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Saturday, 21 December, 2024
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कांग्रेस द्वारा ‘अंग्रेजों के मित्र सिंधिया’ कहना भारतीय इतिहास की गलत व्याख्या

रानी लक्ष्मीबाई को श्रद्धांजलि देने के लिए कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी की हालिया ग्वालियर यात्रा के दौरान, केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को न केवल 2020 के लिए बल्कि ऐतिहासिक रूप से गद्दार कहा.

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भारतीय राजनीति में इतिहास कब वर्तमान पर हावी हो जाए और सैकड़ों साल पुराना कोई मसला कब वर्तमान को प्रभावित करने लगे, इसका अंदाजा लगाना अक्सर मुश्किल होता है. ये कुछ उन फिल्मों की तरह है, जिसमें कहानी बार बार फ्लैशबैक में चली जाती है और जो हो चुका वह फिर से घटित होता दिखने लगता है. कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी वाड्रा मध्य प्रदेश चुनाव के सिलसिले में हाल में ग्वालियर गईं तो उन्होंने 1857 विद्रोह की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई (19 नवंबर 1828-18 जून 1858) के स्मृति स्थल पर जाकर श्रद्धांजलि दी.

ग्वालियर में बहुत सारा इतिहास घटित हुआ है. साथ ही ये वो जगह भी है जहां से कांग्रेस के पूर्व नेता और वर्तमान केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया आते हैं. सिंधिया परिवार ने ग्वालियर से देश के एक बड़े हिस्से पर एक समय तक राज किया है. यही नहीं इस परिवार का लंबे समय तक एक साथ देश की दो सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस और बीजेपी दोनों से संबंध रहा. ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधव राव सिंधिया कांग्रेस शासन में मंत्री रहे. माधव राव सिंधिया की माता बीजेपी की शीर्ष नेताओं में थीं. ज्योतिरादित्य भी कांग्रेस के शिखर नेतृत्व के बेहद करीबी थे.

बहरहाल, प्रियंका गांधी ने ग्वालियर में सभा की तो सिंधिया के गद्दार होने के पोस्टर नजर आए. कांग्रेसियों की सिंधिया से नाराजगी का एक वर्तमान संदर्भ है क्योंकि लंबे समय तक कांग्रेस में उच्च पदों पर रहने के बाद उन्होंने 2020 में पार्टी छोड़ दी. मध्य प्रदेश में उनके समर्थक विधायक भी कांग्रेस छोड़ गए, जिस कारण कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार गिर गई. लेकिन सिंधिया को गद्दार कहने का एक ऐतिहासिक संदर्भ भी है. कांग्रेस के प्रमुख रणनीतिकार संदीप सिंह ने सिंधिया के एक ट्वीट के जवाब में लिखा कि 1857 के विद्रोह के दौरान सिंधिया के पुरखों ने रानी लक्ष्मीबाई से गद्दारी की थी.

इतिहास के इस “प्रसंग” को सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता के जरिए पूरे हिंदी प्रदेशों में पहुंचा दिया. ये कविता यूं तो रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य पर लिखी गई है, लेकिन इसमें सिंधिया का जिक्र आया है. ये कविता हिंदी की पाठ्यपुस्तकों में शामिल है.

सिंधिया को चिढ़ाने और नीचा दिखाने के लिए, कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस कविता को ट्वीट कर दिया.

मेरा पक्ष ये है कि सिंधिया परिवार के बारे में लोक में स्थापित किया गया ये विचार तथ्यों पर आधारित नहीं है. ये समझने के लिए इतिहास और ऐतिहासिक तथ्यों को संदर्भों और जटिलताओं के साथ देखना होगा और मेरी कोशिश यही करने की रहेगी. पूरा घटनाक्रम इस तरह है.

1714: छत्रपति शिवाजी महाराज के पोते शाहू महाराज ने बालाजी विश्वनाथ भट्ट को पेशवा यानी प्रधानमंत्री नियुक्त किया. विश्वनाथ भट्ट से ये पद उनके बेटे बाजी राव प्रथम को चला गया. ये पद राजा के पद की तरह वंशानुगत हो गया.

1749: शाहू महाराज के मरने के बाद पेशवा बाजीराव प्रथम ने राज्य की सत्ता खुद संभाल ली और राजा एक तरह से सतारा के महल में बंद कर दिए गए. इस तरह मराठा साम्राज्य का अंत हुआ और पेशवा युग शुरू हो गया. पेशवा ने शिवाजी महाराज के वंशजों से उनका राज्य छीन लिया.

1761: पेशवा पानीपत की तीसरी लड़ाई हार गए और इसके बाद उनका राज्य एक तरह से मराठा क्षत्रपों का ढीला-ढाला गठबंधन बन गया जिसमें इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड़, धार के पवार, ग्वालियर के सिंधिया और नागपुर के भोंसले आदि थे.

1802: पेशवा बाजी राव द्वितीय को होल्कर ने हरा दिया. इसके बाद पेशवा ने अंग्रेजों के साथ बसीन की संधि की और उनका संरक्षण प्राप्त किया. अंग्रेजी शासन के विस्तार के क्रम में मराठा क्षत्रपों को अपनी लड़ाइयां खुद लड़नी पड़ी. पेशवा उस दौर में अंग्रेजों से मिलकर चल रहे थे. ग्वालियर ने भी अपनी लड़ाई खुद लड़ी और हार के बाद उन्हें 1817 में अंग्रेजों के साथ समझौते में जाना पड़ा.

1818: अंग्रेजों ने भीमा कोरेगांव के युद्ध में रहा सहा पेशवा राज खत्म कर दिया. इसके बाद पेशवा को कानपुर के पास बिठूर में निर्वासन में भेज दिया गया.


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क्या सिंधिया ने ‘भारत से गद्दारी’ की?

इन्हीं पेशवा के पुत्र नाना साहब पेशवा लगभग चार दशक बाद, 1857 के विद्रोह में नेता के तौर पर सामने आते हैं. 1857 में सिंधिया एक जटिल स्थिति में थे. वे अन्य सैकड़ों राजाओं की तरह अंग्रेजों के संरक्षण में राज कर रहे थे. लेकिन इसमें देश या राष्ट्र से गद्दारी जैसी कोई बात नहीं थी. सभी राजा विभिन्न संधियों के जरिए यही कर रहे थे. झांसी में रानी लक्ष्मीबाई भी अंग्रेजों के संरक्षण में राज कर रही थीं. इसलिए जब विद्रोह शुरू हुआ तो सिंधिया के सामने सवाल सिर्फ इतना था कि नाना साहब पेशवा का साथ देना है या अंग्रेजों के साथ की गई संधि के मुताबिक चलते रहना है. ये सवाल रणनीतिक था. सिंधिया को ये तय करना था कि उनका, राज्य का और राज्य के लोगों का हित किसमें है. क्या उन्हें मराठा साम्राज्य का अंत करने वाले पेशवा के साथ जाना चाहिए था?

आप समझ सकते हैं कि मामला कितना पेचीदा रहा होगा. अगर उस विद्रोह में पेशवा और दिल्ली में बहादुरशाह जफर जीत जाते तो निश्चित रूप से देश का भविष्य कुछ अलग होता. लेकिन इतना तय है कि मराठा क्षत्रप पेशवा के अधीन सुख से नहीं रह पाते. इसलिए आप पाएंगे कि 1857 में किसी भी मराठा क्षत्रप- होल्कर, गायकवाड़, भोंसले, सिंधिया, पवार- ने विद्रोह और विद्रोह के नेता नाना साहब पेशवा का साथ नहीं दिया.

साथ ही, अंग्रेजों की शक्ति अपेक्षाकृत ज्यादा थी और उनसे टकराव मोल लेने का ग्वालियर राज्य ही नहीं, वहां की जनता पर भी गंभीर असर हो सकता था. ये बात भी समझने की है कि 1857 तक आधुनिक भारतीय राष्ट्र जैसी कोई कल्पना ठोस रूप नहीं ले पाई थी. किसी के दिमाग में ये तस्वीर नहीं थी कि अगर विद्रोह सफल हो गया तो फिर शासन व्यवस्था कैसी होगी. कौन राजा होगा और कितने राजा होंगे. दिल्ली के विद्रोही, मुगल भारत को फिर से वापस लाना चाहते थे और उन्होंने बहादुर शाह जफर को बादशाह घोषित भी कर दिया था. पेशवा की महत्वाकांक्षा कुछ और थी. इसलिए ये कहना तो सरासर हवाई बात है कि सिंधिया ने भारत से गद्दारी की.

सवाल ये भी उठता है कि क्या झांसी और ग्वालियर के बीच कोई संधि थी, जिसे सिंधिया ने तोड़ दिया? इस सवाल का जवाब है ही नहीं. रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र का वारिस माने जाने की मांग अंग्रेजों से कर रही थीं. अगर अंग्रेजों ने ये मांग मान ली होती तो रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में किस ओर होती?

आप समझ सकते हैं कि इतिहास सुभद्राकुमारी चौहान की कविता से कहीं ज्यादा उलझा हुआ है.

फिर ये न भूलें कि आजादी के बाद 562 देसी रियासतों का भारतीय संघ में एकीकरण हुआ. ये सभी देसी रियासतें अंग्रेजों की छत्रछाया में रहीं. 1857 में इनमें से कई के सामने विद्रोह में शामिल होने का विकल्प था. उन्होंने ऐसा नहीं किया. इनमें कई राजघराने कांग्रेस से जुड़े रहे. इसलिए सिर्फ सिंधिया को जांच और आलोचना के दायरे में रखना न्यायोचित नहीं है.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः पूजा मेहरोत्रा)


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