लद्दाख में चीनियों के ‘धरने’ को 100 से ज्यादा दिन हो चुके हैं, कोरोनावायरस को तांडव करते 6 महीने होने जा रहे हैं, और आर्थिक गिरावट लगातार चौथे साल भी जारी है. और जाहिर है कि नरेंद्र मोदी के आलोचक काफी परेशान हैं. आखिर इतनी परेशानियां झेलने के बावजूद लोग मोदी के खिलाफ क्यों नहीं हो रहे? क्या वे कष्ट में नहीं हैं? क्या मोदी ने उन सब पर कोई जादू कर दिया है, कोई काला जादू कि इतने सारे लोग उन पर अविश्वास करना भूल चुके हैं? वैसे, काला जादू की बात हम लोग इन दिनों किसी और संदर्भ में, एक फिल्म स्टार की मौत और उसकी गर्लफ्रेंड के संदर्भ में सुन रहे हैं.
लेकिन ऐसा कोई जादू-वादू नहीं चल रहा है. भारतीय राजनीति ऐसी ही है. लोगों से पूछ लीजिए, क्या वे कष्ट में हैं? वे जवाब देंगे, हां तकलीफ में तो हैं. तो क्या इसके लिए आप मोदी को जिम्मेदार मानते हैं? याद कीजिए, महीनों पहले हजारों मील दूर अपने घर के लिए पैदल ही निकल पड़े, बुरी तरह परेशान प्रवासी मजदूर क्या कह रहे थे कि ‘मोदीजी क्या करते? उन्होंने लोगों की जान बचाने के लिए जोखिम उठाया.’
इसी तरह की बातें चीन, और आर्थिक संकट के बारे में सुनने को मिलेंगी. ‘70 वर्ष की गड़बड़ियों को ठीक करने में समय तो लगता ही है. कांग्रेस एक कमजोर सेना छोड़कर गई. पहले भ्रष्टाचार से ही तो लड़ना था!’ कोरोनावायरस? ‘अरे उन्होंने भारी जोखिम और मूल्य चुकाते हुए समय पर लॉकडाउन लगा दिया; उन्होंने बोरिस जॉनसन या डोनाल्ड ट्रंप या जाइर बोलसोनारों की तरह महामारी को हल्के में नहीं लिया बल्कि मास्क और सोशल डिस्टेन्सिंग का खूब प्रचार किया. अब वे क्या करें अगर यह दुष्ट वायरस उनकी नहीं सुन रहा?’
अगर आप मोदी के आलोचक हैं तो मुझे पता है कि मैं यह सब कह के आपको और परेशान कर रहा हूं. लेकिन असली बात यही है. ठेठ राजनीति को समझने के लिए आपको हकीकत को कबूल करना पड़ेगा, चाहे वह कितनी भी रूखी क्यों न हो. ‘इंडिया टुडे’ के ताज़ा ‘देश का मिज़ाज’ सर्वेक्षण में आप हजारों गलतियां निकाल सकते हैं, फिर भी इसका अब तक का रेकॉर्ड अच्छा ही रहा है. इसने मोदी की लोकप्रियता को आज अपने चरम पर बताया है, वह भी तब जबकि उनके छह साल के शासन में हमारी अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा, आंतरिक एकता का हाल बदहाल है और एक महामारी गले पर सवार है. ये हो क्या रहा है?
आप कहीं भी घूम-टहल आइए, और अपरिचितों से बात कीजिए, वे कबूल करेंगे कि वे कष्ट में हैं. क्या मोदी को वोट देकर उन्होंने गलती की? फिर चुनाव हुए तो वे किसे वोट देंगे? क्या उन्हें कोई विकल्प उभरता दिख रहा है? मुझे अफसोस है, उनके जवाब आपको और ज्यादा परेशान कर देंगे.
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तो क्या लोग नासमझ हैं?
मैं इसे दूसरी तरह से रखने की कोशिश करता हूं. साधारण लोग जब भयानक बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती हों तो वे क्या करेंगे? वे डॉक्टरों पर ही भरोसा करेंगे. सफ़ेद कोट वाले ये लोग अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं. अस्पताल बदलने की कोशिश शायद ही की जाती है. तमाम तरह की परेशानियों से त्रस्त भारत के अधिकांश मतदाता खुद को आज ऐसे ही स्थिति में पा रहे हैं.
तमाम तरह के पंडित इन दिनों कई तरह की सलाह दे रहे हैं कि मोदी को हराने के लिए क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए. विपक्ष एकजुट हो जाए, यह पुरानी रट है लेकिन कोई नेता अगर मजबूती से जमा हुआ हो तो विपक्ष एकजुट होकर भी कभी कारगर नहीं हुआ. याद कीजिए, 1971 में इंदिरा गांधी के खिलाफ महागठजोड़ ने क्या कर लिया था.
सभी वामपंथी, सेक्युलर ताकतों को एकजुट किया जाए! इस बात पर जम्हाई आने लगेगी. वाम दल यहां एक छलावा ही रहे हैं, बुनियादी सियासत यही रही है कि कोई अगर धर्म के फेविकोल के बूते मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहा हो तो उन्हें जातियों के आधार पर बांट दो. वह रणनीति अब नाकाम हो चुकी है.
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल और आरएसएस प्रमुख के साथ अयोध्या में भूमिपूजन करते हैं और असदुद्दीन ओवैसी के सिवा विपक्ष का कोई भी शख्स इसके खिलाफ बेबाक होकर आवाज़ नहीं उठाता तो आप समझ सकते हैं कि 1989 के बाद की मंदिर बनाम मंडल की कहानी का उपसंहार हो चुका है.
भारत के सियासी नक्शे पर नज़र डालिए, एक-एक राज्य को देख जाइए, कहीं भी आपको ऐसा कोई नेता नज़र आता है जो मोदी के लिए सचमुच कोई चुनौती खड़ी कर सके? अमरिंदर सिंह, ममता बनर्जी… मान लिया. तीसरा नाम लीजिए. तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना अभी इससे बाहर हैं. लेकिन इनमें से आखिरी दो राज्यों में जो परिवार राज कर रहे हैं वे अपने लिए महत्वपूर्ण बड़े मुद्दों पर भाजपा के अनुचर ही हैं. यही स्थिति ओडिशा में भी है.
दूसरी संभावनाएं? कांग्रेस का नेतृत्व बदल दीजिए. राहुल गांधी को जाने दीजिए. तो उनकी जगह कौन लेगा? कुछ लोग कहेंगे कि उनकी बहन तो हैं न! लेकिन कुछ लोग यह भी कहेंगे कि नहीं, गांधी परिवार का कोई नहीं! एक सुझाव यह भी है कि कांग्रेस का पुनर्गठन किया जाए; ममता, शरद पवार, जगन मोहन रेड्डी, और संगमाओं तक तमाम महारथियों को वापस लाया जाए. लेकिन क्या आपने कभी उनसे पूछा है कि वे क्या यह चाहेंगे? वे राजी भी हो जाएं, तो उन सबका नेतृत्व कौन करेगा?
इस समय तो ये सब कपोल कल्पनाएं ही लगती हैं. इन सबके लिए कई सारी मान्यताओं को गढ़ना होगा, कई हसीन ख्वाहिशें पालनी होंगे, काम करने वाली एक मशीन के लिए कई कल-पुर्जे इकट्ठा करने पड़ेंगे. यहां हम उस विचार पर पहुंचते हैं जिससे मेरे खयाल से कई चतुर लोग परिचित होंगे और जिसके बारे में मुझे अभी हाल में बताया गया. 5 महीने बाद इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के लाउंज में जाने का यह एक अतिरिक्त लाभ है. इस विचार को ‘ओक्कम्स रेज़र’ कहा जाता है, जिसके अनुसार किसी बात को समझने के लिए जरूरत से ज्यादा पूर्व-धारणाओं को काटते हुए आगे बढ़ना जरूरी है.
1285 के इंग्लैंड में जन्मे विलियम ओक्कम सुधारवादी चर्च के प्रीस्ट बने, और वे कोई तर्कवादी नहीं थे. लेकिन उन्होंने दैवी चमत्कारों को औचित्य और तार्किकता प्रदान करने के लिए एक सिद्धांत दिया था. उनका सिद्धांत यह था कि किसी घटना के बारे में या उसकी संभावना के बारे में कई व्याख्याएं दी जा रही हों तब उनमें से जो सबसे सरल लगे उसे ही सही मान लो. इससे भी आसान यह है कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जितनी कम पूर्व-धारणाएं रखी जाएं उतना बेहतर.
इसके विपरीत, अगर बहुत ज्यादा कल्पनाएं करके चलेंगे तो आप गलत निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं. ओक्कम ने इस सिद्धांत का अक्सर इस्तेमाल किया और उनकी भविष्यवाणियां इतनी सटीक निकलीं कि उनका ‘ओक्कम्स रेज़र’ सिद्धांत अमर हो गया, शायद इसलिए कि उन्होंने इसे रेज़र की तरह इस्तेमाल किया.
मुझसे बातचीत करने वाले ने इस सिद्धांत को भारत के भावी राजनीति के लिए इस्तेमाल किया. और जब हम इस पर चर्चा कर रहे थे कि 2024 में परिदृश्य क्या हो सकता है, तब उन्होंने कहा कि उस परिदृश्य पर गौर कीजिए, जिसके साथ कम अगर-मगर जुड़ा हो. वह परिदृश्य यही है कि मोदी फिर से पूर्ण बहुमत के साथ वापस आ जाएंगे. बाकी दूसरी धारणाएं ‘ओक्कम्स रेज़र’ से कट जाती हैं. इसके बाद मैं गूगल अंकल की शरण में चला गया ताकि कुछ और जानकारियां हासिल कर सकूं.
इसलिए, बात को सरल रखने के लिए अपनी सभी ख्वाहिशों को परे रखिए, राजनीतिक इतिहास के अपने ज्ञान को खंगालिए, आपको कुछ रोशनी दिखेगी. भारत में मजबूती से सत्ता में जमे नेता को कभी किसी प्रतिद्वंद्वी ने नहीं हराया, चाहे गांधी परिवार का कोई नेता लड़ाई में किसी भी ओर क्यों न रहा हो. ऐसे मजबूत नेता अपनी वजह से ही हारे हैं, जैसा कि 1977 में इंदिरा गांधी के साथ, 1989 में राजीव गांधी के साथ हुआ. यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी भी 2004 में किसी स्पष्ट प्रतिद्वंद्वी से नहीं बल्कि अपनी ही पार्टी के दोहरे अहंकार के कारण हारे, जिसने एक तो चुनाव समय से पहले करवाया और फिर ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा समय से काफी पहले उछाल दिया था.
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तब, जबकि आप मोदी को बर्दाश्त नहीं कर सकते और आपके पास ग्रीन कार्ड भी नहीं है, आप क्या करेंगे? क्या आप इंतज़ार करेंगे कि वे अपनी हार खुद तय कर दें? या सपने देखना छोड़कर कुछ अलग, कुछ ठोस करने की कोशिश करेंगे? लोकप्रिय, शक्तिशाली नेता से लड़ने का पारंपरिक तरीका तो यही है कि एक ऐसा नेता खोजिए जिसमें करिश्माई आकर्षण हो, महत्वाकांक्षा हो, असीम धैर्य हो और जिसके पास एक नया विचार हो. अगर राजनीति एक मेगा मार्केट है, तो आपको उसमें अलग तरह का प्रोडक्ट चलाने की जरूरत होगी. जब तक इन तमाम संयोगों का मेल नहीं बैठता, मोदी अजेय दिखेंगे. इसलिए, अब आप भगवान से यही दुआ कर सकते हैं और उम्मीद लगा सकते हैं कि मोदी भी उन सभी नेताओं की तरह अपनी हार का खुद ही इंतजाम कर लें, जिनका मैंने ऊपर जिक्र किया है.
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Now please reply,in the given circumstances,what better could any other leader or party do.And in such a siyuation,why are you so eager to remove Modi.
It seems like you are trying hard to find a way to defeat Modi. People trust him because they believe that he is trying his best. His predecessors did not. Its trust and hope. Name any leader who brings same amount of hope and trust.
इतनी अच्छी स्टोरी करने के बावजूद दिप्रिंट को फण्ड का अभाव! बात थोड़ी अटपटी तो लगती है। एवं
आज लोग इतनी परेशानी में होने के बावजूद मोदीजी की लोकिप्रियता घटनेे की बजाय बढ़़ी है। कोरोना वायरस का संकट, -23.9% जीडीपी तथा करोड़ों लोगों के बेरोजगार होने के बावजूद माननीय प्रधानमंत्रीजी मोर के साथ विचरण कर रहे हैंं। 18 घण्टे काम करने वाले माननीय प्रधानमंत्रीजी को मोर के साथ 60 मिनट का वीडियो बनाने का समय मिल जाता है। पढ़ेे-लिखे युवाओं से पकौड़े तलबाये जाते हैं और बाबाओं को मंत्री, सांसद तथा विधायक बनाया जाता है।