प्रधानमंत्री ने इस ओर ध्यान खींचा है कि भारत में केवल 1.5 करोड़ लोग आयकर देते हैं. उनकी शिकायत वाजिब है, क्योंकि इससे ज्यादा संख्या तो उन लोगों की है जो एक साल में दोपहिया खरीदते हैं. दोपहिया वाहनों की कुल संख्या 18 करोड़ है. सबसे सस्ता स्कूटर भी 50,000 रुपये में आता है और इसके ज्यादा लोकप्रिय मॉडल 65,000 के आसपास में आते हैं. इसलिए यह अपेक्षा गैरवाजिब नहीं है कि एक स्कूटर या मोटरबाइक खरीदने लायक कमाई करने वाला आयकर भरे. लेकिन दुर्भाग्य से केवल इसके 10 से भी कम प्रतिशत लोग आयकर भरते हैं.
इसलिए, मोदी की शिकायत जायज है. लेकिन यह शिकायत करने वाले वे सही व्यक्ति नहीं माने जा सकते. आयकर भरने वालों की छोटी संख्या के लिए मोदी नागरिकों को तो दोषी ठहराते हैं और उन्हें ईमानदारी से कर अदा करने की नसीहत देते हैं लेकिन उन्हें खुद को और 2019 के अपने वित्त मंत्री को भी जिम्मेदार बताना चाहिए जिन्होंने उस साल लोकसभा चुनाव से पहले उन सबको आयकर से पूरी छूट दे दी जिनकी सालाना आमदनी 5 लाख रुपये तक थी. इसके कारण तीन चौथाई करदाता आयकर की सीमा से बाहर हो गए. चुनाव से पहले इस तरह की घोषणाएं तो ठीक हैं मगर मोदी को एहसास होना चाहिए कि करदाताओं की संख्या 6 करोड़ से घटाकर 1.5 करोड़ करने का फैसला उनका ही था.
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इस मामले में दूसरे देशों की जो स्थिति है उससे तुलना आंखें खोल सकती है. अमेरिका में जिस व्यक्ति की सालाना आमदनी 12,000 डॉलर पहुंचती है, वह आयकर देने लगता है. यह आमदनी व्यक्ति के लिए निर्धारित गरीबी रेखा के लगभग समानांतर है. जोड़ी अगर मिलकर रिटर्न भर्ती है तो उसकी आमदनी पर तभी कर लगेगा जब वह इसकी दोगुनी हो. महत्वपूर्ण बात यह है कि चार व्यक्ति के परिवार को आयकर तभी लगने लगेगा जब उसकी आमदनी 250000 डॉलर होगी, जो कि किसी परिवार के लिए गरीबी रेखा है. इन आंकड़ों के साथ तार्किकता जुड़ी है. अंतर्निहित सिद्धान्त यह है कि जैसे ही आप गरीबी रेखा से ऊपर उठते हैं, आपको कर देना पड़ता है. यही नियम ब्रिटेन में भी है. वहां गरीबी की कई परिभाषाएं हैं और आयकर गरीबी रेखा के बराबर की आमदनी यानी 12000 डॉलर होते ही लगने लगता है.
इसके बरअक्स भारत में आयकर आमदनी के जिस स्तर पर लगना शुरू होता है वह किसी परिवार के लिए निर्धारित गरीबी रेखा वाली आय का कई गुना ज्यादा है. चार लोगों के औसत परिवार को सालाना 2.5 लाख रु. की आमदनी पर आयकर शुरू हो जाता है. यह स्थिति एक साल पहले तक थी, जब इसे बढ़ाकर 5 लाख रु. किया गया. इसलिए पहली समस्या करदाता नहीं है; बल्कि करों से संबंधित नियम-कानून हैं, जिनके तहत कर काफी ऊंची आमदनी पर लगना शुरू होता है. अगर इस सीमा को घटाकर पिछले स्तर पर लाया जाए तो करदाताओं की संख्या चार गुना बढ़ जाएगी.
समस्या करों की दरों को लेकर भी है. भारत में दरें 5 प्रतिशत से शुरू होती हैं, ब्रिटेन में सबसे नीची दर 20 प्रतिशत है. अमेरिका में यह फेडरल लेवल पर 10 प्रतिशत है, जबकि राज्यों में अलग-अलग दरें हैं. भारत में ताज़ा नियमों के अनुसार, आपको 20 प्रतिशत की दर से आयकर तब लगेगा जब आपकी आय 10 लाख रु. हो यानी चार व्यक्ति के औसत परिवार की सालाना आय की चार गुनी. हकीकत यह है कि भारत में कर बहुत ऊंची आय पर लगना शुरू होता है और बेहद कम दरों पर लगता है.
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ऐसा लगता है कि सरकार टैक्स रिटर्नो की जांच संबंधित व्यक्ति के खर्चों— मसलन विदेश यात्रा, वाहन के स्वामित्व, बिजली खपत आदि— और बचत के रुझानों से मिला कर नहीं करती रही है. बड़ी लेन-देन में स्थायी आयकर नंबर देना जरूरी होता है इसलिए इस क्रॉसचेकिंग से कर चोरी करने वालों को पकड़ा जा सकता है. यह सही है कि नोटबंदी और दूसरे उपायों के कारण रिटर्न भरने वालों की तादाद तेजी से बढ़ी, लेकिन कुल स्थिति निराशाजनक ही दिखती है.
इसलिए, प्रधानमंत्री ने जो कहा वह सच है, लेकिन समस्या को उनकी ही सरकार ने बढ़ाया है. और हालात को बदलना भी उसके ही हाथ में है, बशर्ते वह मुखर मध्यवर्ग से उभरती विरोध की आवाज़ों का सामना करने की तैयारी रखती हो.
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