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Tuesday, 4 March, 2025
होममत-विमतमोदी 3.0 के बजट से जुड़ी है समाजवादी पहचान की सुर्खी और उसके नीचे दबी है परमाणु संधि की आहट

मोदी 3.0 के बजट से जुड़ी है समाजवादी पहचान की सुर्खी और उसके नीचे दबी है परमाणु संधि की आहट

इस बजट की सुर्खी बनने लायक एकमात्र बात मिडिल-क्लास को इनकम टैक्स में दी गई राहत है और सबसे साहसिक और सकारात्मक पहलू है परमाणु ऊर्जा एक्ट और ‘सिविल लायबिलिटी ऑन न्यूक्लियर डैमेज एक्ट’ में संशोधन का इरादा.

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साल-दर-साल पेश किए जाने वाले बेहद ‘बोरिंग’ बजटों की एक तरह से अच्छी बात यह है कि वह मार्केट को इतनी उलझन में डाल देते हैं कि वह समझ में नहीं आता कि ऊपर का रुख करें या नीचे का. हालांकि मैं भी उलझन में हूं कि मार्केट को यह बड़ी सकारात्मक बात क्यों नहीं नज़र आती कि वित्तीय घाटा प्रस्तावित बजट से नीचे रहा और अनुमान है कि अगले साल भी यह काफी नीचे रह सकता है.

इसे मैं इस बजट की बेहतर और साहसी बात मानता हूं, खासकर इसलिए कि तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाएं अपने बेकाबू वित्तीय घाटे से जूझ रही हैं. क्या मार्केट ऐसे वित्तीय अनुशासन को पुरस्कृत नहीं करते? इस सवाल का जावन मुझसे मत पूछिए क्योंकि मैं मार्केट को समझने की कोशिश भी नहीं करूंगा. राजनीति के रहस्यों को खोलना काफी मुश्किल होता है, इसमें मज़ा भी है और यह मुफीद भी होता है.

एक मिनट के लिए राजनीति की ही बात करें. इस बजट का सबसे साहसी और सकारात्मक बयान राजनीति और रणनीतिक मामलों के क्षेत्र से ही संबंध रखता है. जैसे, परमाणु ऊर्जा एक्ट और ‘सिविल लायबिलिटी ऑन न्यूक्लियर डैमेज एक्ट’ में संशोधन का इरादा. इसके साथ यह भी जान लीजिए कि 2047 तक 100 गीगावाट (1 गीगावाट का अर्थ है 1,000 मेगावाट) परमाणु बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है और यह भी जान लीजिए कि डोनाल्ड ट्रंप की वापसी के बाद इस लक्ष्य में फटाफट संशोधन किया गया है.

अगर वे लेन-देन पर जोर देते हैं तब भारत उनसे ‘लेने’ के बदले उन्हें क्या ‘देने’ की पेशकश कर सकता है? बड़ी परमाणु खरीद (वेस्टिंगहाउस बिजली कंपनी को याद कीजिए, जो कार्बन मुक्त ऊर्जा के लिए परमाणु टेक्नोलॉजी उपलब्ध कराती है) जादुई नतीजे दे सकती है. इसके लिए भारत को 2010 में यूपीए सरकार द्वारा पारित ‘सिविल लायबिलिटी ऑन न्यूक्लियर डैमेज एक्ट’ (सीएलएनडीए) नामक कानून में संशोधन करना पड़ेगा, जो अपने जन्म के साथ ही मरणासन्न हो गया था. इसमें यह मारक शर्त भाजपा के दबाव में जोड़ी गई थी कि परमाणु हादसे की स्थिति में ऑपरेटर मुआवजे का दावा करने के लिए सप्लायर पर मुकदमा चला सकता है. सिविल न्यूक्लियर संधि के मामले पर विश्वास मत में हारने के बाद भाजपा ने यूपीए (और भारत) को स्वच्छ ऊर्जा के लिए संधि करने से रोक दिया था.

यह कानून आज जिस रूप में है, वह परमाणु ऊर्जा के लिए पूरक मुआवजे से संबंधित समझौते (सीएससी) का उल्लंघन करता है. यह ऑपरेटर की जवाबदेही को सीमित करता है और सप्लायर को मुक्त करता है. उस परमाणु संधि के मामले में हार को लेकर भाजपा की खीज को इत्तिफाक से भोपाल गैस हादसे पर सुप्रीम कोर्ट के 2010 के विवादास्पद फैसले के रूप में बिल्कुल सटीक समय (उसकी राजनीति के लिहाज़ से) पर अनुकूल माहौल मिल गया. इसने जवाबदेही वाले मुद्दे को वापस जनमत में उभार दिया. वामपंथी और दक्षिणपंथी खेमे पर्यावरणवादियों के साथ जुड़ गए और जवाबदेही वाले कानून का गला घोंट दिया गया.

भाजपा आज अगर उस कानून को जहर मुक्त करे, तो इससे अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और सबसे ऊपर रणनीति के मामलों में लाभ ही हासिल होंगे. यह वैसा ही स्वागतयोग्य बदलाव होगा जैसा मोदी सरकार ने सिविल परमाणु संधि को अपना कर और अमेरिका की ओर रणनीतिक झुकाव दर्ज करा कर किया था. यहां यह भी याद किया जा सकता है कि यूपीए के दौर में इसने बांग्लादेश के साथ सीमा समझौते का भी विरोध किया था. अगर यह हो जाता है तो इसे भी ‘देर आए, दुरुस्त आए’ माना जाएगा. जवादेही वाले मसले के पेंचों को समझने के लिए आप इस लिंक पर एश्ले टेलिस के आलेख को पढ़ सकते हैं. अब उम्मीद करें कि इस बजट में किए गए वादे जल्दी पूरे किए जाते हैं. बेहतर होगा कि यह ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में उनसे मोदी की पहली मुलाकात से पहले यह पूरा कर दिया जाए.

परमाणु ऊर्जा एक्ट में संशोधन का अर्थ होगा परमाणु बिजली उत्पादन का मामला बिजली मंत्रालय को सौंपना. अगर मोदी सरकार ये संशोधन करवा लेती है इसका उसे घरेलू राजनीति में फायदा ही मिलेगा. आंध्र प्रदेश ने 6,600 मेगावाट (6.6 गीगावाट) वाले एक परमाणु बिजली संयंत्र के लिए 2067 एकड़ ज़मीन आवंटित भी कर दी है.

बजट के पारंपरिक पहलुओं की फिर से चर्चा करें. जिन्हें ‘बोरिंग’ बजट कहा जा सकता है उनमें एक निरंतरता भी है. और निरंतरता अच्छी बात है. कोई तीखा बदलाव या नीतिगत पहल नहीं. आखिर बजट तो सरकार के हिसाब-किताब का वार्षिक विवरण ही तो है.

वह दौर कुछ समय बीत चुका जब बजट राजनीतिक अर्थनीति, खासकर आर्थिक सुधारों पर सरकार के नए विचारों को रेखांकित किया करते थे. इसकी दो वजहें हैं.

एक तो यह कि राजनीतिक अर्थनीति अब राजनीतिक नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में है. दूसरी यह कि जब बजट में की जाने वाली भावोत्तेजक घोषणाओं की बात आती है तो उनको लेकर जनमानस में पहले ही काफी संदेह व्याप्त हो चुका है.

पी. चिदंबरम ने इस पर यह विचार रखा था कि बजट से अपेक्षाओं पर अब खर्चों या उपलब्धियों की बात हावी हो गई. पिछले 11 वर्षों में आर्थिक सुधारों के जो सबसे बड़ी घोषणाएं किसी बजट में नहीं बल्कि महामारी के दौरान कई प्रेस घोषणाओं में की गईं.

कृषि सुधारों से लेकर श्रम कानूनों तक अधिकांश घोषणाएं अपनी दिशा खो चुकी हैं. कृषि कानूनों को तो रद्द कर दिया गया है और बाकी घोषणाएं सिस्टम के जाल में उलझकर रह गई हैं.

जिन घोषणाओं की तारीफ हम संकट का लाभ लेने के सच्चे और अच्छे उदाहरण के रूप में कर चुके हैं और उनको लेकर काफी खुश हो रहे हैं उन्हें अब संयत किया जा चुका है. भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था वापस अपने पुराने आधारों पर पहुंच गई है या बेबाकी से कहूं तो कांग्रेस के समाजवादी आधारों पर.

उदाहरण के लिए इस बजट की सुर्खी बनने लायक एकमात्र बात मध्यवर्ग के विशाल निचले तबके में 12 से 24 लाख की सालाना आय वाले लोगों को आयकर में दी गई राहत है, लेकिन यह 2019 में उद्यम को नई तेज़ी देने की उम्मीद में कॉर्पोरेट जगत को दी गई रोनाल्ड रीगन मार्का दुस्साहसी टैक्स छूट की तुलना में कुछ भी नहीं है.

निजीकरण को तो दफन करके भुला ही दिया गया है. पिछले कुछ महीनों से प्रधानमंत्री दावे कर रहे हैं कि उनके पूर्ववर्तियों की तुलना में उनके राज में सार्वजनिक उपक्रम काफी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं और पिछले सप्ताह उन्होंने क्रमशः कांग्रेस/यूपीए और ‘AAP’ से उधार लिए गए मुहावरों का प्रयोग किया– ‘सर्वसमावेशी आर्थिक वृद्धि’, ‘आम आदमी’ और इंदिरा गांधी ने अपनी लोकसभा के अवैध छठे साल के जरिए संविधान की प्रस्तावना में जो ‘धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी’ शब्द दाखिल करवाए उन पर दोनों पक्षों की मुहर लग गई है. कम-से-कम समाजवाद का तो अक्षरशः और पूरी भावना से पालन किया जाता रहेगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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