scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टमोदी सरकार पंजाब के किसानों के आंदोलन से लेकर पन्नू मामले तक को गलत तरीके से पेश कर रही है

मोदी सरकार पंजाब के किसानों के आंदोलन से लेकर पन्नू मामले तक को गलत तरीके से पेश कर रही है

न्यूयॉर्क की अदालत को लड़ाई का मैदान बनाने की बजाय पंजाब में विश्वसनीय राजनीतिक ताकतों (चाहे वे आपके प्रतिद्वंद्वी ही क्यों न हों) के साथ मिलकर काम करने से ही देश का ज्यादा भला होगा. 

Text Size:

यों तो स्थितियां अभी बदल रही हैं, लेकिन गुरपतवंत सिंह पन्नू के मसले के संदर्भ में भारत-अमेरिका संबंध के बारे में कुछ दूसरी बातें सुरक्षित (बेझिझक) तौर से कही जा सकती हैं.

एक तो यह कि दोनों पक्ष यह नहीं चाहते कि यह मसला बेकाबू हो जाए या भावनात्मक रूप ले ले. इसलिए दोनों पक्षों ने पूरी सावधानी बरती है कि तनाव न बढ़े. सो, दोनों ने विवादों से भावनात्मक पहलू को बाहर ही रखा है.

दूसरा, हर पक्ष दूसरे पक्ष के लिए पर्याप्त राजनीतिक और राजनयिक गुंजाइश छोड़ रहा है. भारत अमेरिका से आरोपों पर चिंता जाहिर कर रहा है, उन्हें फर्जी बताकर सीधे खारिज नहीं कर रहा है और उच्चस्तरीय जांच कराने का वादा कर रहा है. अमेरिका भारत से यह कहते हुए कि वह उसके कदम या प्रतिक्रिया का स्वागत करता है, कि जांच कराना एक सकारात्मक कदम होगा, और यह कि वह इस जांच के नतीजे का इंतजार करेगा.

और तीसरी बात, दोनों पक्ष अपनी ‘बेहद जरूरी रणनीतिक साझेदारी’ जश्न को लेकर, शिखर बैठकों और संयुक्त घोषणाओं के जरिए इस बात से अवगत हो चुके हैं कि अपने-अपने राष्ट्रहितों की वजह से उनकी अपनी-अपनी मजबूरियां भी पैदा होती हैं और कभी-कभी परस्पर विरोधी जरूरतें भी उभरती हैं. यह साझीदारी गहरी तो हो रही है, पर यह वैसी बनने से काफी दूर है जैसी खुफियागीरी के मामले में पांच देशों के बीच ‘फाइव आइज़’ नाम की साझेदारी है.

इतना कुछ कहने के बाद हम यह विश्वास करना चाहेंगे कि एक तरह के तनाव से छुटकारा मिलने वाला है.

मेरे लिए यह अनुमान लगाना ठीक नहीं होगा कि हमारे ‘रणबांकुरे’ टीवी समाचार चैनलों ने इस मसले की लगभग पूरी अनदेखी क्यों की है, जबकि यह उनके प्राइम टाइम वाले शोर-शराबे के लिए काफी आकर्षक मुद्दा हो सकता था.

वैसे, इस चुप्पी ने इतना तो किया है कि दोनों पक्षों को अपने आपसी संबंधों की रक्षा करने की राजनयिक गुंजाइश बनाई है. यह गुंजाइश और राहत हम भारत वालों और मोदी सरकार के लिए तो और भी मूल्यवान है. इसकी वजह यह है कि सिख उग्रवाद और अलगाववाद की ओर से चाहे जो भी चुनौती पेश आती हो, यह अमेरिका या कनाडा से ज्यादा भारत का सिरदर्द है.


यह भी पढे़ं : ‘अजित पवार की नजरें अब शरद पवार के गढ़ पर है’, बारामती में NCP बनाम NCP की लड़ाई देखने को मिल सकती है


स्वयंभू खालिस्तानी वहां जो भी कहते या करते हैं वह भारत में रोष और क्रोध को जन्म देता है. लेकिन इनमें से कोई भी कुछ भी बड़ी घटना कर सकता है वह भारत की जमीन पर और ज़्यादातर पंजाब में करेगा. और सिख समुदाय के भीतर करेगा. उनके खिलाफ लड़ाई विचारों और राजनीति की लड़ाई है और उसे यहीं लड़ने की जरूरत है. ब्रिटिश कोलंबिया या अमेरिका अथवा ब्रिटेन के किसी हिस्से में होने वाली किसी खटपट से भारत अगर परेशान होता है तो यह अदूरदर्शिता होगी.

जब हम शांत रहेंगे तभी हम उस घटनाक्रम पर विचार करने का समय निकाल सकेंगे, जिसने भारत-अमेरिका संबंधों को न्यूयॉर्क की आदालत में ला खड़ा किया. हमें अपने घोड़ों पर लगाम कसने की जरूरत है ताकि वे गहरी सांस ले सकें और हालात को समझ सकें.

हमने शुरुआत कहां से की थी, और यहां तक कैसे पहुंचे? क्या मैं यह कहने की हिम्मत कर सकता हूं कि पतन का यह सफर शायद दिल्ली में किसान आंदोलन के शुरुआती दिनों से लेकर न्यूयॉर्क की अदालत के कमरे तक का रहा है?

मैं यह भी कहना चाहूंगा कि मोदी सरकार ने किसान आंदोलन को शुरू से ही गलत समझा. इसके कारण कई गलत कदम उठाए गए और वह उस दिन लड़ाई हार गई जिस दिन उसने मजबूर होकर कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया था.
हमारा अभी भी मानना है कि वे कानून उन सुधारों के थे जिनकी भारत के और खासकर पंजाब के किसानों को जरूरत थी, जो सरप्लस पैदावार देते हैं. मोदी सरकार ने दबाव में उन क़ानूनों को वापस लिया जो कि एक बहुत बड़ी राष्ट्रीय क्षति थी. और मैं एक बार फिर कहूंगा कि मोदी सरकार ने उस आंदोलन को शुरू से ही गलत समझा, और इसी वजह से कई भूलें होती गईं.

पहली गलती यह हुई कि किसान आंदोलन को मुख्यतः उग्रवादी सिख धार्मिक भावना से प्रेरित मान लिया गया, जबकि तथ्य यह था कि शुरू में आंदोलन का पूरा नेतृत्व वामपंथी किसान संघों के हाथ में था.

पंजाब में आप खेलों के आयोजनों में भी धार्मिक प्रतीकों का प्रदर्शन पाते हैं, और शायद इस वजह से भाजपा में कई लोगों ने यह मान लिया कि इस आंदोलन के पीछे धार्मिक और अलगाववादी भावना काम कर रही है. यह इस तथ्य के बावजूद था कि नये नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन में शामिल जिन चेहरों से भाजपा परिचित थी वे किसान आंदोलन में भी दिख रहे थे और वे भी वामपंथी झुकाव वाले थे.

भाजपा ने इन विध्वंसक विरोधियों को घातक ‘औजारों’ से लैस पाया था. इसलिए वे वामपंथी संघों के नेताओं से कोई बात करने को तैयार नहीं थे. और धार्मिक नेतृत्व बात करने के लिए उपलब्ध नहीं था क्योंकि उसका कोई अस्तित्व था ही नहीं.
दूसरी गलती यह हुई कि यह मान लिया गया कि आंदोलनकारी लोग जल्दी ही थक जाएंगे, या ठंड, बरसात या गर्मी के कारण परेशान होकर लौट जाएंगे. यह पंजाबी (या सिख) संकल्प के बारे में पूरी तरह से गलत धारणा थी. भाजपा के पुराने नेताओं को पता होना चाहिए था कि सिखों ने इमरजेंसी का किस तरह एक के बाद एक कई जत्थों में गिरफ्तारी देकर प्रतिकार किया था. आरएसएस के कार्यकर्ताओं-समर्थकों आदि के साथ सिख (अकाली) ही सबसे बड़े समूह थे जो इंदिरा गांधी की जेलों में बंद थे.

भाजपा की समस्या शायद यह है कि उसमें अब पुराने लोगों को कोई महत्व नहीं दिया जाता, ‘मार्गदर्शक मण्डल’ से कोई मार्गदर्शन लेने तो शायद भूल से भी कोई नहीं जाता है. केंद्र सरकार ने हालात को बिगड़ने दिया और यह इंतजार करती रही कि आंदोलन पर थकान हावी होगी, लेकिन दिल्ली जाने वाले हाइवे पर आंदोलनकारियों की संख्या बढ़ती ही गई और ‘कंटेनरों’, ट्रॉलियों, तंबुओं की एक बस्ती जैसी बनती गई, जिनमें से कुछ में तो एयर कंडीशनर और टीवी से लैस थे.

भाजपा सरकार की तीसरी गलती यह थी कि उसने अपनी ओर से आंदोलनकारी नेताओं से बात करने के लिए किसी सिख/पंजाबी वार्ताकार को नहीं रखा. उसने पंजाब में अपने सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल से रिश्ता तोड़ लिया था, और वह वहां की कांग्रेस सरकार से बात करने को कभी राजी नहीं हो सकती थी. इस शून्यता को भरने के लिए तमाम तरह की ताक़तें सामने आ गईं, जिनमें पंजाबी पॉप स्टारों से लेकर विदेश में बसे सिख सोशल मीडिया चलाने वाले, ग्रेटा थनबर्ग और मिया खलीफा तक शामिल थे. इनमें से किसी का किसानों के मुद्दों में कोई दांव नहीं था, सिवाय रातोरात शोहरत कमाने का. इसी कोशिश में निज्जर और पन्नू भी कूद पड़े थे.


यह भी पढ़ें : भारत विरोधी तत्वों को शरण देने में अमेरिका कनाडा से अलग नहीं है, यह एक और 9/11 का कारण बन सकता है


अब मोदी सरकार के इस बैलेंस शीट को रेखांकित करने की जरूरत है. उसमें हर जगह आपको लाल निशान नजर आएंगे. वैश्विक जनमत में धारणाओं के बीच का संघर्ष वह हार गई है. और वह भले यह दावा करती हो कि वह पश्चिमी मीडिया या ‘एक्टिविस्ट्स’ की परवाह नहीं करती, मगर वह बुरी तरह परेशान तो होती ही रही है. पंजाब में उसने अपनी लोकप्रियता और ज्यादा गंवाई. उसने अपने पुराने सहयोगी, अकालियों को अपने से और दूर कर दिया. इसके साथ ही उसने सिखों को भी और नाराज कर दिया. अंततः उसने सभी बिलों को बिना शर्त वापस कर लिया.

किसान जीत कर लौटे, लेकिन पंजाब का राजनीतिक समीकरण बदल गया. सभी स्थापित पार्टियों से निराशा ने आम आदमी पार्टी को वहां सत्ता दिला दी. हाल के वर्षों में, भाजपा के चौबीसों घंटे राजनीतिक लड़ाई के तेवर ने उसे इस पार्टी के साथ हमेशा युद्ध की स्थिति में बनाए रखा है. भाजपा आज पंजाब में सबसे लोकप्रिय और विश्वसनीय राजनीतिक ताकत से निरंतर युद्ध की स्थिति में है.

ऐसा नहीं है कि भाजपा को पंजाब में सत्ता की कुंजी अपने पास रखने वाले सिख या ‘जट सिख’ नेताओं से अपनी दूरी के भारी नुकसान का एहसास नहीं है. इसलिए उसने कुछ नेताओं को कांग्रेस से आयात किया है, जिनमें कैप्टन अमरिंदर सिंह और पूर्व वित्तमंत्री मनप्रीत बादल प्रमुख हैं. लेकिन वे राज्य में अपनी पकड़ बनाने में विफल रहे हैं.

अब उसने मुक़ाबले को विदेश में स्थानांतरित कर दिया है और प्रचार के भूखे, महत्वहीन और शोर-मचाऊ निज्जरों व पन्नू जैसों से भिड़ गई है. ये लोग कभी-कभार कुछ मुश्किलें पैदा कर सकते हैं— जैसे निज्जर के मामले में, एकाध हत्याएं भी करवाई गईं— लेकिन ये खालिस्तान के नाम पर पंजाब में 5000 लोगों को भी इकट्ठा नहीं कर सकते. राज्य में हुई कुछ गड़बड़ी का प्रतिनिधित्व अमृतपाल सिंह ने भी किया. लेकिन उसकी गिरफ्तारी, और इसका कोई विरोध या हिंसा न होना यह साबित कर गया कि खुद वह और खालिस्तान का नारा कितना खोखला है.

इसने ऐसी एक समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया है, जिसका देश के अंदर कोई वजूद नहीं है.

इसलिए, जरूरत इस बात की है कि राज्य के ऊपर ध्यान दिया जाए. इस कॉलम में हम पहले भी लिख चुके हैं कि पंजाब में ठहराव, हताशा की भावना और आत्मविश्वास की कमी गहरी और व्यापक हो चुकी है. ड्रग्स, विदेश प्रवास, बंदूकबाज़ माफिया के साथ म्यूजिक का तामझाम पूरी स्थिति को जटिल बनाता है. पाकिस्तान की शह पर विदेश में सक्रिय उग्रवादी इसका फायदा उठा रहे हैं.

भाजपा को इसी ओर कदम उठाने की जरूरत है, भले ही पंजाबी लोग उसे वोट न देते हों. न्यूयॉर्क की अदालत को लड़ाई का मैदान बनाने की बजाय पंजाब में विश्वसनीय राजनीतिक ताकतों (चाहे वे आपके प्रतिद्वंद्वी ही क्यों न हों) के साथ मिलकर काम करने से ही देश का ज्यादा भला होगा.

(संपादन : इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढे़ं : उत्तरकाशी के बाद रैट-होल माइनर्स की धूम मची हुई है, पर वक्त आ गया है कि भारत उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करे


 

share & View comments