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Sunday, 28 April, 2024
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मोदी सरकार में संस्थानों का दुरुपयोग इंदिरा गांधी के 1971 के अधिनियम को मामूली अपराध जैसा बनाता है

मोदी-शैली की राजनीति में ईडी, राज्यपाल, रिटर्निंग अधिकारी, संक्षेप में राज्य के लगभग सभी संस्थानों को राजनीतिक विरोधियों के लिए जीवन को असंभव बनाने के लिए सेवा में लगाया जाता है.

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मोदी-शैली की राजनीति में ईडी, राज्यपाल, रिटर्निंग अधिकारी, संक्षेप में राज्य के लगभग सभी संस्थानों को राजनीतिक विरोधियों के लिए जीवन को असंभव बनाने के लिए सेवा में लगाया जाता है.

हिमाचल प्रदेश विधानसभा में राज्यसभा सीट के लिए मतदान पर नाटक ने एक बार फिर नरेंद्र मोदी सरकार की राजनीति करने के तरीके को उजागर कर दिया है: सत्ता पर कब्ज़ा करने और लोकतंत्र के नियमों को भीतर से नष्ट करने के लिए राज्य तंत्र का बेशर्म उपयोग.

भाजपा के पक्ष में मतदान करने वाले कांग्रेस विधायकों को कथित तौर पर भारत की केंद्रीय पुलिस सीआरपीएफ की सुरक्षा में रखा गया था.

सवाल: राज्यसभा चुनाव में सीआरपीएफ की संभवतः क्या भूमिका हो सकती है?

जवाब: मोदी-शैली की राजनीति में पुलिस, प्रवर्तन निदेशालय, राज्यपाल, रिटर्निंग अधिकारी, संक्षेप में राज्य के लगभग सभी संस्थानों को राजनीतिक विरोधियों की ज़िंदगी तबाह करने के लिए सेवा में लगाया जाता है.

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1975 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने चुनावी काम के लिए अपने निजी सचिव यशपाल कपूर (तब एक सरकारी कर्मचारी) की सेवाओं का उपयोग करने के लिए इंदिरा गांधी की 1971 में रायबरेली से जीत को अयोग्य घोषित कर दिया था. आज जब राजभवन, कानून प्रवर्तन एजेंसियां और पुलिस भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ तैनात हैं, तो इंदिरा गांधी का कृत्य महज़ एक मामूली यातायात अपराध प्रतीत होता है.


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वैकल्पिक शक्ति केंद्र

आइए देखें कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा राज्य या सरकारी सत्ता के माध्यम से कैसे राजनीति करती है. हिमाचल में कांग्रेस के पास बीजेपी से ज्यादा संख्या बल था. भाजपा ने कांग्रेस को तोड़ने के लिए तैयार किए गए एक उम्मीदवार को चुना, जो एक पूर्व कांग्रेसी था. फिर क्रॉस वोटिंग करने वाले कुछ कांग्रेस विधायकों को कथित तौर पर सीआरपीएफ और हरियाणा पुलिस के काफिले में भाजपा शासित हरियाणा के एक सरकारी गेस्ट हाउस में ले जाया गया. यह क्रॉस-वोटिंग करने वाले राजनेताओं का एक खेदजनक दृश्य था, जिनकी सुरक्षा भारत की केंद्रीय पुलिस द्वारा की जा रही थी.

पुलिस पहले भी बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई कर चुकी है. असम पुलिस ने कांग्रेस नेता जिग्नेश मेवाणी और पवन खेड़ा को गिरफ्तार किया है — मेवाणी को एक एक्स पर एक पोस्ट के लिए और खेड़ा को मोदी का नाम उछालने के लिए गिरफ्तार किया गया है. क्या विपक्षी राजनेताओं को सुरक्षा एजेंसियों की दया पर निर्भर रहना चाहिए? क्या अमेरिका में पुलिस राष्ट्रपति के खिलाफ बोलने पर राजनेताओं को गिरफ्तार करती है? ऐसा लगता है कि मोदी सरकार इस कहावत पर कायम है: L’etat c’est moi (मैं राष्ट्र हूं).

राज्यपालों को भी इसी तरह भाजपा के प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ सेवा में लगाया जाता है. गैर-भाजपा राज्यों में राजभवन वैकल्पिक सत्ता केंद्र के रूप में उभर रहे हैं. 2019 में अजित पवार गुट के एनसीपी से अलग होने के बाद महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने एक गुप्त समारोह में सुबह-सुबह भाजपा के देवेंद्र फडणवीस को सीएम पद की शपथ दिलाई. कोश्यारी ने यह जानने के लिए इंतज़ार नहीं किया कि क्या फडणवीस के पास पर्याप्त संख्या थी. बंगाल, तमिलनाडु और केरल में राज्यपाल सीवी आनंदा बोस, आरएन रवि और आरिफ मोहम्मद खान पर पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाने का आरोप लगाया गया है. रवि और खान के खिलाफ तमिलनाडु और केरल में विरोध प्रदर्शन हुए हैं. पिछले साल पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पंजाब के राज्यपाल द्वारा राज्य के विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को “आग से खेलने” और “सरकार के संसदीय स्वरूप को खतरे में डालने” के लिए फटकार लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन नरीमन ने सार्वजनिक रूप से केरल के राज्यपाल पर “पारंपरिक रूप से अल्पसंख्यक सरकार वाले राज्य” में “विधेयकों को दबाकर बैठे रहने” का भी आरोप लगाया था.


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संस्थाओं का दुरुपयोग

गैर-भाजपा सरकारों को गिराना या ‘ऑपरेशन लोटस’ राज्य सत्ता के दुरुपयोग का पर्याय है. इसका एक ताजा उदाहरण झारखंड का है. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के कुछ देर बाद ही हेमंत सोरेन को ईडी ने गिरफ्तार कर लिया, जिससे झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद गठबंधन सरकार संकट में आ गई. ऑपरेशन लोटस के डर से सत्तारूढ़ गठबंधन के विधायक कांग्रेस शासित हैदराबाद भाग गए.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को बार-बार ईडी का समन और दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा नियमित रूप से केंद्र शासित प्रदेश की चुनी हुई सरकार में खामियां निकालना, एक और उदाहरण है जो दिखाता है कि कैसे संवैधानिक संस्थाएं गैर-भाजपा नेताओं को कमजोर करने के लिए काम कर रही हैं.

विपक्ष के पास अक्सर बड़ी संख्या होने पर भी उसे अपनी ताकत साबित करने का समय नहीं दिया जाता है. 2017 में पूर्व भाजपा महिला मोर्चा प्रमुख और तत्कालीन गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने जल्दबाज़ी में बीजेपी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, भले ही उसके पास कांग्रेस से कम सीटें थीं. उसी साल कांग्रेस मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन राज्यपाल नज़मा हेपतुल्ला (एक अनुभवी कांग्रेसी महिला जो एक दशक पहले भाजपा में शामिल हो गई थीं) ने पहले भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जब नागा पीपुल्स फ्रंट के चार सदस्यों ने बीजेपी को अपना समर्थन देने की घोषणा की.

शासन, संवैधानिक पदाधिकारियों का मुख्य कर्तव्य, सत्ता के लिए भाजपा के कुछ भी करने के अभियान में अक्सर कम महत्व दिया जाता है. मध्य प्रदेश में 2020 में कोविड-19 महामारी के चरम पर, कांग्रेस की कमलनाथ के नेतृत्व वाली सरकार गिर गई और भाजपा के शिवराज सिंह चौहान को राज्यपाल और भाजपा के दिग्गज नेता लालजी टंडन ने चुपचाप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी.

संस्थाओं के दुरुपयोग के और भी उदाहरण हैं. राष्ट्रीय महिला आयोग जैसी वैधानिक संस्था को हिंसाग्रस्त मणिपुर में राष्ट्रपति शासन का आह्वान करने का कोई कारण नहीं मिलता है, लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा होता है, जहां एक उत्तरदायी राज्य सरकार संदेशखाली आरोपियों को गिरफ्तार कर रही है. विपक्ष को रोकने के लिए राज्य की सत्ता के हथियारीकरण का शायद सबसे स्पष्ट उदाहरण हाल ही में चंडीगढ़ मेयर का चुनाव था जिसमें रिटर्निंग ऑफिसर, अनिल मसीह, जो भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा के सदस्य हैं, को पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए मतपत्रों को विकृत करते हुए कैमरे में कैद किया गया था.


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मास्टरस्ट्रोक या रेड कार्ड

जब एक ही पार्टी सरकार के सभी लीवरों को नियंत्रित करती है और कोई तटस्थ अंपायर नहीं होता है, तो कोई समान अवसर नहीं होता है. यह एक फुटबॉल मैच की तरह है, जहां एक टीम फाउल पर फाउल करती है, लेकिन रेफरी केवल दूसरी टीम को लाल या पीला कार्ड दिखाता है. किसी भी खेल में खिलाड़ी और दर्शक कुछ नियमों को मानते हैं. अगर खेल खेले जाने के दौरान कोई एक टीम अचानक नियमों को बदलने की कोशिश करती है और खेल को कवर करने वाले मीडिया का एक वर्ग इसे दूसरे पक्ष को हराने के लिए “मास्टरस्ट्रोक” के रूप में देखता है तो क्या होता है? क्या जनता को नियमों में बदलाव का समर्थन करना चाहिए ताकि केवल एक ही टीम जीतती रहे?

हां, इंदिरा गांधी सरकार राजभवनों का उपयोग पक्षपातपूर्ण राजनीति करने के लिए करने के लिए जानी जाती थी – जैसे कि 1984 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल राम लाल द्वारा एनटी रामाराव को बर्खास्त करना, जिन्हें इंदिरा गांधी के “कठपुतली” के रूप में जाना जाता था.

लेकिन मोदी सरकार ने इन प्रवृत्तियों को चरम पर पहुंचा दिया है और इंदिरा के समय के विपरीत, आज मीडिया में कोई आक्रोश नहीं है. मोदी सरकार बहुदलीय प्रणाली के अस्तित्व को सक्षम बनाने वाली लोकतांत्रिक संरचना को कमजोर करने के लिए लोकतंत्र के उपकरणों का उपयोग करके सर्वशक्तिमान बनने की कोशिश कर रही है. उन्हें लाल कार्ड कौन दिखाएगा?

लेखिका पूर्व पत्रकार और ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा में निर्वाचित सांसद हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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