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Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतदिग्भ्रमित, दिशाहीन- विपक्ष पर रोनेन सेन का ‘बिना सिर वाले मुर्गे’ का जुमला सटीक बैठता है

दिग्भ्रमित, दिशाहीन- विपक्ष पर रोनेन सेन का ‘बिना सिर वाले मुर्गे’ का जुमला सटीक बैठता है

‘राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता’ से लेकर ‘संस्थाओं से खिलवाड़’ करने के आरोपों के साथ मोदी पर हमले कर रहा विपक्ष अपने गिरेबान में झांकने से परहेज करता रहा है.

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गांधी परिवार समेत तमाम कांग्रेस नेता शुक्रवार को टीवी के परदों पर छाये हुए थे और महंगाई, बेरोजगार से लेकर जरूरी जींसों पर जीएसटी लगाए जाने का जोरदार विरोध कर रहे थे, तब एक वीडियो ब्लॉगर ने एक दिलचस्प ‘मीम’ पोस्ट कर दिया. इसमें भगवा गमछा ओढ़े एक आदमी (इशारा सरकार की ओर) को एक आम आदमी की पिटाई करते दिखाया गया, और एक दर्शक (यानी विपक्ष) जब उसे बचाने जाता है तो वह उसे परे धकेलते हुए कहता है— ‘यह मेरी सरकार है, मुझे मार रही है तो तुम कौन हो? भागो यहां से!’ इसके बाद एक टीवी रिपोर्टर आता है, ‘आप देख ही रहे हैं, लोग कष्ट झेल रहे हैं…. लेकिन विपक्ष मूकदर्शक बना हुआ है, अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहा है…’

कांग्रेस नेताओं को यह मीम बहुत पसंद आया होगा क्योंकि एक तो इसमें मीडिया सरकार की गलतियों के लिए विपक्ष पर निशाना साध रहा है. इससे भी अहम बात यह है कि इसमें ‘जनता’ को भी झिड़का गया है कि वह तकलीफ में है फिर भी नरेंद्र मोदी सरकार से सम्मोहित है. ऐसी ही बातें आप आज कांग्रेस नेताओं की निजी बातचीत में सुन सकते हैं. और केवल कांग्रेस नेता ही मायूस नहीं हैं. ऐसा लगता है कि अपने किले में भाजपा को मात देने वाली, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी यह आशा छोड़ चुकी हैं कि मोदी की पार्टी को 2024 में पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा.

दिग्भ्रमित विपक्ष

एक समय था जब केवल प्याज की कीमत में तेज बढ़ोत्तरी के कारण सरकार गिरा दे गई थी. आज कई जरूरी जींसों की कीमतें आसमान छू रही हैं लेकिन न तो कहीं कोई स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन हो रहा है और न आंदोलन हो रहा है. प्रियंका गांधी वाड्रा ने भले ही पुलिस घेराबंदी के ऊपर से छलांग लगा दी और उन्हें घसीटकर पुलिस वैन में डाल दिया गया और राहुल गांधी को थाने में हिरासत में रखा गया, लेकिन उनका साथ देने के लिए कोई आम आदमी सामने नहीं आया.
सवाल यह है कि विपक्ष जब जनता के मसलों को लेकर आगे आ रहा है, फिर भी लोगों पर कोई असर नहीं हो रहा है, तब विपक्ष क्या करे. कांग्रेस के एक सांसद ने इस लेखक से कहा, ‘आप मीडिया वाले कहते रहते हैं कि विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं है. हम तो केवल सरकार की नाकामियों को उजागर ही कर सकते हैं. 2014 में मोदी ने यही तो किया था. आप कह सकते हैं उनके पास उछालने के लिए ‘गुजरात मॉडल’ था. लेकिन राहुल गांधी यूपीए मॉडल को आगे नहीं रख सकते क्योंकि उसे मतदाताओं ने खारिज कर दिया था. इसलिए यह कहना आसान है कि विपक्ष के पास कहने को कुछ नहीं है.’

दरअसल, ये सांसद महोदय और विपक्षी नेता पेच को पकड़ नहीं पा रहे हैं. वे लोगों से कह रहे हैं कि वे मोदी सरकार के खिलाफ वोट देकर उसे हरा दें. लेकिन ये नेता यह नहीं बता रहे कि वे मोदी को खारिज क्यों करें और राहुल या ममता या अरविंद केजरीवाल को क्यों चुनें. मोदी पर हमला करने के लिए वे जो कहते या करते हैं वह उनकी अपनी कमजोरियों को उजागर कर देता है. आइए, हम मोदी पर विपक्ष के तीरों पर नज़र डालें और देखें कि विपक्षी नेताओं को विकल्प के रूप में मतदाता किस नज़र से देखते हैं.


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केंद्र सरकार पर निरर्थक हमले

पहला मुद्दा— आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता. तथ्य यह है कि कोविड-19 ने मोदी सरकार को पिछले कामकाज पर सवालों से बचने का अच्छा बहाना थमा दिया है. जहां तक वर्तमान स्थिति की बात है, सरकार समर्थक और विरोधी, दोनों तरफ के विशेषज्ञों के पास अपने-अपने सुविधाजनक आंकड़े और तथ्य हैं, जो आम आदमी को उलझन में डालने के लिए काफी हैं. लोग अगर आर्थिक कष्ट में हैं तब भी वे मोदी को छोड़ किस नेता पर भरोसा करेंगे जो उन्हें उबार सकता है— राहुल पर या ममता या केजरीवाल या के.सी. राव पर? कांग्रेस ने महंगाई-बेरोजगारी के खिलाफ शुक्रवार को प्रदर्शन किया, लेकिन वह जमाना गया जब प्याज की महंगाई सरकार गिरा देती थी.

इस साल विधानसभाओं के चुनाव के दौरान ‘दि हिंदू-सीएसडीएस-लोकनीति’ ने जो सर्वे किया था उससे यह संकेत मिला कि महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी से लोग परेशान तो थे लेकिन इससे उनके मतदान आचरण में कोई फर्क नहीं पड़ा. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में सर्वे में भाग लेने वाले 38 फीसदी लोगों ने विकास को एकमात्र सबसे अहम चुनावी मुद्दा बताया, जबकि बेरोजगारी को 7 फीसदी ने और महंगाई को 6 फीसदी ने बड़ा मुद्दा बताया.

उत्तराखंड में, उत्तरदाताओं के चौथाई-पांचवें हिस्से ने कहा कि पिछले पांच वर्षों में बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में वृद्धि हुई है, लेकिन जाहिर है कि यह अंत में ज्यादा मायने नहीं रखता.

इसका अर्थ यह नहीं है कि आर्थिक स्थिति लोगों को चिंतित नहीं करती. बात सिर्फ यह है कि 2024 तक भी वे इतनी आर्थिक परेशानी में रहे कि मोदी के विकल्प की तलाश करने लगें तब उन्हें अर्थव्यवस्था के प्रबंधन का विश्वसनीय रेकॉर्ड रखने वाले नेता शायद ही मिलेंगे.

विपक्ष का दूसरा आरोप यह है कि मोदी/भाजपा/आरएसएस सांप्रदायिकता, हिंदू बहुसंख्यकवादी राजनीति का पत्ता खेल कर भारत के बहुलतावादी लोकाचार को नष्ट कर रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि विपक्ष के नेता इस बहुसंख्यकवादी राजनीति को नाकाम करने के लिए क्या कर रहे हैं? राहुल ‘जनेऊधारी ब्राह्मण’ बन जाते हैं, तो ममता चंडीपाठ करने लगती हैं, और पुरोहितों को भत्ता देने लगती हैं. केजरीवाल दिल्ली में अयोध्या मंदिर की प्रतिकृति के आगे दीवाली पूजा करने लगते हैं और इसका सीधा प्रसारण भी करवाते हैं, और यह सब करदाताओं के पैसे से होता है. उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले असदुद्दीन ओवैसी की गाड़ी पर जब गोलियां दागी गई थीं तब विपक्ष के लगभग सारे नेता खामोश ही रहे थे.

राहुल गांधी ने पहली और आखिरी इफ्तार पार्टी 2018 में की थी. और अयोध्या वे आखिरी बार 2016 में गए थे. कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले में सांप्रदायिक हिंसा में एक हिंदू और दो मुसलमान मारे गए हैं, जिसे पुलिस ‘सांप्रदायिक’ और ‘जवाबी’ हत्याएं बता रही है. राहुल गांधी पिछले सप्ताह कर्नाटक गए थे मगर दक्षिण कन्नड़ जिले से दूर ही रहे, और दूसरी जगह पर शांति और सौहार्द के उपदेश देकर लौट गए.

भारत में धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार दिग्भ्रमित नज़र आ रहे हैं, चाहे वे गांधी परिवार हो, ममता कुनबा हो या राव की जमात हो. वे अयोध्या में बन रह राम मंदिर को देखने नहीं जाएंगे, न ही वे उस मंदिर से 30 किमी पर धन्नीपुर में बन रही मस्जिद देखने जाएंगे. इसे आप विपक्षी नेताओं की नव-ध्रमनिरपेक्षता कह सकते हैं जो न हिंदुओं को भाती है और न मुसलमानों को.

विपक्षी नेताओं का तीसरा आरोप यह है कि आरएसएस/भाजपा चुनाव आयोग से लेकर न्यायपालिका और शैक्षिक तथा सांस्कृतिक संस्थाओं और केंद्रीय जांच एजेंसियों तक सभी संस्थाओं का ‘नाश’ कर रही है. इसके कुछ मामले तो हमारे सामने हैं. मुश्किल यह है कि इन आरोपों का चुनिंदा वामपंथी-उदारवादी बौद्धिक वर्ग ही समर्थन कर रहा है. आम मतदाताओं के लिए ये मुद्दे काफी जटिल हैं और उनका उनके रोजाना के जीवन से शायद ही कोई संबंध है.

अगर तेलुगु देशम पार्टी के किसी नेता का पूर्व सहयोगी या भाजपा के किसी ताकतवर मंत्री का पूर्व कानूनी सलाहकार या आरएसएस की पृष्ठभूमि वाला कोई शख्स ऊंची अदालत में जज बन गया तो आम लोगों को क्या फर्क पड़ता है? लोग जब पश्चिम बंगाल के मंत्री पार्थ चटर्जी के साथियों के घरों से करोड़ों के नोटों की गड्डियां बरामद होते हुए देखते हैं तब उन्हें राजनीतिक बदला लेने के लिए केंद्रीय एजेंसियों के गलत इस्तेमाल के आरोपों का क्या अर्थ लगाएंगे? दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल जब यह आरोप लगाते हैं कि उनके उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को एक फर्जी मामले में फंसाने की साजिश की जा रही है, और सिसोदिया जब पूर्व उप-राज्यपाल के खिलाफ सीबीआई जांच कराने की मांग करते हैं तब आम लोग केंद्रीय एजेंसियों का क्या मूल्यांकन करेंगे?

विपक्ष के नेता बैठकखानों, कॉलेज परिसरों, सेमिनारों और वर्कशॉप्स में शायद अपने कुछ राजनीतिक और वैचारिक सहयोगियों को तो अपनी बात से कायल करने में सफल हो लेते होंगे लेकिन संस्थाओं पर मोदी जमात के कब्जे के उनके आरोप उन लोगों के जेहन में शायद ही दर्ज हो पाते हैं, जो अहमियत रखते हैं, यानी मतदाता.

मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष का चौथा आरोप यह है कि वह गरीबों का पैसा अमीरों में बांट रही है. लेकिन लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा है, उनके बैंक खाते में विभिन्न कार्यक्रमों के नाम से पैसे आ रहे हैं और वे जिस तरह वोट दे रहे हैं उससे जाहिर है कि उन्हें कोई फिक्र नहीं है.

पांचवां आरोप यह है कि मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौता किया है. सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट हवाई हमले के चुनावी असर की शिकायत करने वाले विपक्षी नेता प्रधानमंत्री मोदी पर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर जो निशाना साध रहे हैं वह कुछ ज्यादा ही महत्वाकांक्षी कोशिश है. भारतीय सीमा के अंदर चीनी सेना की घुसपैठ को लेकर मोदी सरकार सकते में भले हो, मोदी की छवि को इससे कोई चोट नहीं पहुंची है. आप चीनी हमले के बारे में गांव के लोगों से बात कीजिए, वे यही कहेंगे कि मोदी ने चीन को डरा दिया है. उन्हें यह जरूर नजर आता है कि राहुल गांधी ने उस किताब का समर्थन किया है जिसमें यह कहा गया है कि निकट भविष्य में अगर युद्ध हुआ तो चीन भारत को 10 दिन में हरा देगा.

भारतीय सेना के बारे में ऐसी राय का समर्थन करने वाले विपक्षी नेता को कितने भारतीय मतदाता वोट देना चाहेंगे?

मोदी सरकार की घेराबंदी करने के लिए विपक्ष को राजनीतिक कल्पनाशीलता की जरूरत है. मोदी की रेखा को काटने में उनके कोशिशें काम नहीं कर रही हैं. और उन्होंने उनकी रेखा से बड़ी रेखा खींचने की तैयारी या क्षमता नहीं दिखाई है. ऐसा लगता है कि वे समझ नहीं पा रह कि मोदी के खिलाफ क्या कारगर होगा, क्या नहीं. इसलिए वे हर दिन एक मुद्दा उठाते हैं और अगले दिन उसे भूल जाते हैं, चाहे वह नोटबंदी का मुद्दा हो, चुनावी बॉन्ड का या पेगासस या चीनी घुसपैठ या अग्निपथ या भ्रष्ट मंत्रियों का या महंगाई, आदि-आदि का.

भारत के राजनयिक रॉनेन सेन भारत-अमेरिका परमाणु संधि के विरोधियों को ‘सिरकटी मुर्गियां’ कहा था. ऐसा लगता है, आज वह जुमला नया अर्थ हासिल कर रहा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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