scorecardresearch
Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमतकांग्रेस की न्यूनतम आय गारंटी बिना कर बढ़ाए संभव ही नहीं

कांग्रेस की न्यूनतम आय गारंटी बिना कर बढ़ाए संभव ही नहीं

राहुल गांधी के न्यूनतम आय गारंटी का प्रस्ताव कितना कारगर है और इसे कैसे लागू किया जाय उस पर चाहे चर्चा हो, पर एक बात तय है कि इस बार का चुनाव आर्थिक मुद्दों पर लड़ा जायेगा.

Text Size:

वादे की शक्ल में एक बड़ी बात 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले सामने आ चुकी है- राहुल गांधी ने न्यूनतम आय गारंटी की बात कही है. अभी तक चुनावी माहौल खोखली और शोरगुल से भरी टकराहटों के मार्फत बनता दिख रहा था- पिछले कुछ सालों में हम ऐसी टकराहटों के साक्षी बने हैं. याद करें: ऐन आखिर के लम्हे को वह चतुर-बौराहट भरी पहलकदमी जिसमें गरीब अगड़ी जातियों को ‘कोटा’ परोसा गया, ‘कभी हां-कभी ना’ की तासीर वाला महागठबंधन, गठजोड़ करने की पुरजोर स्वार्थी कोशिशें, चुनाव के ऐन पहले अपनी-अपनी पार्टियों का पगहा तुड़ाकर भागते नेतागण और इन सबसे बढ़कर एक नज़ारा यह कि ‘किसने-किससे-आखिर क्या कह डाला’!

ऐसे में अगर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी गरीब जनता को न्यूनतम आमदनी की गारंटी देने का वादा करे तो ज़ाहिर है, वह मायने रखता है और उस पर ध्यान जायेगा ही.


यह भी पढ़ेंः भारतीय अर्थव्यवस्था को इकॉनॉर्मिक्स की ज़रूरत, न कि वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ


न्यूनतम आय गारंटी: बहुत कठिन है डगर पनघट की

न्यूनतम आय गारंटी कोई तुरुप का पत्ता नहीं है. आज की तारीख में देखें तो यह बस एक झुनझुना है- एक खाली डब्बा जिसके ऊपर चमकीला पन्नी चढ़ाकर थमा दिया गया है. न्यूनतम आय गारंटी का विचार तो बहुत बड़ा है, लेकिन यह विचार पांव रोपकर खड़ा कैसे हो- इस बाबत राहुल गांधी के छोटे से भाषण में रत्ती बराबर भी कोई बात सुनायी नहीं दी. भाषण से हमें बस इतना ही पता चला कि कांग्रेस गरीबों के फायदे के लिए कुछ नगद-नारायण उनके खाते में डालने के बारे में मन बना चुकी है- बशर्ते खाताधारक गरीबी रेखा से नीचे की ज़िंदगी बसर कर रहा हों.

हां, राहुल के तेवर से यह ज़रूर लगा कि वे न्यूनतम आय गारंटी की बात यों ही नहीं कह रहे, कांग्रेस इस वादे को लेकर गंभीर है और आने वाले दिनों में हम बेशक कुछ उम्मीद पाल सकते हैं.

बहरहाल, अगर आप उन लोगों में नहीं जो राहुल का नाम लेकर कसमे खाते और इस बात पर पक्का यकीन करके चलते हैं कि राहुल ने जो कुछ कहा है उस पर वे अमल करके ही रहेंगे तो फिर आप इस बात को मानेंगे कि न्यूनतम आय गारंटी का राहुल का वादा अभी की हालत में वैसा ही जुमला है जैसा कि किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा.

इन सीमाओं के बावजूद, न्यूनतम आय गारंटी के वादे ने कुछ ऐसा हासिल तो कर ही लिया है जिससे ये संकेत मिले कि यह चुनाव आगे किस दिशा में जाने वाला है. कांग्रेस राष्ट्रव्यापी किसानों की कर्ज़माफी का भी वादा कर चुकी है.

बहुत मुमकिन है, रोज़गार के मोर्चे पर भी हमें कुछ ऐसा ही होता देखने को मिले. इन बातों के साथ न्यूनतम आय गारंटी वाले वादे को जोड़ दें तो साफ हो जाता है कि विपक्ष इस चुनाव को आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित करना चाहता है.

यह बात भी साफ है कि कांग्रेस ने दामन अपनी समावेशी राजनीति का थामा है और उसका ज़ोर कमज़ोर आर्थिक तबके, वंचित सामाजिक वर्ग जैसे दलित और आदिवासी तथा अर्थव्यवस्था में उपेक्षा के शिकार क्षेत्रों जैसे ग्रामीण भारत और खेती-किसानी पर है.

एनडीए की छतरी से बाहर के अन्य विपक्षी दल चुनावी ज़मीन पर ताकतवर तो हैं लेकिन उनकी वैचारिक ज़मीन खोखली है- कांग्रेस ने राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों के मामले में जो लकीर खींची है, ये पार्टियां उसी के पीछे चलेंगी.

अगले कुछ हफ्तों में न्यूनतम आय गारंटी के विचार के रग-रेशों को बारीकी से देखा-परखा जायेगा, उस पर बहस चलेगी, आलोचना होगी और खारिज भी किया जायेगा. न्यूनतम आय गारंटी के चाहे जो भी गुण-दोष हों और यह वादा चाहे जिस नियति का शिकार हो, एक बात तय है: इस वादे में बात को अर्थव्यवस्था पर केंद्रित करने और राष्ट्र के मन-मानस सबसे वंचित व्यक्ति को सबसे आगे रखने की सलाहियत है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह कत्तई नहीं चाहेंगे कि 2019 के चुनाव में आर्थिक नीतियां मुद्दा बनकर उभरें और लोगों का ध्यान बेरोज़गारी तथा खेती-किसानी के संकट पर जाये, लेकिन हम इस दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं.

क्या न्यूनतम आय गारंटी चुनावी मुकाबले की धुरी बन सकेगी, क्या यही मुद्दा बाजी पलट देने वाला वह दांव साबित होगा जिसका इंतज़ार कांग्रेस एक वक्त से करते आ रही है? सारा कुछ न्यूनतम आय गारंटी के प्रस्ताव की बनावट पर निर्भर करता है और इस प्रस्ताव की बनावट कैसी है- इसके बारे में अभी लोगों को बहुत कम जानकारी है.

इतना तो पता चल गया है कि प्रस्ताव सार्वभौमिक बुनियादी आय (यूनिवर्सल बेसिक इनकम-यूबीआई) सरीखा नहीं है. हर नागरिक के खाते में एक नियत राशि देनी है, चाहे उसकी आर्थिक स्थिति जैसी भी हो- ऐसी बात इस प्रस्ताव में नहीं है. हाल में अर्थशास्त्री प्रणब वर्धन या फिर पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम ने बुनियादी आय-सहायता का प्रस्ताव सामने रखा था- न्यूनतम आय गारंटी का प्रस्ताव इससे भी अलग है.

यों समझें कि न्यूनतम आय-गारंटी आमदनी में योग करने वाली एक सहायता-राशि है और यह सहायता राशि उन निर्धन परिवारों को देने की बात कही जा रही है जो नाम-मात्र की आमदनी के सहारे अपना जीवन बसर कर रहे हैं.

स्पष्टता की ज़रूरत

बहरहाल, न्यूनतम आय गारंटी की कई बातों का अभी साफ होना बाकी है. एक सवाल तो यही है कि क्या न्यूनतम आय गारंटी को एक सरकारी योजना यानि एक ऐसी पहल के रूप में चलाया जायेगा जिसके लिये सरकार जब जी चाहे तो बजट में प्रावधान करे और जब ना चाहे तो ना करे या यह प्रस्ताव मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) और राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम के तर्ज पर चलेगा, जिसमें लोगों को संवैधानिक हकदारी दी गई है? प्रस्ताव पेश करने के अंदाज़ से तो यही जान पड़ता है कि एक कानून बनाकर न्यूनतम आय की गारंटी सुनिश्चित की जायेगी. बेशक, होना यही चाहिए लेकिन इस बाबत बातें ज़्यादा स्पष्ट हों तो अच्छा रहे.

दूसरी बात खुद नकद-नारायण की है- आखिर आमदनी में सहायता के रूप में गारंटीशुदा कितनी रकम दी जानी है? अगर मानकर चलें कि यहां आमदनी की बात पूरे परिवार के लिए हो रही है तो फिर यह रकम तकरीबन 18000 रुपये प्रतिमाह की बैठेगी. सातवें वेतन आयोग ने गुजर-बसर करने के तमाम खर्चों को ध्यान में रखते हुये सबसे निचले ओहदे के सरकारी कर्मचारी के लिए इतना ही मासिक वेतन तय किया है. अगर तर्क की तुला पर चढ़ाकर देखें तो माना जा सकता है कि सरकार ने अपने कर्मचारी के लिए जो न्यूनतम जीवन-स्तर तय कर रखा है, कम से कम उतना तो हर नागरिक को हासिल होना ही चाहिए.

आप इस आंकड़े पर एक और रास्ते से भी पहुंच सकते हैं. कल्पना कीजिए कि किसी परिवार में दो जन कमाने वाले हैं और वे 300 रुपये रोज़ के हिसाब से कमाते हैं जो अभी कमोबेश न्यूनतम मज़दूरी की भी दर है. ऐसे में परिवार की मासिक आमदनी 18000 रुपये की ठहरती है. रकम चाहे जितनी भी दी जानी हो, लेकिन प्रस्ताव को गंभीरता से तभी लिया जायेगा जब उसमें नकद-नारायण के बारे में ठोस रूप से कुछ कहा गया हो.

तीसरी बात यह कि आमदनी में योग के रूप में दी जा रही सहायता-राशि के लिए किसी ‘गरीब’ व्यक्ति के चयन का आधार क्या होगा? ज़ाहिर है, यह तो नहीं किया जा सकता ना कि जिस किसी ने भी अपनी आमदनी 8 लाख रुपये से कम घोषित कर रखी है उसे ‘न्यूनतम आय गारंटी’ के प्रस्तावित कार्यक्रम का हकदार मान लें ! यहां मुद्दे की बात यह है कि गरीबी की परिभाषा करना और गरीब की ठीक-ठीक पहचान करना बड़ा कठिन काम है- इसमें गलती और फर्जीवाड़े की बड़ी आशंका होती है.

सार्वभौमिक बुनियादी आय के प्रस्ताव में यह बात उभरकर आयी थी कि किसी कार्यक्रम को नागरिक विशेष को लक्ष्य करके चलाने के तरीके में मुश्किलें हैं. कांग्रेस को स्मार्ट और इंतज़ाम के भरोसेमंद तौर-तरीके बताने होंगे, गरीबी उन्मूलन की पुराने तर्ज की योजनाओं की लीक पर चलना कारगर नहीं साबित होने वाला- अभिजीत बनर्जी और एस्थर डफलो के मुहावरे में कहें तो इन कार्यक्रमों की ‘आर्थिकी’ कमज़ोरी की शिकार रही है.

न्यूनतम आय गारंटी सरीखी योजना में असल मुश्किल उसके तफ्सील को लेकर है. कांग्रेस के प्रवक्ता यह कहते नज़र आ रहे हैं कि इस वादे का ऐलान यों नहीं हुआ- प्रस्ताव को तैयार करने में खूब मेहनत की गई है. आने वाले कुछ हफ्तों में मीडिया में विशेषज्ञ तथा आम जनता कांग्रेस प्रवक्ताओं के इस दावे की जांच-परख करेंगे. आखिर, यह देश अब उस हालत में तो नहीं ही रह गया है कि एक और ‘जुमला सरकार’ बर्दाश्त कर सके.

बात न्यूनतम आय गारंटी सरीखी योजना की दिशा और बनावट तक सीमित नहीं, बल्कि बात राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी है. क्या ये माना जाय कि न्यूनतम आय गारंटी सरीखा प्रस्ताव कुछ और नहीं बस एक चुनावी खुजली है, जिससे सत्ता में आने के बाद निजात पाने के रास्ते नेतागण एक ना एक तरीके से ढूंढ़ ही लेते हैं?


ये भी पढ़े: राहुल गरजे, कहा कांग्रेस ने मोदी की नींद हराम कर दी है


या फिर कांग्रेस सचमुच रकम उन हाथों तक पहुंचाना चाहती है जहां इसकी सचमुच ज़रूरत है? गरीब के हाथ में धन कितना आयेगा और कहां से आयेगा- असल सवाल यही है. न्यूनतम आय गारंटी चाहे किसी भी रूप में चलाया जाये, सरकार को इस पर भारी लागत आयेगी. अरविन्द सुब्रमण्यम का आकलन था कि सार्वभौमिक बुनियाद आय सरीखी किसी योजना में एकदम मामूली सी रकम भी दी जाती है तो खर्चा देश की जीडीपी के 1.3 फीसद के बराबर बैठेगा. प्रोफेसर प्रणब वर्धन ने अनुमान लगाया था कि सार्वभौमिक बुनियादी आय के इस प्रस्तावित रूप को सिर्फ महिलाओं तक सीमित रखा जाता है तो उस पर जीडीपी के 1.6 प्रतिशत के बराबर खर्चा आयेगा. अगर न्यूनतम आय गारंटी को एक सम्मानजनक तरीके से चलाना है तो मुझे नहीं लगता कि इस पर जीडीपी के 2 फीसद से कम खर्चा आयेगा. इसका मतलब हुआ साल के 3.5 लाख करोड़ रुपये जो देश के बजट के तकरीबन सातवें हिस्से के बराबर है.

इतनी रकम राजस्व के मौजूदा दायरे में या फिर इक्का-दुक्का अतिरिक्त सरचार्ज (अधिभार) लगाकर नहीं जुटायी जा सकती. यह खर्चा चूंकि साल दर साल होना है तो ऐसा भी नहीं कर सकते कि एक दफे रकम जुटा ली और अब उससे काम निकाल लिया. आप चाहे अपने बजट में जोड़-घटाव जिस फार्मूले से करें, लेकिन न्यूनतम आय गारंटी सरीखी योजना को लागू करने के लिये आपको कर-राजस्व में इजाफा करना ही होगा.

कर राजस्व बढ़ाने के कई उपाय हैं, जैसे धनिकों को करों में दी जा रही गैर-ज़रूरी छूट को खत्म करना, ऊंची आमदनी वाले तबके के लिए ऊंचे कर लगाना या फिर टर्नओवर टैक्स, वेल्थ टैक्स या इन्हेरिटेंस टैक्स लगाना जैसा कि कई पूंजीवादी देशों में चलन है.

क्या कांग्रेस ऐसी नीति अपनाने को तैयार है?

अगर कांग्रेस ऐसा करने को तैयार है और इस बात को सार्वजनिक रूप से कहना भी चाहती है तो फिर न्यूनतम आय गारंटी का नुस्खा सचमुच रामबाण साबित हो सकता है.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिये यहां क्लिक करें

share & View comments