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Thursday, 12 September, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार '3-C' के जाल में फंस गई है, इससे बाहर निकलने के लिए उसे चौथे C 'कन्सेंसस' का सहारा लेना पड़ेगा

मोदी सरकार ‘3-C’ के जाल में फंस गई है, इससे बाहर निकलने के लिए उसे चौथे C ‘कन्सेंसस’ का सहारा लेना पड़ेगा

मोदी सरकार जबकि जनगणना करवाने की तैयारी कर रही है, हम जाति, गठबंधन, संविधान के मुद्दों से बनी नयी वास्तविकता की जांच कर रहे हैं. एक दशक तक तो ‘मोदी मशीन’ अपनी रौ में इन तीनों की उपेक्षा करती रही लेकिन पिछले चुनाव ने सब बदला डाला.

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इधर हमारी राष्ट्रीय सुर्खियों में अंग्रेजी के ‘सी’ अक्षर से शुरू होने वाला जो एक शब्द काफी चर्चा में आया वह है— ‘सेंसस’ यानी जनगणना, जबकि यह एक नियमित प्रक्रिया होनी चाहिए थी. वैसे, अब तक हम यह तो जान ही चुके हैं कि हमारा जो राजनीतिक इतिहास है उसमें यह एक ऐसा दौर रहा है जब खासकर नियमित प्रक्रियाओं की कोई परवाह नहीं की जाती रही है. पिछले एक दशक में कई पुराने नियमों का पुनः आविष्कार किया गया है, तो कुछ नियमों को दफन किया गया है, और कई को कोल्ड स्टोरेज में डाल दिया गया.

इन नियमों में एक है हर एक दस वर्ष पर जनगणना करवाने का नियम. खबर है कि मोदी सरकार नियमानुसार 2021 में करवाई जाने वाली जनगणना अब करवाने की तैयारी कर रही है. इस खबर के मद्देनजर हमें एक व्यापक वास्तविकता की जांच करने की जरूरत महसूस हो रही है. यह व्यापक वास्तविकता अंग्रेजी के ‘सी’ अक्षर से ही शुरू होने वाले तीन और शब्दों से संबंधित है. अगर मोदी की इस सरकार को मोदी-3.0 कहें, तो इसे ‘थ्री सी’ का फंदा कह सकते हैं. इस फंदे की अहमियत का पहला संकेत यह है कि अंततः जनगणना की तैयारी की जा रही है.

यह ‘थ्री सी’ बेशक ‘कास्ट’ (जाति), ‘कोलीशन’ (गठबंधन), और ‘कॉन्स्टीट्यूशन’ (संविधान) से बनता है. एक दशक तक तो ‘मोदी मशीन’ अपनी रौ में इन तीनों को अनदेखा करती रही. हिंदी पट्टी की जाति आधारित पार्टियों को नष्ट कर दिया गया था और नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष को पिछड़ी (ओबीसी) तथा निचली जातियों के प्रति भाजपा की प्रतिबद्धता का प्रमाण बताया जा रहा था.

भाजपा ने बड़ी संख्या में ओबीसी उम्मीदवार खड़े किए, जिससे देश को एक ओबीसी प्रधानमंत्री, एक दलित राष्ट्रपति और उसके बाद एक जनजातीय राष्ट्रपति मिले. काँग्रेस ने भारत के गैर-कुलीन तबकों को कभी केवल एक दशक के अंदर इतना व्यापक और शक्तिशाली प्रतिनिधित्व नहीं दिया था. मोदी युग की भाजपा ने जाति और निचले वर्गों के मसलों को अपने चुनावी बक्से में बंद कर दिया. लेकिन वह मोदी युग अब वजूद में नहीं है.

जाति की ओर वापसी को समझना है तो देखिए कि उच्च प्रशासनिक सेवाओं में ‘लेटरल इंट्री’ यानी सीधी नियुक्ति के चलन को रद्द करने का फैसला किस तेजी से किया गया. इस चलन के तहत पिछले पांच वर्षों में 63 अफसरों को नियुक्त किया गया. इनका कोई विरोध हुआ हो तो उसकी पूरी उपेक्षा की गई.

लेकिन अब, विपक्षी नेताओं, खासकर राहुल गांधी की कुछ ट्वीटों के बाद ही ऐसी नियुक्तियों पर फौरन रोक लगा दी गई. भाजपा के विचारकों का निष्कर्ष है कि पिछले चुनावों में पार्टी को उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में जो झटके लगे उसकी मुख्य वजह यह थी कि अनुसूचित/पिछड़ी जातियों के वोटों का जो पुराना, व्यापक गठजोड़ है वह फिर से मुस्लिम वोटों के साथ आ मिला.

मुसलमानों के मामले में तो भाजपा न कुछ कर सकती है और न कुछ करेगी. वैसे, आपने देखा होगा कि उसके प्रमुख नेता, खासकर उसके मुख्यमंत्रियों ने उनके ऊपर हमले इस उम्मीद में और तेज कर दिए हैं कि इससे तमाम हिंदू उसके बड़े तंबू के नीचे इकट्ठे हो जाएंगे. भाजपा यह कभी नहीं चाहेगी कि उभरता विपक्ष इस मुद्दे को उछाल कर और मजबूत बने कि भाजपा और हिंदुत्ववादी तत्व केवल ऊंची जातियों के कुलीन तबकों को खुश करना चाहती है, यानी सभी हिंदुओं को नहीं.

‘सीधी नियुक्ति’ का चलन वापस लौटेगा लेकिन पूर्व-निर्धारित कोटे के तहत. इससे इसका मकसद ही बेमानी हो जाएगा और ‘सोच-विचार करके चुनने’ का वह विकल्प खत्म हो जाएगा जिसका इस्तेमाल काँग्रेस, गैर-भाजपाई गठबंधनों और जनता सरकार (1977-79) तक ने किया था.

लेकिन अब इसे इतना लांछित कर दिया गया है कि बाहर से किसी को वित्त सचिव के पद पर नियुक्त करना भी असंभव हो गया है, जैसा कि पी.वी. नरसिंहराव की अल्पमत वाली सरकार ने मोंटेक सिंह अहलूवालिया के मामले में किया था. भाजपा जाति के उबलते दूध से इतनी जल चुकी है कि वह इसके बर्तन को दस्ताने वाले हाथों से भी छूने को राजी नहीं होगी.

इसलिए, जनगणना के मामले में प्रगति पर गहरी नजर रखने की जरूरत होगी. हमारी दशकीय जनगणना का सिलसिला 1881 में शुरू हुआ और यह हर दस साल पर करवाई जाती रही. 1941 में विश्वयुद्ध के कारण यह नहीं हो पाई. 2021 में कोविड की दूसरी लहर के कारण इसे टाल दिया गया.

वैसे, तथ्य यह है कि कोविड के हमले के पहले जनगणना मशीनरी को तैयार नहीं किया जा रहा था. व्यापक धारणा यह है कि मोदी सरकार समय काटना चाहती थी. आम चुनाव के करीब 10 महीने पहले सरकार ने नए ‘जनगणना भवन’ का काफी शोरशराबे के साथ उदघाटन किया. इस भवन को आप नयी दिल्ली की मानसिंह रोड पर मशहूर ताज महल होटल के पास देख सकते हैं. यह नया फ़ैन्सी ‘भवन’ तो तैयार हो रहा था मगर जनगणना कब शुरू होगी इसकी कोई भनक नहीं लग रही थी.

व्यापक तौर पर यह स्वीकार कर लिया गया था कि भाजपा ब्रिटिश काल की दशकीय जनगणना की परंपरा को जारी रखने के पक्ष में नहीं थी. वह किसी उपयुक्त समय का इंतजार कर सकती है. उसके लिए उपयुक्त समय वह था जब संसदीय चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन की अगली समयसीमा पूरी हो रही हो.

अलग-अलग राज्यों, खासकर तटवर्ती राज्यों में और आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील राज्यों तथा हिंदी पट्टी वाले राज्यों में जनसंख्या वृद्धि के स्वरूपों में भारी अंतर की वजह से परिसीमन को इतना विभाजनकारी मामला माना जाता है कि कोई उसे छूना नहीं चाहता. परिसीमन जब भी होगा, ज्यादा जन्मदर वाले राज्यों के हिस्से बढ़ जाएंगे और जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगाने में गंभीरता बरतने वाले राज्यों के हिस्से घट जाएंगे. इससे अस्थिरता, क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता, और केंद्र से दूर हटने के दबाव बढ़ेंगे.

यही वजह है कि तमाम सरकारें इस मसले से कन्नी काटती रही हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आखिरी ऐसे सरकार थी. 2001 में उनकी सरकार ने ऐसा संविधान संशोधन पेश किया जिसके बाद परिसीमन को 25 साल के लिए टाल दिया गया. इसके बाद इसे जनगणना के बाद यानी 2026 में किया जाना था. संभव है कि भाजपा तीसरी बार बहुमत में आने और चौथी बार इस दिशा में बढ़ने का इंतजार करना पसंद करती. यह इंतजार इस साल 4 जून को खत्म हो गया.
राजनीतिक रूप से खतरनाक परिसीमन पर ज़ोर देना अब कोई विकल्प नहीं रह गया है. इसलिए जनगणना को अनंत काल तक टालने और खासकर संसद में परेशान करने वाले सवालों का सामना करने का कोई मतलब नहीं है. संसद के पिछले सत्र में राहुल गांधी ने दावा किया था कि वे इसी संसद के तहत जातीय जनगणना करवाकर रहेंगे. और भाजपा लंबे समय से अटकी 2021 की जनगणना की कोई बात नहीं कर रही थी. लेकिन यह अब राजनीतिक रूप से मुफीद नहीं रह गया है. सो, आश्चर्य नहीं कि आपके पास जनगणना के जो पर्चे आएंगे उनमें एक सवाल जाति से संबंधित भी हो. ऐसा नहीं हुआ तो मुझे आश्चर्य होगा. यह राहुल गांधी और उनके सहयोगियों के हाथों एक बाजी हारने के बराबर होगा. सिक्के का दूसरा पहलू यह होगा कि मुख्य विपक्ष का एक हथियार नाकाम हो जाएगा.

अंग्रेजी के ‘सी’ अक्षर से शुरू होने वाले बाकी दो शब्द पहले शब्द से ही जुड़े हैं. जाति वाले मसले के दबाव ने भाजपा के सहयोगी दलों को ‘सीधी नियुक्ति’ के मामले को लेकर चौकन्ना कर दिया. उदाहरण के लिए, बिहार के उसके दो सहयोगी दल जिस केंद्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं वह सरकार अगर आरक्षण को किसी प्रकार से कमजोर करती दिखेगी तो अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में इन दलों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा. उधर महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की शिव सेना भले खामोश हो, मगर लोकसभ चुनाव में भारी चोट खाने के बाद से शिंदे काफी परेशान हैं.

अंत में, संविधान की बात. इस नये यथार्थ को प्रधानमंत्री तब कबूल करते दिखे जब वे इस लोकसभा की पहली बैठक से पहले संविधान के आगे नतमस्तक हुए. चुनाव अभियान के दौरान तो ‘400 पार’ का लक्ष्य हासिल करते ही बड़े-बड़े संविधान संशोधन करने के वादे किए जा रहे थे. दूसरों के अलावा, अयोध्या से भाजपा के उम्मीदवार भी ऐसे दावे कर रहे थे. यह बहस भी चलाई जा रही थी कि सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों वाली संविधान पीठ ने संविधान के बुनियादी ढांचे की जो परिभाषा दी है और उसे अलंघ्य बताया है, वह क्या अब ‘प्रासंगिक’ रह भी गया है? वंचित जातियों तथा वर्गों ने इस तमाम बहस आरक्षण के प्रावधान पर हमला माना. विपक्ष ने बेशक इसे खूब हवा दी, और वह ऐसा क्यों न करता?

इसका फल यह हुआ है कि संविधान को एक ऐसे ग्रंथ का दर्जा दे दिया गया है जिसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता, हालांकि यह ऐसा कभी नहीं था. अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीति में बदलाव के साथ समय-समय पर इसमें संशोधन की जरूरत पड़ती है. अब तक इसमें 106 संशोधन हो भी चुके हैं.

इनका इतिहास आपको बताएगा कि अधिकतर संशोधन व्यापक सहमति के बाद किए गए, जिनमें विपक्ष के कुछ हिस्से का समर्थन भी हासिल किया गया. मोदी सरकार का तीसरा अवतार क्या इसके लिए राजी है? आम सहमति के बिना वह संविधान को छूना भी नहीं चाहेगी. इसलिए, अंतिम बात यह है कि ‘सी’ अक्षर से शुरू होने वाले उपरोक्त तीनों शब्द भाजपा को इससे शुरू होने वाले चौथे शब्द ‘कन्सेन्सस’ (आम सहमति) की ओर ले जाएंगे. अगर वह इसे कबूलने को राजी नहीं होगी तो इससे उसके शासन को झटका लगेगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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