सभ्य और संवैधानिक राजनीति का एक सबक ये है कि संसद में आप जितना अधिक बहस करेंगे, सड़कों पर (या वास्तव में, जंगलों में) आपको उतना ही कम संघर्ष करना पड़ेगा. नरेंद्र मोदी सरकार किसानों की अशांति और विरोध प्रदर्शनों से बच सकती थी, बशर्ते उसने एक व्यापक सामाजिक विमर्श प्रक्रिया को अपनाया होता और कृषि विधेयकों को संसद से पारित कराने में जल्दबाजी नहीं की होती. बेशक, विभिन्न किसान संगठनों, बिचौलियों के गुटों और सिविल सोसायटी संस्थाओं ने प्रस्तावित बदलावों के खिलाफ आवाज उठाई होती. बेशक, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने संसद में विधेयकों का विरोध किया होता. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के लिए न तो मीडिया और जनता के बीच समर्थकों की कमी है, और न ही सांसदों की, कि मोदी सरकार के सुधार प्रस्तावों के अटकने का कोई खतरा होता. यात्रा से बचने और सीधे छलांग मारकर गंतव्य पर पहुंचने का परिणाम ये हुआ कि कृषि क्षेत्र के हितधारकों को स्पष्टीकरण की बजाय आघात विमर्श की जगह रेडिमेड फैसला और कई मामलों में सकारात्मक उम्मीद के बदले अस्तित्व के संकट का भय मिला.
सरकार ने ये रास्ता क्यों चुना ये एक अबूझ पहेली है. इसे सरकार की शासन ‘शैली’ का मामला बताकर बहस खत्म कर देना आसान है. लेकिन यदि हम शैली वाली दलील को छोड़ दें, तो सवाल सुधारों के राजनीतिक प्रबंधन का बन जाता है. क्या प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा नेतृत्व ने ये अनुमान लगाया होगा कि पूर्व सहमति बनाने के मुकाबले कहीं आसान रास्ता है कृषि क्षेत्र के हितधारकों को एक थोपे गए फैसले को एक अपरिवर्तनीय तथ्य मानने पर विवश करना? कथानक तय करने में इस समय भाजपा की वर्चस्व की स्थिति को देखते हुए शायद पार्टी नेता मौजूदा राह पर चलने के प्रेरित हुए होंगे. हालांकि, हरेक सरकार इस बात को जानती है कि यदि आपने प्रदर्शनकारियों को घर वापस भेज भी दिया, तो वे जिस बात का विरोध कर रहे थे वो मुद्दा बरकरार रहता है.
नरेंद्र मोदी सरकार का कृषि सुधार पैकेज मुख्यतया किसानों को राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जकड़ से आज़ाद कराने की दिशा में एक बड़ा कदम है- इसमें किसानों के अधिकारों की रक्षा करते हुए अनुबंध या कॉन्ट्रैक्ट खेती की अनुमति देने के लिए कानूनी और प्रशासनिक आधार तैयार किया गया है; और इसमें कृषि क्षेत्र को मूल्य एवं स्टॉक नियंत्रण से बचाने का वादा भी है. दशकों से, हम ये मानते रहे हैं कि कृषि क्षेत्र को सुधारों की ज़रूरत है, और किसानों को जिस चिरकालिक गंभीर संकट का सामना करना पड़ रहा है वह नीतिगत ढांचों का परिणाम है जोकि उन्हें निम्न उत्पादकता, कर्जदारी, मानसून पर निर्भरता, और अंतत: सरकार पर निर्भरता के चक्र में फंसाए रखता है. हम इस बात पर भी सहमत रहे हैं कि भारतीय किसानों को जकड़न में रखने वाली जंजीरों को तोड़े जाने की ज़रूरत है.
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सुधारों से जुड़ी चिंता
किसी सुधार से जुड़ी मुख्य चुनौती ये होती है कि उसके संभावित लाभार्थी आमतौर पर अज्ञात फायदों से भी घबराते हैं, और इसकी बजाय वे ज्ञात हानियों को भी झेलते रहने के लिए तैयार होते हैं. आपको शायद 1991-92 में होने वाली सार्वजनिक बहस याद हो जब भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोले जाने के प्रस्तावों को लेकर तमाम चिंताएं व्यक्त की गई थीं और उनका ज़ोरदार विरोध हुआ था. लेकिन आज, हम उन सुधारों के ज़रिए आई अभूतपूर्व समृद्धि को इतने हल्के में लेने लगे हैं कि राष्ट्रवाद के चक्कर में खुद को वैश्विक अर्थव्यवस्था से काटकर उस लाभप्रद प्रक्रिया को कमजोर करने पर आमादा हैं. हम खुद भारत के पिछले तीन दशकों के अनुभवों से जानते हैं कि अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए किए जाने वाले ढांचागत सुधार न सिर्फ ज़रूरी हैं, बल्कि उनके परिणाम दिखने में भी कोई देरी नहीं लगती. इसकी वजह ये है कि दरअसल अपर्याप्त आर्थिक स्वतंत्रता ही भारत की मूलभूत आर्थिक समस्या है तथा व्यक्तियों, कंपनियों और समुदायों को पहले के मुकाबले अधिक आज़ाद बनाने वाला कोई भी सुधार कुल मिलाकर अधिक समृद्धि की राह पर ही ले जाता है.
लेकिन हम ये भी जानते रहे हैं कि कृषि क्षेत्र में ढांचागत सुधारों के लिए संघ-राज्य संबंधों में नए सिरे से संतुलन बनाने, राज्यों के बीच सहयोग को मज़बूत करने और उससे भी अधिक किसानों और अन्य हितधारकों के साथ ईमानदार, व्यापक और लोकतांत्रिक परामर्श करने की ज़रूरत होगी. यदि आज पूरे देश में किसानों में गहरा असंतोष है तो उसकी वजह सुपरिचित मंडी-बिचौलिया-एमएसपी तंत्र की जगह बाज़ार, कॉरपोरेट और टेक्नोलॉजी की अज्ञात व्यवस्था लागू किए जाने को लेकर उनकी वास्तविक चिंताएं हैं. और, आज यदि राष्ट्रीय राजधानी के द्वार पर लाखों किसान आ जुटे हैं तो इसकी वजह है परामर्श और शंका समाधान की प्रक्रिया अपनाने से पहले कानून लाने का मोदी सरकार का फैसला.
परामर्श प्रक्रिया की ज़रूरत
विमर्शवादी लोकतंत्र के तौर-तरीकों को भूलने का एक परिणाम ये हुआ है कि नीतिगत दलीलों को अर्थशास्त्र की बजाय भावनाओं के आधार पर पेश किया जा रहा है. और जैसा कि ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे से जाहिर है, भारत में कृषि को हमेशा भावनात्मक और नैतिक नज़रिए से देखा गया है. [इस बात पर भी गौर करें कि नैतिक उपदेश देना क्यों एक बुरा विचार है]. अधिकांश लोग इस विचार से सहमत होंगे कि इंजीनियरों, ऑटोरिक्शा चालकों या डाक कर्मचारियों के विपरीत किसान एक अलग और सामाजिक रूप से कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इस नज़रिए का एक परिणाम ये है कि अच्छी आर्थिक दलीलों को भी खारिज कर दिया जाता है क्योंकि वे हमारी भावनाओं को अपील नहीं करती हैं. दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को मिलने वाला जनसमर्थन भी काफी हद तक भावनात्मकता पर ही आधारित है. इस तरह हम भावनाओं के संघर्ष की स्थिति में पहुंच गए हैं, जो दुर्भाग्य से भारतीय कृषि के भविष्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को सुलझाने का श्रेष्ठ तरीका नहीं है.
किसान संघों की मांगें- कर्ज राहत और लाभप्रद कीमतों की गारंटी- न सिर्फ उचित हैं बल्कि सुधारों की समग्र दिशा के अनुरूप भी हैं. मोदी सरकार को भारतीय किसानों की वास्तविक चिंताओं और संदेहों को अच्छी तरह दूर करने का ईमानदार प्रयास करना चाहिए, बजाय इसके कि वह दंभपूर्वक उन्हें सुधारों के बारे में ‘ज्ञान देने’ की कोशिश करे. भारतीय समाज में परस्पर विश्वास का भाव इतना कम हो चुका है कि आक्रोशित किसान सरकार के आश्वासन पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं कि सुधार उनके लिए बेहतर साबित होंगे. सुधारों की सफलता के लिए किसानों की शिकायतों की वैधता और उनकी मांगों की वास्तविकता, दोनों ही बातों को स्वीकार करना ज़रूरी है.
(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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