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Friday, 1 November, 2024
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विपक्ष कमज़ोर स्थिति में है, उसे ज़िंदा रखने के लिए मोदी और भाजपा को अतिरिक्त प्रयास करने होंगे

चुनावों में कांग्रेस की भारी नाकामी से लोकसभा में बड़ी अजीब स्थिति बन गई है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष को ये आश्वासान देते हुए उदारता का परिचय दिया है कि विभिन्न दलों की सीटों की संख्या पर ध्यान नहीं देते हुए लोकसभा में सबके विचार सुने जाएंगे और सबको बराबर का महत्व दिया जाएगा. इसके बाद इसी सप्ताह उन्होंने एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर विपक्ष के नेताओं के साथ बैठक की. इससे ज़ाहिर होता है कि अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी, लोकतंत्र में विरोधी विचारों के महत्व को समझ रहे हैं और उन्हें जगह देने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने को तैयार हैं.

प्रधानमंत्री अपनी चाल चल चुके हैं. अब ये विपक्ष के ऊपर है कि वह इस चुनौती को स्वीकार करे और लोकतंत्र का साथ दे.

अपनी विशिष्ट शैली में मोदी ने तीन शब्दों का उल्लेख किया जो नई लोकसभा में विपक्ष के प्रति भाजपा के रवैये को दर्शाता है: ‘जब हम संसद आते हैं तो हमें ‘पक्ष’ और ‘विपक्ष’ को भूल जाना चाहिए. हमें ‘निष्पक्ष’ भावना के साथ मुद्दों के बारे में सोचना चाहिए और राष्ट्र के व्यापक हित में काम करना चाहिए.’

महाविपक्ष की महानाकामी

चुनावों में कांग्रेस की भारी नाकामी से लोकसभा में बड़ी अजीब स्थिति बन गई है. ना सिर्फ कांग्रेस पार्टी 52 सीटों पर सिमट गई है. बल्कि, अब संसद में दमदार विरोधी आवाज़ें बहुत कम रह गई हैं. एक प्रभावी विपक्ष की अनुपस्थिति की बात सबके मन में है, मोदी के मन में भी.

कम संख्या बल के अलावा इस बार विपक्ष की पहचान नेतृत्व के गुणों या जोश के साथ संघर्ष की इच्छा के नदारद रहने से भी है.


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कांग्रेस के तमाम दावों के बावजूद राहुल गांधी अपनी जिम्मेदारी छोड़ने पर अड़े हुए हैं. संसद के संयुक्त अधिवेशन में गुरुवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण के दौरान वे अपना फोन ब्राउज़ करते नज़र आए. जिसे सिर्फ उनकी उदासीनता के रूप में ही देखा जा सकता है. कांग्रेस दुविधा की स्थिति में है. लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भाग लें या नए अध्यक्ष की तलाश करें (और नया अध्यक्ष नेहरू-गांधी वंश से हो या नहीं).

गत वर्ष कांग्रेस के लिए स्थिति इतनी खराब नहीं थी. उसने तीन महत्वपूर्ण राज्यों राजस्थान, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में अहम विधानसभा चुनावों में भाजपा को हराया था तथा उसके प्रदर्शन में और सुधार की बड़ी उम्मीदें लगाई जा रही थीं. पर रणनीतिक गठबंधनों के टूटने से लेकर राष्ट्रीय विमर्श पर हावी होने में विफल रहने तक, कई नाकामियों का सामना करते हुए कांग्रेस ने मौका गंवा दिया. पार्टी को भाजपा के लिए ना सिर्फ अपने गढ़ों में, बल्कि उन स्थानों में भी जगह छोड़नी पड़ी जहां भाजपा कमज़ोर थी.

महागठबंधन तैयार हुआ था. जैसा कि हर लोकसभा चुनाव के दौरान होता है, पर स्पष्टतया वो नाकामयाब रहा और अप्रैल आते-आते कांग्रेस को अपने लिए कोई कथानक नहीं मिल पा रहा था.

ये सौभाग्य था या फिर परिस्थितियों का संयोग कि कांग्रेस ने तमिलनाडु में डीएमके की दरियादिली को स्वीकार किया, और जिन नौ सीटों पर इसने चुनाव लड़े उनमें से आठ पर उसे जीत हासिल हो गई. ऐसा नहीं हुआ होता तो लोकसभा में पार्टी की स्थिति कमोबेश 2014 वाली ही रहती.

संसद में विपक्ष

प्रभावी लोकतंत्र के लिए एक विपक्ष की दरकार होती है.

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ और महिला आरक्षण विधेयक जैसे अहम मामलों में गहन विचार-विमर्श और विपक्ष की राय की ज़रूरत होती है. लोकसभा में विगत में नए भूमि अधिग्रहण विधेयक, जिसे 2015 में पेश किया गया था और विपक्ष की एकजुटता के कारण जिसे राज्यसभा में पारित नहीं किया जा सका, जैसे मुद्दों पर पर जीवंत बहस देखने को मिल चुकी है.

यूपीए के शासन के दौरान विवादास्पद सांप्रदायिक हिंसा विधेयक के विरोध में तत्कालीन विपक्ष ने एड़ी-चोटी एक कर दिया था और सरकार को इसे वापस लेने को बाध्य होना पड़ा था. मोदी के पहले कार्यकाल में तीन तलाक विधेयक विपक्ष द्वारा बारीकी से पड़ताल किए जाने के बाद ही पारित हो पाया था. एक गंभीर और सतर्क विपक्ष सत्तारूढ़ पार्टी को मनमानी करने से रोक सकता है, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व वाले वर्गों की आवाज़ बन सकता है, और इस तरह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मज़बूत बना सकता है.

बगैर विपक्ष के शासन

अब, चुनावों के पीछे छूट जाने के बाद संसद में असंतुलन और अधिक स्पष्ट दिखता है. लोकसभा में मौजूद रह गए मुट्ठी भर विपक्षी दलों में विचारधारा की स्पष्टता का अभाव दिखता है. हालांकि, भारतीय राजनीति का हाल भी कुछ ऐसा ही है. कई नेताओं के ठीक चुनावों के समय भाजपा का दामन थामने से यही साबित होता कि आज के भारत में वैचारिक कूदफांद कोई समस्या नहीं रह गई है.

लुप्तप्राय होने की अवस्था में आ चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा, जो कितनी भी गलत और अलोकप्रिय क्यों ना हो, भाजपा को लेकर किसी अन्य पार्टी का सुसंगत या विचारधारा पर आधारित रुख नहीं है.


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विपक्ष को साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी अब सीधे-सीधे भाजपा के कंधों पर और उससे भी अहम खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर है. भाजपा को तटस्थ और बिना मज़बूत प्रतिबद्धता वाले नेताओं को अपनी ओर आकर्षित कर पहले से ही दुर्बल विपक्ष को और कमज़ोर करने का लालच हो सकता है पर उससे ना तो सत्तारूढ़ पार्टी को और ना ही लोकतंत्र को कोई लाभ पहुंचेगा.

विधेयकों पर अधिकतर फैसले संबंधित मंत्रालयों के तहत गठित समितियों में होते हैं, जिनमें हर राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व होता है. यहीं पर विपक्ष ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सकता है और अपनी कर्तव्य निष्ठा साबित कर सकता है.

आखिर में विपक्ष से संसद के भीतर ही नहीं, बल्कि दोनों सदनों के बाहर जनता के बीच कहीं बड़ी भूमिका की अपेक्षा है, जहां उनकी विश्वसनीयत दांव पर होगी.

(लेखक ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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