यह किसी उथल-पुथल वाले मालिक का नौकर होना आसान नहीं है. जब यह खुलासा हुआ—वह भी नरेंद्र मोदी सरकार ने नहीं बल्कि रॉयटर्स ने—भारत ने स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनियों से कहा था कि वे संचार साथी ऐप को पहले से लोड करें, जो अधिकारियों को यूज़र्स को ट्रैक करने की अनुमति देता है, तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध शुरू हो गया. कल्पना करना आसान है कि तानाशाही सरकारें अपने नागरिकों पर नज़र रखती हैं. लेकिन यह सोचना बहुत मुश्किल है कि लोकतांत्रिक समाज भी ऐसी चीज़ को स्वीकार कर लेंगे.
संचार साथी ऐप जनवरी से उपलब्ध था. लेकिन यह समझना मुश्किल था कि सरकार ने अचानक नागरिकों को इसे इस्तेमाल करने के लिए मजबूर क्यों किया. इससे भी बुरी बात यह थी कि उसने यह सब गुपचुप तरीके से किया. इस तरह के अभूतपूर्व कदम से पहले जिस तरह की बातचीत या सलाह-मशविरा होना चाहिए था, उसकी पूरी तरह से कमी थी. आदेश सीधे मोबाइल फोन कंपनियों को भेज दिया गया. बस. कोई सार्वजनिक घोषणा नहीं हुई. हमें में से किसी को नहीं बताया गया कि हमें अपने फोन में यह ऐप रखना पड़ेगा. अगर हमारे फोन इस आदेश से पहले खरीदे गए थे, तो सिस्टम अपडेट के जरिए यह ऐप हमारे फोन में डाला जाना था.
इतने गुप्त तरीके से उठाए गए कदम को कौन सही ठहरा सकता था.
पता चला, कई लोग कर सकते थे.
चेयरलीडर तुरंत सक्रिय हो गए
रॉयटर्स की खबर के बाद जनता में नाराज़गी फैल गई. क्या यह नागरिकों पर नज़र रखने की कोशिश थी. यह ऐप सरकार को क्या-क्या करने की अनुमति देता था. (यूज़र्स से मांगी गई परमिशन्स को देखकर, बहुत कुछ, ऐसा लगता था.)
फिर भी, जब घबराई हुई सरकारी पीआर मशीन ने अपने समर्थकों को फोन किया, तो कई लोग तुरंत सक्रिय हो गए और सरकार के कदम का बचाव करने लगे.
बहाने वही थे, और बहाने देने वाले भी वही. ‘ऐसे दखल देने वाले ऐप को स्वीकार करने में क्या दिक्कत है. क्या हमें पता नहीं कि बाकी कमर्शियल ऐप्स पहले से ही हमारी निजी जानकारी तक पहुंच रखते हैं.’ (यह तथ्य कि कमर्शियल ऐप्स हमारी अनुमति से चलते हैं, जबकि सरकार यह ऐप नागरिकों पर थोप रही थी, उनका कोई मतलब नहीं था.) ‘सरकारी ऐप को हमारी जानकारी तक कोई पहुंच नहीं होगी.’ (उन्हें यह कैसे पता. क्योंकि उन्हें—आपने सही सोचा—सरकारी सूत्रों ने बताया था.)
हमें भरोसा दिलाया गया, ‘सरकार तो बस हमें धोखाधड़ी से बचाना चाहती है.’
तो फिर सरकार ने यह कदम बिना हमसे पूछे, बिना हमारी सहमति के क्यों उठाया. वह छिपकर मोबाइल कंपनियों को क्यों बता रही थी कि वे ऐप फोन में डाल दें ताकि उसके हमारे फोन में आने के बाद हम कुछ कर ही न सकें.
इन सवालों के कोई साफ जवाब नहीं थे.
आखिरकार, इस कदम के बचाव में लोग देशभक्ति के हवाले पर उतर आए, जो चापलूसों का आखिरी सहारा होता है. उनका कहना था कि लोग सिर्फ इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि यह भारतीय ऐप है. जो लोग आलोचना कर रहे थे, वे विदेशी कंपनियों को अपनी जानकारी देने में खुशी महसूस करते हैं लेकिन भारतीयों को वही जानकारी देने से उन्हें आपत्ति है.
मैं यह नहीं कहता कि सरकार द्वारा हमारी प्राइवेसी के साथ की गई इस ज्यादती का समर्थन करने वाले सभी लोग बेईमान थे. शायद कुछ लोग सच में इस बेतुकी बात पर विश्वास करते हों. शायद सालों की प्रैक्टिस ने उन्हें ऐसे हालात में तुरंत सरकार की तारीफ करने का आदी बना दिया था.
लेकिन एक बात में कोई शक नहीं. जो भी इस कदम की तारीफ कर रहे थे, वे मानकर चल रहे थे कि मोदी सरकार का फैसला पक्का है. वापस जाने का कोई मौका नहीं. उन्हें लगा था कि कितनी भी तर्कसंगत बातें की जाएं, सरकार इस तरीके से फोन ट्रैक करने के फैसले पर पीछे नहीं हटेगी. यह सरकार कभी वापस नहीं हटती, ऐसा उनका विश्वास था.
लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, सरकार ने जनविरोध शुरू होने के 24 घंटे के अंदर ही पीछे हटने का फैसला कर लिया.
वह विरोध के आगे क्यों झुकी. इसका कोई पक्का जवाब नहीं है, लेकिन मुझे तब लगा कि सरकार पीछे हट सकती है जब एक ही मंत्री को सारी आलोचना संभालने के लिए भेजा गया. इस सरकार में फैसले बहुत केंद्रीकृत रूप से होते हैं, इसलिए यह बेहद असंभव था कि शीर्ष नेतृत्व ने बिना अनुमति के ऐसा कदम उठाया हो. फिर भी नेताओं ने चुप रहकर एक मंत्रालय को सारे सवाल झेलने के लिए छोड़ दिया.
अगले दिन, जब ज़्यादातर अखबारों ने इस कदम के खिलाफ़ ज़ोरदार आवाज़ उठाई, तो मुझे लगा कि यह फैसला अब टिक नहीं पाएगा.
और सच में, ऑफिशियल पोजीशन “यह नागरिकों की सुरक्षा के लिए बनाया गया एक शानदार कदम है” (सरकार के सपोर्टर्स को भी यही स्टैंड लेने के लिए कहा गया था) से बदलकर “नहीं, नहीं, हमने कभी नहीं कहा कि आप ऐप डिलीट नहीं कर सकते” (शुरुआती कम्युनिकेशन में कहा गया था कि ऐप हटाया नहीं जा सकता) से “ठीक है, हम मैन्युफैक्चरर्स से इसे फोन में प्रीलोड करने के लिए नहीं कहेंगे” हो गई.
एक छोटी सी जीत
इस यू-टर्न की वजह क्या थी. एक्स पर, जहां हममें से कई लोगों ने इस ऐप को जबरन थोपने पर नाराज़गी जताई थी, हम खुद को इसका श्रेय देना पसंद करते हैं कि हमने सरकार को पीछे हटने पर मजबूर किया. शायद हम सही हों, और अगर ऐसा है, तो यह मध्यवर्ग की आलोचनाओं के प्रति इस सरकार की जिद की आदत के बीच एक दुर्लभ जीत है. (सरकार वोटर समूहों के विरोध पर ज्यादा ध्यान देती है, जैसा कि किसान कानूनों पर उसके पलटने से साबित हुआ था.)
या फिर हो सकता है कि यह यू-टर्न सोशल मीडिया विरोध के कारण न हुआ हो. कई फोन कंपनियों ने मीडिया को बताया था कि सरकार के आदेश का पालन करना लगभग असंभव होगा. सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इनमें से एक कंपनी एप्पल थी. इस समय सरकार एप्पल से लड़ाई मोल नहीं ले सकती, खासकर जब वह इस बड़ी कंपनी को भारत में निर्माण करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है और एप्पल की कोई भी नकारात्मक प्रतिक्रिया ट्रंप प्रशासन में भारत के आलोचकों के हाथ मजबूत कर सकती है.
जितना मुश्किल यह जानना है कि यू-टर्न का आदेश किसने दिया, उतना ही मुश्किल यह समझना है कि पहली बार किसने सोचा कि यह ऐप हम सब पर जबरन थोपना एक अच्छा विचार है.
लेकिन इस पूरे मामले का विपक्षियों के लिए संदेश साफ होगा: जोरदार विरोध करो, क्योंकि इस सरकार को अपनी नीति बदलने पर मजबूर किया जा सकता है.
और उन दुर्भाग्यशाली समर्थकों के लिए, जिन्हें सरकार के इस कदम से पीछे हटने के बाद अब मूर्ख जैसा दिखाया गया है, जबकि उन्होंने पूरे मन से इस बदनाम नीति का बचाव किया था, संदेश बिल्कुल अलग होगा: किसी भी कदम का समर्थन करने से पहले अच्छी तरह सोचो.
किसी भी तरह, यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पल साबित हो सकता है.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: भारत की खुफिया एजेंसियां भले आलोचना झेलती हों, लेकिन आतंक से निपटने में वही देश की असली ढाल हैं
