या फिर मैनेज करने लायक है.

विदेश मंत्रालय की झिझक

विदेश मंत्रालय भी चीनी अतिक्रमणों पर स्पष्ट बयान देने को लेकर इसी तरह रक्षात्मक और अनिच्छा वाला रुख अपनाए रहा. ‘एलएसी के पार’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल करना और वास्तविक ज़मीनी स्थिति के बारे में सीधे कुछ नहीं कहना साफ तौर पर रक्षात्मक मुद्रा थी, जो कि आपके खिलाफ जाती है. खासकर जब आप प्रतिस्पर्धी से वार्ताएं कर रहे हों.
विदेश मंत्रालय के अधिकतर बयान चीनी विदेश मंत्रालय की आक्रामक बयानों की प्रतिक्रिया में थे, बजाय इसके कि पहले खुद का कथानक तैयार किया जाता.

चीन ने शुरू से ही आक्रामक रवैया अपनाया. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) एवं विदेश विभाग दोनों ही मुखर रहे और वे खुद को आक्रमणकारी के बजाय पीड़ित पक्ष साबित करने की कोशिश करते रहे.

‘ग्लोबल टाइम्स’ लगातार प्रोपगेंडा प्रसारित कर रहा है और रोचक बात ये है कि कई भारतीय ट्विटर पर उसके खंडन-मंडन में लगे रहते हैं. बिना इस बात का एहसास किए कि उनके ऐसा करने से चीनी दुष्प्रचार और अधिक फैलता है. वैसे भी, चूंकि ट्विटर चीन में प्रतिबंध है इसलिए चीनियों से की जाने वाली बहस, कुछेक लोगों, जिन्हें कि सरकार की अनुमित प्राप्त है, के सिवाय आम चीनियों तक नहीं पहुंचती है और इसी से जुड़ी एक और समस्या है. जहां चीनी प्रोपगेंडा भारतीयों पर लक्षित होता है, वहीं भारत का समानांतर कथानक भी भारतीयों पर ही लक्षित होता है.

इसलिए अच्छा यही होगा कि मोदी सरकार एलएसी पर हुई घटनाओं को स्वीकार करने में झिझक नहीं दिखाए. तमाम राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों के बावजूद जब बात राष्ट्र पर चुनौती की आती है तो पूरा भारत एकजुट हो जाता है.

चीन ने मौके का फायदा उठाया

भारत ने, जहां चुप्पी साधने और स्थिति की गंभीरता को कम करके दिखाने का विकल्प चुना. वहीं चीन ने कई स्थानों पर एलएसी का अतिक्रमण किया और बड़ी संख्या में सैनिकों और साजोसामान की सीमा से लगे अग्रिम इलाकों में तैनाती कर दी.

मई की समाप्ति तक उप्रग्रह चित्र सामने आने लगे जिनमें चीनी तोपखानों और अन्य सैन्य तैनातियों की स्थिति को देखा जा सकता था. तोपों और अन्य सैन्य साजो सामान की तैनाती के चीनी तरीके ने सरकार के भीतर कइयों को चौंका दिया, जिनका मानना था कि चीन ने संभवत: जानबूझकर ऐसा किया है ताकि उपग्रह कैमरों में सब कुछ स्पष्टता से आ सके.

यह मान्यता तब सच लगने लगी जब चीनियों ने पैंगोंग त्सो से लगे भारतीय इलाके में बड़े आकार के मैंडरिन अक्षरों में चीन लिख दिया और साथ ही उन्होंने वहां चीन का एक विशालयकाय नक्शा भी उकेरा.

ज़ाहिर है, चीनी भारतीयों के दिमाग से भी खेल रहे हैं. शायद उन्होंने सोचा होगा कि इससे भारत सरकार पर दबाव बढ़ेगा जिसने अभी भी भारतीय भूमि पर चीनी अतिक्रमण की बात नहीं मानी है. मैं इससे पहले दलील दे चुका हूं कि एलएसी संबंधी ‘धारणाओं में अंतर’ की बात करने वाले दरअसल चीनी हाथों में खेल रहे हैं.

सेना के उत्तरी कमान के पूर्व कमांडर ले. जन. डीएस हूडा ने बिल्कुल सही कहा है कि भारतीय क्षेत्र पर चीनी नियंत्रण की चर्चा नहीं करने से समस्या दूर नहीं हो जाएगी.

मीडिया पर भरोसा करें

एलएसी पर गतिरोध के बारे में आधिकारिक सूचना के अभाव के बावजूद कई भारतीय पत्रकार इस बारे में रिपोर्टिंग करने और स्थिति की गंभीरता को सामने लाने में कामयाब रहे हैं.


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हालांकि, सरकार के सूचना साझा नहीं करने के कारण कुछ मीडिया रिपोर्टें बेहद सनसनीखेज रूप में भी सामने आईं, वहीं कइयों में स्थिति का चित्रण ऐसा था मानो कुछ हुआ ही नहीं हो.

सरकार को ये जान लेना चाहिए कि मीडिया प्रभाव-गुणक का काम करता है और प्रेस, खासकर सीमा पर तनाव को कवर करने वाले पत्रकारों से नियमित रूप से सूचनाएं साझा की जानी चाहिए. ऐसा होने पर सरकार को भाजपा बीट वाले चुनिंदा पत्रकारों को जुटाकर एक केंद्रीय मंत्री के आवास पर लाने और उनसे लद्दाख गतिरोध के मामले पर बात करने के लिए एक शीर्ष राजनयिक को नहीं लगाना पड़ेगा.

इन परिस्थितियों में ये आश्चर्य की बात नहीं कि यह धारणा चल पड़ी है कि अधिकारी कुछ छिपा रहे हैं. मोदी सरकार को अपना कथानक स्थापित करने के लिए ज़रूरी कदम उठाने चाहिए. अपनी बात को आगे बढ़ाने में सफल हो रहे चीन का मुकाबला करने के लिए स्पष्ट रणनीतिक मैसेजिंग की आवश्यकता है.

स्पष्टता के साथ अपनी बात सामने रखने से शत्रुओं को किसी गलतफहमी का लाभ उठाने का भी मौका नहीं मिलेगा, जैसा कि 19 जून को सर्वदलीय बैठक में एलएसी पर गतिरोध संबंधी प्रधानमंत्री मोदी के बयान के मामले में दिखा था, जब अगले दिन बयान पर स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत पड़ गई थी.

गत वर्ष बालाकोट हवाई हमले तथा भारतीय सेना, नौसेना और वायुसेना के संयुक्त संवाददाता सम्मेलन के बीच के तीन दिनों का घटनाक्रम इस बात का स्मरण कराता है कि आज के दौर में सूचना युद्ध भी समान रूप से महत्वपूर्ण है.

उस हवाई हमले और संवाददाता सम्मेलन के बीच के 60 घंटों से अधिक की अवधि में तमाम तरह के संदेह और प्रतिकथानक सामने आ चुकने के बाद भारतीय अधिकारियों की नींद खुली थी कि पाकिस्तान सूचना युद्ध में बढ़त ले रहा है.

अब इस बार हमें चीनियों को आगे नहीं निकलने देना चाहिए, बात चाहे ज़मीनी स्थिति की हो या दिमागी खेल की.

(ये लेखक के अपने विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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