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Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतमोदी ने गुजरात में सालों पहले जो खाका तैयार किया था उसका दिल्ली की जीत के लिए केजरीवाल ने किया इस्तेमाल

मोदी ने गुजरात में सालों पहले जो खाका तैयार किया था उसका दिल्ली की जीत के लिए केजरीवाल ने किया इस्तेमाल

आम आदमी पार्टी के बारे में विचित्र लगने वाली बात ये नहीं कि वो रुढ़ हो चले इन नियमों की लकीर पर चली बल्कि अचरज में डालने वाली बात ये है कि उसने बड़ी तेजी और त्वरा से इन नियमों को अपना लिया.

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‘इतिहास अपने को दोहराता है, पहले एक त्रासदी की तरह फिर एक प्रहसन की तरह.’ अक्सर सुनायी देने वाला कार्ल मार्क्स का ये कथन आगाह करता है कि कोई घटना दोबारा होती दिखायी दे तो सतर्क रहिए क्योंकि इस बार उस घटना का अर्थ एकदम ही अलग होगा. साल 2020 में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भारी जीत हासिल की है तो ये ना त्रासदी है और ना ही प्रहसन. एक तरह से देखें तो 2015 वाली जीत की तुलना में इस बार की जीत राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण को बदलने के मायने में कहीं ज्यादा कारगर है. लेकिन इस बार की जीत के बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि इसके भीतर गवर्नेंस के चले आ रहे ढर्रे या फिर भारतीय राजनीति के तौर-तरीकों को बदलने की सलाहियत है.

यों चुनावी अखाड़े के जौहर के लिहाज से देखें तो इस बार की जीत सचमुच एक यादगार जीत कही जायेगी, ये पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ी जीत है. बीते पांच साल लगातार आपका सामना वैरभाव से भरे प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली नरेन्द्र मोदी की केंद्रीय सरकार से हो और इसके बावजूद आप फिर से चुनाव जीत जायें तो फिर ये जीत दुर्लभ होने के कारण सचमुच ही सराहना के काबिल है. इस जीत को जरा उसके वज़न और आकार में देखें. आम आदमी पार्टी ने अपनी झोली में 54 प्रतिशत वोट और तकरीबन 90 फीसद सीट बटोर लिये. लेकिन ज़रा ये भी सोचें कि ऐसा किन मुश्किल हालात के बीच हुआ : लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी का तंबू-शामियाना एकदम से उखड़ता हुआ दिखायी दिया, केंद्र सरकार इस ज़िद पर अड़ी थी कि आम आदमी पार्टी को दोबारा सत्ता में नहीं आने देगी, भारतीय जनता पार्टी ने बड़े आक्रामक तेवर में विष-बुझा प्रचार अभियान चला रखा था और जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है, उसने तो जैसे ठान ही लिया था कि दिल्ली विधानसभा के चुनावों मे उसे धृतराष्ट्र की भूमिका निभानी है. ऐसे मुश्किल हालात के बीच जीत हासिल हुई तो इस जीत को ऐतिहासिक कहा जायेगा.

यही नहीं, इस जीत की अहमियत को समझने के लिए मतदान के खास समाजशास्त्र के कोने से भी देखने की ज़रुरत है. इंडिया टुडे के एक्जिट पोल में दिखाया गया है कि समाज के किस हिस्से में आम आदमी पार्टी को कितने वोट मिले और इस एक्जिट पोल के आंकड़े कहते हैं कि आम आदमी पार्टी ने वोटों के मामले में महिलाओं और गरीबों में अपनी पैठ बढ़ायी है. जान पड़ता है कि पार्टी के हिस्से के 4-5 प्रतिशत वोट बीजेपी की तरफ खिसक गये, लेकिन अपने इस घाटे को आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के वोटों से पूरा कर लिया. अगर शिक्षा और वर्ग के हिसाब से देखें तो फिर समीकरण बिल्कुल सीधा बैठता दिखता है: अपेक्षाकृत गरीब और कम शिक्षित मतदाताओं के बीच वोटों के मामले में ‘आप’ की बढ़त ज्यादा है. इससे संकेत मिलता है कि मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा ‘आप’ के पक्ष में एकजुट हो चला है और ये एकजुटता अगले कुछ समय तक कायम रहने वाली है. अरविन्द केजरीवाल की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने अपना संयम बनाये रखा और अपनी टोली को अपने दिशा-निर्देशन में कामयाबी के मुकाम तक ले आये.


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‘आप’ की साल 2015 में हुई जीत राष्ट्रीय राजनीति के समीकरणों को ना बदल पायी और इस मायने में एक अपवाद की तरह है. लेकिन, साल 2020 की जीत पूरे देश के लिए शुभ समाचार लेकर आयी है. दिल्ली में हुआ विधानसभा चुनाव साल 2018 से अबतक लगातार नौवां (इसके पहले कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, हरियाणा और महाराष्ट्र) ऐसा चुनाव है जहां बीजेपी मजबूत दावेदार होने के बावजूद जीत का मुंह ना देख पायी. हां, हमें इस कड़ी में हुए कुछ चुनावों (जैसे तेलंगाना, आंध्रप्रदेश तथा मिज़ोरम) को हटाना पड़ेगा क्योंकि यहां बीजेपी की दावेदारी एक हद तक मज़बूत नहीं थी. बेशक, इन राज्यों में हुए चुनावों में मिली हार के आधार पर ये नहीं कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय रंगमंच से नरेन्द्र मोदी के अवसान और पतन की शुरुआत हो चली है. राष्ट्र-व्यापी जनमत सर्वेक्षणों का संकेत है कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता बदस्तूर बरकरार है. दिल्ली विधानसभा चुनाव के क्रम में हुए जनमत सर्वेक्षणों में दिखा कि आम आदमी पार्टी के पक्षधर ज़्यादातर मतदाता नरेन्द्र मोदी को अपनी पसंद का राष्ट्रीय नेता और बीजेपी को लोकसभा के लिए अपनी पसंदीदा पार्टी के रुप में देखते हैं. लेकिन, विधानसभा चुनावों में एक और हार हुई तो बीजेपी के उभार के इस कथानक की हवा निकल जायेगी. दिल्ली के बाद किसी और विधानसभा चुनाव में हार होती है तो माना जायेगा कि केंद्र की तरफ से अभी राज्यों को जो हैसियत में बौना साबित करने की कवायद चल रही है उसे संघीय ढांचे की तरफ से ज़ोरदार जवाब मिलना शुरु हो गया है.

राहत की वजह

बीजेपी की हार के पीछे एक बड़ा संदेश छिपा है. बीजेपी ने दिल्ली विधानसभा के चुनावों के दौरान जो प्रचार अभियान चलाया वो देश के चुनावी इतिहास के सबसे निकृष्टतम प्रचार अभियानों में शुमार किया जायेगा. चाहे राष्ट्रीय स्तर के राजनेता हो या स्थानीय स्तर का कोई छुटभैया नेता-सब ही ने गलाफाड़ अंदाज में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नगाड़ा पीटा.

बीजेपी आधिकारिक तौर पर बस यही कहने से रह गई कि हिन्दू-मुस्लिम के बीच अब दंगा हो जाये, अन्यथा बीजेपी नेतृत्व ने ऐसा कर दिखाने के मामले में कोई कोर-कसर ना छोड़ा था- बीजेपी ने अपने विरोधियों को आतंकवादी, राष्ट्रघाती, पाकिस्तानी और ना जाने क्या-क्या कहा, लेकिन चुनाव आयोग बस हल्की सी आह भरकर रह गया. ‘नफरत फैलाओ और चुनाव जीतो’ का ये तौर-तरीका चल निकलता तो फिर राष्ट्रीय स्तर पर इसे ही चुनावी प्रचार के एक व्याकरण के तौर पर आजमाया जाता और नस्ल, जाति तथा क्षेत्र आधार पर लोगों के बीच उन्माद फैलाने की कोशिशें होतीं. बीजेपी हार तो गई है लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि वो उन्मादी ध्रुवीकरण की अपनी रणनीति से बाज आयेगी. बीजेपी का वोट-शेयर बढ़ा है तो बहुत संभव है कि इसे बीजेपी अपनी रणनीति की कामयाबी मानकर चले और ये पार्टी उन्मादी ध्रुवीकरण का ये फार्मूला पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश में निश्चित ही अपनायेगी. लेकिन एक बात तय है: दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उन लोगों के जेहन में एक खलल तो डाल ही दी है जो बीजेपी की इस फार्मूले की तरफदारी में तर्क देते और गढ़ते हैं. इस वजह से राहत की सांस ली जा सकती है.

लेकिन, 2020 की इस जीत की तुलना 2013 और 2015 में ‘आप’ को मिली यादगार जीत से करना दरअसल गुमराही का शिकार होना कहलाएगा. अपने शुरुआती दौर में आम आदमी पार्टी ने वादा किया था कि वो शासन का एक नया ही व्याकरण लेकर आयेगी. हां, इस व्याकरण को सूत्रबद्ध किया जाना तब बाकी था. तब आम आदमी पार्टी की स्वराज की विचारधारा ने परंपरागत विचारधाराओं की रुढ़ियों से उबरते हुए भारत के लिए एक नयी राह खोलने का वादा किया था. सबसे बड़ी बात कि तब के वक्त में आम आदमी पार्टी का वादा था कि वो एक नये तर्ज की राजनीति की शुरुआत करेगी जो खेल के प्रचलित नियमों को बदल डालेगी.

‘आप’ की दूसरी जीत इन वायदों को साकार करने वाली जीत नहीं. दरअसल दूसरी जीत ने साबित किया है कि नये खिलाड़ियों ने खेल के चलते नियमों में पुराने खिलाड़ियों की तुलना में कहीं ज़्यादा महारत हासिल कर ली है और साबित किया है कि भारत की राजनीति में कामयाब होने के लिए शासन के नये तौर-तरीके या कह लें मॉडल गढ़ने की ज़रुरत नहीं.


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शासन के नये मॉडल गढ़ने की जगह आम आदमी पार्टी ने दूसरी पार्टियों की तुलना में कहीं ज़्यादा कामयाबी के साथ उसी फार्मूले को दोहराया है जो अब दोबारा से सत्ता में आने का एक तरह से सिद्धमंत्र बन चला है. इस सिद्धमंत्र को स्वयं नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री रहते गुजरात में अपने दूसरे और तीसरे चुनाव में आजमाया था. फिर उसी सिद्धमंत्र को शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, नीतीश कुमार तथा नवीन पटनायक सरीखे मुख्यमंत्रियों ने कहीं ज़्यादा महीनी और कामयाबी से आजमाया. सत्तारुढ़ पार्टी को दोबारा सिंहासन तक पहुंचाने वाले इस सिद्धमंत्र के तीन बीजाक्षर हैं: (1.) जनता के कल्याण के लिए चलायी जा रही कुछ योजनाओं के लाभ सीधे लोगों तक पहुंचाओ, (2.) इन योजनाओं का पूरे ताम-झाम और जोर-शोर से प्रचार करो, इसका इस्तेमाल अपने नेता के चेहरे को चमकाये रखने में करो और (3.) और, अपनी मज़बूत चुनावी मशीनरी के सहारे इन दो चीजों का इस्तेमाल वोटों को बटोरने में कर लो.

केजरीवाल ने इस सिद्धमंत्र को कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया 

अरविन्द केजरीवाल ने इस सिद्धमंत्र का इस्तेमाल मंत्र को गढ़ने वाले की तुलना मे कहीं ज़्यादा बेहतर तरीके से किया. मुफ्त और किफायती दामों पर बिजली मुहैया की गई तो गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के लोगों को ये राहत की बात लगी. शिक्षा चाहे बेहतर ना हो पायी हो लेकिन स्कूली इमारतें अब भरापूरा दिखायी देने लगी हैं. मोहल्ला क्लीनिकों को किसी स्टार्ट-अप की तर्ज पर ही चलाया गया है, लेकिन इससे लोगों में संदेश गया कि स्वास्थ्य-सेवाओं को हासिल कर पाना उनके वश की बात हो चली है. इन ठोस उपलब्धियों को बड़े सीधे-सरल लेकिन ताकतवर संवाद-संचार के जरिये गई गुणा ज़्यादा बड़ा बनाकर पेश किया गया. ऐसा आधिकारिक तौर पर दिये जाने वाले विज्ञापनों के सहारे भी हुआ और पार्टी की प्रचार मशीनरी के ज़रिये भी. नतीजतन लोगों में ये धारणा दृढ़ हुई कि दिल्ली की सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवा मुहैया कराने के मामले में बड़ी मुस्तैद है. लोग भ्रष्टाचार, रोजगार, प्रदूषण, परिवहन और शराब की बिक्री की बात भूल गये.

आम जनता के बीच राजनेता की कायम होती छवि बड़ा मायने रखती है और केजरीवाल ने आम जनता के बीच अपनी छवि को चमकाये रखने में बड़े कौशल का परिचय दिया, उन्होंने इस बात की फिक्र ना की कि जनता की राय बनाने का काम करने वाले लोग उनके बारे में क्या सोचते-बोलते हैं. केजरीवाल भी इस बात को समझ चुके हैं कि लोगों की याददाश्त बड़ी कमज़ोर होती है. इन तमाम बातों को एक ताकतवर और फुर्तीली चुनावी मशीनरी के ज़रिये वोटों में तब्दील किया गया, इसमें कुछ योगदान प्रशांत किशोर का भी रहा. ये भी कहना होगा कि आम आदमी पार्टी ने दोबारा सत्तारुढ़ होने के सिद्धमंत्र को अपने तईं संवारा और उसे बड़ी महीनी से अमल में लाया. हां, यहां ये याद रखना जरुरी है कि आम आदमी पार्टी ने दोबारा सत्तारुढ़ होने के लिए जिस सिद्धमंत्र का सहारा लिया उसे शासन का नया मॉडल समझने की भूल ना की जाय.


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पार्टी की सियासी रणनीति के बारे में भी यही बात कही जा सकती है. इस मोर्चे पर पार्टी ने अपने लिए कोई नया नियम नहीं गढ़ा बल्कि पुराने नियमों की ही लीक पर चली. इस सिलसिले की पहली बात, सियासी मैदान के जो खिलाड़ी राजनीतिक सिद्धांतों के बरक्स ना ऊधो का लेना-ना माधो को देना सरीखा रुख अपनाये रहते हैं, उन्हें आप लामबंद किये बगैर राजनीति नहीं कर सकते. दूसरी बात, सिद्धांत और भावी समाज का स्वप्न जैसी बातें उन लोगों के लिए है जो बातों के धनी हैं, सो इसकी ज्यादा फिक्र करने की ज़रुरत नहीं. तीसरी बात, राजनीतिक पार्टी का मतलब होता है वो जमावड़ा जो चुनाव जीतकर दिखाये. मानकर चलो कि चुनावी जीत राजनीतिक सफलता की अनिवार्य और पर्याप्त कसौटी है. चौथी बात, राजनीतिक पार्टी बिना आलाकमान के नहीं चल सकती और आलाकमान चलता है एक राजनेता के सहारे. आम आदमी पार्टी के बारे में विचित्र लगने वाली बात ये नहीं कि वो रुढ़ हो चले इन नियमों की लकीर पर चली बल्कि अचरज में डालने वाली बात ये है कि उसने बड़ी तेज़ी और त्वरा से इन नियमों को अपना लिया जबकि वादा इन नियमों को बुनियादी तौर पर बदल डालने का था.

ऊपर जो नियम बताये गये हैं उन नियमों का बड़ी बारीकी से पालन किया आम आदमी पार्टी ने और इस चुनाव में पार्टी को इसका फायदा भी पहुंचा. पार्टी ने बिना किसी नैतिक हिचक या विचाराधारागत बाधा के हर उस व्यक्ति को टिकट दिया जिसके चुनाव जीतने के प्रबल आसार दिखे. राजनीति के क्षितिज पर विचारों-आचारों का कुंकुम अभी दक्षिणपंथी रंगो-आब लिये हुए है तो विचारधारागत लचीलेपन के कारण आम आदमी पार्टी को दक्षिणपंथी करवट लेने में भी आसानी हुई. बात चाहे धारा 370 और कश्मीर की सूबाई हैसियत को खत्म करने की हो या फिर अयोध्या मामले में आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले की- आम आदमी पार्टी ने इनकी तरफदारी में दक्षिणावर्ती बोल बोलने में संकोच नहीं किया. सीएए और शाहीन बाग सरीखे मसलों पर पार्टी ने प्रचार-अभियानों के जरिए बड़ी चतुराई से अपना दोहरा रुख कायम रखा. और सबसे अहम बात ये कि पार्टी ने चुनावी होड़ को स्थानीय मुद्दों पर जमाये रखा और लोगों के मन में ये बात बैठाने में कामयाब रही कि स्थानीय स्तर पर उसका विकल्प कोई और पार्टी नहीं. असली विडंबना भी यही है: ये पार्टी ‘विकल्पहीन है दुनिया’ सरीखे कथानक को तोड़ने के वादे से बनी थी लेकिन इस पार्टी ने चुनाव ये बताकर जीता कि उसका कोई विकल्प नहीं है.

सो, सवाल ये नहीं कि आम आदमी पार्टी की रणनीतियां चुनाव में कामयाब हुईं या नहीं. ‘आप’ ने साबित किया कि अपनी रणनीति में वो कामयाब रही. लेकिन हमें रणनीतियों की कामयाबी के सवाल से हटते हुए अब पूछना ये चाहिए कि अपने गणतंत्र को बचाने की बड़ी लड़ाई में हमें इन रणनीतियों से कोई मदद मिलेगी क्या ?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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