इस सप्ताह जहां लोकसभा ने मुक्त व्यापार और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के घोषित उद्देश्य से तीन नए कृषि बाजार और व्यापार विधेयकों को पारित किया. वहीं वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने विदेशी व्यापार (विकास एवं विनियमन) अधिनियम 1992 के तहत अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए भारत में उत्पादित प्याज की सभी किस्मों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया. महाराष्ट्र के किसानों ने तत्परता से इस निर्यात प्रतिबंध का विरोध किया, क्योंकि उन्हें थोक मूल्यों में तेज गिरावट और परिणामस्वरूप अपनी आमदनी में कमी की आशंका है. इस सप्ताह पंजाब और हरियाणा में विरोध प्रदर्शन भी जारी रहा, जहां किसान कृषि विधेयकों पर नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ खड़े हैं. जबकि दिल्ली में, केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने बिना किसी बदलाव के तीनों विधेयकों को पारित कराने के सरकार के फैसले के बाद गुरुवार को सरकार से इस्तीफा दे दिया.
ऐसे समय में जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था में और भविष्य में सतत आर्थिक विकास के लिए कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका को अधिकाधिक मान्यता मिल रही है, उपरोक्त पहलकदमियों और घटनाओं ने कृषि सुधार प्रक्रिया की विश्वसनीयता को कम किया है और एक बार फिर भारतीय कृषि को भंवर में, प्याज की तरह, छोड़ दिए जाने का खतरा बन गया है.
किसी भी गंभीर कृषि बाजार सुधार प्रक्रिया की विश्वसनीयता इस बात पर निर्भर करती है कि सरकारें – सभी स्तरों पर जटिल संस्थागत परिवर्तनों की योजना का निर्माण और कार्यान्वयन कैसे करती है और किस प्रकार इनसे जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर राजनीतिक सहमति बनाती हैं. एक ऐसे क्षेत्र में जो कि स्वाभाविक रूप से बहुत ही जटिल, विविध और प्रतिस्पर्धी है. इसके लिए स्पष्टता, वास्तविक जुड़ाव और संवेदनशीलता दिखाने तथा सहमति और समन्वय के लिए गंभीर प्रयासों की ज़रूरत है.
चुपके से किए जाने वाले सुधार या ‘बाईपास’ सुधार – वर्तमान विधायी रणनीति को दिया गया एक नाम- अंततः भारतीय किसानों को निराश ही करेंगे. बहुत हुआ तो भी मौजूदा कवायद अपेक्षाकृत अप्रभावी क्रमिक सुधार का एक और उदाहरण भर साबित होगी.
लेकिन संदेह बढ़ते जाने और विश्वास में कमी के कारण इस बात का वास्तविक खतरा बन गया है कि भारतीय कृषि क्षेत्र को और अधिक नियामक अस्पष्टता तथा आर्थिक अनिश्चितता के भंवर में छोड़ दिया जाएगा, जबकि किसानों को मौजूदा कृषि संस्थानों और प्रणालियों के आगे और अधिक कमजोर पड़ने के दुष्प्रभाव झेलने पड़ेंगे.
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कृषि बाज़ार में सुधार की राजनीति
सुधारों के विरोध को महज राजनीति बताकर खारिज करना एक बुनियादी सच्चाई से मुंह मोड़ने जैसा होगा. जमीन और खाद्य सुरक्षा, फसलों और वस्तुओं, उत्पादकों और उपभोक्ताओं, लेनदारों और देनदारों, बिचौलियों और सट्टेबाजों, श्रम और उद्योग, निवेश और उत्पाद, सब्सिडी और छूट, बुनियादी ढांचे तथा विनियमन और कराधान के साथ जुड़े होने के कारण कृषि बाजार सुधार निश्चय ही एक राजनीतिक विषय है.
वास्तव में, ऐतिहासिक रूप से, आर्थिक गतिविधियों के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जहां यह बात कृषि उत्पादों के विपणन और व्यापार की तुलना में कहीं अधिक स्पष्ट है और जहां, इतिहासकार ईपी थॉम्पसन के शब्दों में, ‘बाजार की खींचतान हमें राष्ट्रीय जीवनधारा की बीचोंबीच ला पटकती है.’ भारत में, यह जीवनधारा और ये खींचतान विविध कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों और मानव बस्तियों, राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियों और साथ ही पूंजी और वाणिज्य की स्थानीय, राष्ट्रीय एवं वैश्विक प्रणालियों के बीच परिवर्तनशील संबंधों में गहराई से अंतर्निहित हैं.
नए कृषि बाजार विधेयकों के खिलाफ भ्रम, चिंता और विरोध के विविध और मुखर होते स्वरों पर मोदी सरकार की प्रतिक्रिया कुल मिलाकर उन्हें पाखंडी, निराधार या गुमराह बताकर खारिज करने की है. सरकार का कहना है कि विधेयकों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और सरकारी खरीद की नीति से कोई लेना देना नहीं है. इसलिए पंजाब और हरियाणा के किसानों को घबराने की जरूरत नहीं है. इसी तरह सरकार का ये भी दावा है कि विधेयक के प्रावधान राज्यों के मौजूदा एपीएमसी (कृषि बाजार उत्पादन समिति) कानूनों या मंडियों को खारिज नहीं करते हैं; वे केवल उनकी शक्तियों का परिसीमन करते हैं तथा बाजार को प्रतिस्पर्धा एवं मंडी की हदों से बाहर करमुक्त विनिमय के लिए खोलने का काम करते हैं. सरकार ने इस बात पर भी बल दिया है कि विधेयकों में किसानों के हितों की रक्षा के लिए किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) का भी प्रावधान है और इसमें विवाद समाधान की व्यवस्था करने और किसानों के हितों की रक्षा पर भी ध्यान दिया गया है. तो फिर, इतना डर और विरोध क्यों?
किसानों की चिंता वास्तविक है
दुर्भाग्य से, कृषि संबंधी भारतीय कानून और नीतियां लंबे समय से विरोधाभासों से त्रस्त रहे हैं. इस सप्ताह प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध की घोषणा इस बात का नवीनतम उदाहरण है कि हमेशा ही सरकार के पास बाजारों में हस्तक्षेप करने के अनेक विकल्प मौजूद रहेंगे. सच्चाई यही है कि असल मंडियों और बाज़ारों, जिन पर करोड़ों प्राथमिक उत्पादक निर्भर करते हैं, में वास्तविक विकल्पों और मुक्त लेनदेन की स्वतंत्रता के अभाव में किसानों की आय दोगुनी करने के वायदे अभी वायदे ही बने हुए हैं. इस संदर्भ में, तथा ‘ऐतिहासिक’ और ‘क्रांतिकारी’ बताए जा रहे मौजूदा सुधारों के परिप्रेक्ष्य में, किसानों की चिंताओं को समझा जा सकता है कि इस समय जारी विधायी प्रक्रिया उनके लिए उपलब्ध मौजूदा सरकारी समर्थन, भले ही वो तुच्छ अपर्याप्त और अपूर्ण क्यों न हों, को कम या खत्म कर सकती है.
यह पंजाब और हरियाणा के संदर्भ में विशेष रूप से सही है, जहां दशकों से केंद्र और राज्य दोनों ने ही गेहूं और धान के लिए एमएसपी-आधारित एक व्यापक और सार्वभौमिक सरकारी खरीद व्यवस्था का समर्थन और बचाव किया है. साथ ही, ऐसा भी नहीं है कि ये राज्य, और उनके किसान भी, मौजूदा सरकारी खरीद प्रणाली की भारी आर्थिक, कृषि-पारिस्थितिक और राजनीतिक लागतों, और फसल विविधीकरण की तात्कालिक ज़रूरत से अनजान हैं. इस उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं. इस संबंध में कई गंभीर नीतिगति विकल्प उपलब्ध हैं और विभिन्न खरीद प्रणालियों के अनुभवों से भी लाभांवित हुआ जा सकता है.
लेकिन इन राज्यों में, एक विश्वसनीय समय सीमा और किसानों के लिए समन्वित समर्थन के साथ, कृषि सुधारों के लिए एक व्यापक ढांचा विकसित करने के वास्ते विश्वास पैदा किए जाने के बजाय, कृषि सुधारों के लिए स्थिति और अधिक विकट और अस्थिर हो गई है. भले ही कृषि क्षेत्र से संबंधित तीन नए विधेयकों में एमएसपी और सरकारी खरीद नीति से प्रत्यक्षत: जुड़े प्रावधान नहीं हैं, लेकिन समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की नीतियों के भविष्य पर विस्तृत चर्चा के बिना भारत के कृषि बाजारों से संबंधित बड़े राष्ट्रव्यापी सुधारों को लागू करने के प्रयासों को उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब इसके विभिन्न राज्यों की मौजूदा एपीएमसी मंडी प्रणाली तथा नियंत्रित और अनियंत्रित अन्य व्यापार केंद्रों (गांवों, मंडियों, हाटों, बाज़ारों) से संबंधित प्रभाव और निहितार्थ हों.
मंडियों की अहम भूमिका
जिन राज्यों में एपीएमसी मंडियां कार्यरत हैं, वहां के किसान, और यहां तक कि मंडी व्यापारी और बिचौलिए भी (बात महाराष्ट्र की हो या मध्य प्रदेश या कर्नाटक की), प्राथमिक उत्पादकों और बाजार में कदम रखने वाले नए लोगों की समस्याओं और शिकायतों की लंबी फेहरिस्त पेश करने में सबसे आगे मिलेंगे. लेकिन यह भी सच है, कि ये विनियमित बहु-खरीदार, बहु-उत्पाद, बहु-मौसमी स्थानीय बाज़ार कीमतें तय करने और लेनदेन से जुड़ी अन्य अनेक शर्तों (वजन और भुगतान समेत) के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. मुख्य रूप से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाले छोटे स्तर के किरदारों से निर्मित कृषि उत्पादन और विपणन व्यवस्था के संदर्भ में यह बात विशेष तौर पर लागू होती है. वास्तव में, अच्छी तरह से विनियमित प्राथमिक थोक बाजार न केवल एपीएमसी मंडियों की मौजूदगी वाले क्षेत्रों के लिए, बल्कि वैसे इलाकों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं जहां कि उनका अस्तित्व नहीं है.
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इसलिए नियामक परिदृश्य को ‘व्यापार क्षेत्रों’ (नए केंद्रीय कानून के तहत) और ‘बाजार क्षेत्रों’ (राज्यों के एपीएमसी कानूनों के तहत) में आगे और बांटने के बजाय, भारत को एक समग्र और लचीले नियामक ढांचे की आवश्यकता है जो किसानों को अनेक बाज़ार और माध्यम उपलब्ध कराने के साथ-साथ कीमतें तय करने, विनिमय और बिक्री के लिए विश्वसनीय और स्थानीय रूप से सुलभ मंचों को पर्याप्त प्राथमिकता देना सुनिश्चित कर सके. इसके लिए राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय कृषि निकायों की विस्तृत श्रृंखला के लिए पर्याप्त नियामक क्षमता और अधिकाधिक समर्थन की ज़रूरत होगी. सुधारों की परिकल्पना एपीएमसी मंडियों को राज्यों के नियंत्रण में छोड़ने, जबकि बाज़ार के ‘बाकी’ हिस्सों को केंद्रीय कानूनों और जिलाधिकारियों के तहत न्यूनतम नियमन में रखने की व्यवस्था पर केंद्रित नहीं हो सकती है.
कृषि क्षेत्र से संबंधित अध्यादेश, अब विधेयक, और जिनके जल्दी ही कानून बनने की संभावना है, भले ही राज्य-स्तरीय असमान और आंशिक सुधारों से जुड़ी वर्षों की हताशा का परिणाम हों, लेकिन कृषि बाजार सुधार प्रक्रिया की असल विश्वसनीयता राज्यों को बाईपास करने के साहसिक कदम मात्र से नहीं आएगी. यह इस बात पर निर्भर करेगी कि मोदी सरकार राज्यों की, उनकी खुद की दीर्घकालिक सुधार प्रक्रियाओं में, मदद के लिए कैसे विश्वास और अवसर – वर्तमान में पूरी तरह से गायब – निर्मित करती है, तथा जहां जरूरी हो वहां केंद्र-राज्य और अंतरराज्य समन्वय का एक मजबूत संस्थागत ढांचा उपलब्ध कराती है. इसके लिए राज्यों को भी बेहतर नेतृत्व और पहलकदमियों का प्रदर्शन करना होगा. ऐसा हुए बिना, एक बार फिर, सिर्फ भारत के किसान ही बाईपास किए जाएंगे.
(मेखला कृष्णमूर्ति सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में वरिष्ठ अध्येता और स्टेट कैपेसिटी इनिशिएटिव की निदेशक, तथा अशोका विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
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