ज़ी न्यूज पत्रकार रोहित रंजन की गिरफ्तारी को लेकर अजीबोगरीब तमाशा और यूपी पुलिस तथा छत्तीसगढ़ पुलिस के बीच दिखावटी रस्साकसी यह दर्शाने वाली ताजा घटना है कि भारत आज अमेरिका की ‘ब्लू स्टेट-रेड स्टेट’ जैसी मानसिकता की जद में है.
अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के समर्थन में वोटिंग वाले राज्यों के संदर्भ में ‘रेड स्टेट्स, ब्लू स्टेट्स’ का वाक्यांश 2000 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान लोकप्रिय हुआ था, जो राष्ट्र को दो पार्टियों और स्पष्ट तौर पर उनकी अलग विचारधाराओं के बीच विभाजित करता है. रेड स्टेट और ब्लू स्टेट वाली राजनीति यह निर्धारित करती है कि कहां गर्भपात, भांग और बंदूकों का प्रदर्शन आपकी पहुंच में है, कहां आप नस्लवाद पर खुलेआम क्लासरूम में चर्चा कर सकते हैं और यहां तक कि कोविड मास्क पहनने या न पहनने का विकल्प भी चुन सकते हैं.
भारत में यह विभाजन अब कुछ इस तरह का है कि क्या आप सप्ताह के कुछ खास दिनों या त्योहारों के मौसम में स्वतंत्र तौर पर मांस बेच सकते हैं, कहां आप कोई चुटकुला सुना सकते हैं. कहां आप बिना डर प्राइमटाइम टीवी पर चीख-चिल्ला सकते हैं, कहां धार्मिक स्तर पर निर्धारित कपड़े पहनकर स्कूल जा सकते हैं, कहां सार्वजनिक स्थलों पर नमाज़ पढ़ सकते हैं या अपने धर्मस्थल में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल कर सकते हैं. राज्य का रंग ही आपको यह बताता है कि आप विरोधी दल के दलबदलू विधायकों को कहां एकजुट कर सकते हैं और छिपा सकते हैं.
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भारतीय कलर कोडिंग अमेरिका के समान नहीं
साफ नजर आ रहा है कि भारतीय राज्यों की एक कलर कोडिंग धीरे-धीरे आकार ले रही है. लेकिन हमारी रेड और ब्लू लाइन अमेरिका की तरह रूढ़िवादी-उदारवादी समीकरणों में स्पष्ट अंतर नहीं करती है. यह अमेरिकी राजनीति में प्रचलित शब्द को मोटे तौर पर अपनाए जाने जैसा है.
भारतीय राजनेता भाजपा विरोधी धुरी पर एकदम बंटे हुए हैं, और यह उभरता विभाजन भाजपा शासित और अन्य दलों के शासन वाले राज्यों के बीच है. इस तरह कह सकते हैं कि रेड स्टेट भाजपा शासित राज्य हैं और ब्लू स्टेट विरोधी दलों के शासन वाले. और गैर-भाजपा दलों में भाजपा के विरोध को छोड़कर शायद ही कोई समानता है.
अमेरिका में रेड और ब्लू स्टेट की शासन व्यवस्था में विचारधारा लागू करने के तरीके में एकरूपता है. भारत में केवल भाजपा के विरोध मात्र से आप एक सच्चे उदारवादी नहीं बन जाते. यहां कोई स्पष्ट वैचारिक विभाजन नहीं है.
उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र को ही ले लीजिए. उद्धव ठाकरे सरकार के तहत, यह एक ऐसा राज्य था जहां स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी तो बिना किसी डर के परफॉर्म कर सकते थे, लेकिन शरद पवार के खिलाफ अपनी फेसबुक पोस्ट को लेकर अभिनेत्री केतकी चितले सजा से नहीं बच पाईं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अपने आलोचकों के साथ कैसा व्यवहार करती हैं, यह सबको पता है.
मैं सामाजिक स्तर पर जिन तमाम प्रगतिशील, उदार, विविध-विचारधारा वाले लोगों से मिलती हूं, उनका कहना है कि आज केरल, तमिलनाडु, राजस्थान या पश्चिम बंगाल जैसे राज्य रहने के लिए राजनीतिक तौर पर अधिक शांतिपूर्ण प्रतीत होते हैं. ब्लू स्टेट वाली मानसिकता के विस्तार पर जोर देते हुए एक मित्र ने कहा ‘चलो दक्षिण को फिर आबाद करें’, एक अन्य का कहना था कि तमिलनाडु सुरक्षित महसूस होता है क्योंकि वहां रोज़ तीखी धार्मिक बहस नहीं होती है.
भाजपा के आलोचकों और समर्थकों के आधार पर देश में सुरक्षित और असुरक्षित जगहों को लेकर एक धारणा बन रही है. जरा देखिए कि राज्य की पुलिस अपनी सीमाओं के बाहर कितनी सक्रिय है. रोहित रंजन का मामला कोई अपवाद नहीं हैं.
पंजाब पुलिस की एक टीम भाजपा प्रवक्ता तजिंदर पाल सिंह बग्गा को गिरफ्तार करने दिल्ली पहुंचती है, दिल्ली पुलिस पंजाब के पुलिसकर्मियों को हिरासत में ले लेती है, लेकिन अंतत: हरियाणा पुलिस उसे बचाने में सफल रहती है. पश्चिम बंगाल पुलिस की एक टीम गोवा जाकर फिल्म निर्माता और कवि रौद्र रॉय को उनकी एक फेसबुक पोस्ट के लिए गिरफ्तार कर सकती है. यूपी पुलिस ने पिछले दो साल में तमिलनाडु से दो लोगों को गिरफ्तार किया है—एक जिसने मोदी की आलोचना की थी, और दूसरा वो जिसने आरएसएस कार्यालयों को उड़ाने की धमकी दी थी.
लाल और नीले के बीच निरंतर यह झगड़ा कई बार अनुचित तरीकों से भी प्रकट होता है. कानून और व्यवस्था, राज्य का विषय है और इस पर केंद्र और राज्यों के बीच अक्सर टकराव होता रहता है. हालिया वर्षों में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों ने सीबीआई जांच को ना कहकर केंद्र की भाजपा सरकार को चुनौती दी है. और केंद्र ऐसे में एनआईए को तैनात करके उन्हें पीछे धकेल रहा है. एनआईए के लिए उसे राज्य की अनुमति की आवश्यकता नहीं है.
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कैसे तय होता है राज्य का रंग
एक समय, भारतीय राज्यों में अन्य तरह के विभाजन थे—मसलन, उत्तर बनाम दक्षिण, अमीर बनाम पिछड़े, ज्यादा टैक्स देने वाले बनाम टैक्स उपभोग वाले राज्य, बीमारू बनाम बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्य. लेकिन, मौजूदा समय में देश में हर रोज विरोधियों को मात देने वाली राजनीति ने विभाजन की प्रकृति को बदल दिया है.
कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि किसी राज्य विशेष में रहने वाले सभी मतदाता समान ढंग से मतदान करते हैं. यह वास्तव में समय के साथ बने सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण का मिश्रण है जो राज्य का लाल या नीला रंग तय करता है.
हालिया समय में कर्नाटक की प्रकृति का निर्माण’दक्षिण के उत्तर प्रदेश’ की तरह हो रहा है. लेकिन बदलाव, इसके सामाजिक-आर्थिक संकेतकों के संदर्भ में नहीं, बल्कि पिछले कुछ सालों में रूढ़िवादी हिंदुत्व वाला दृष्टिकोण मजबूत होने से जुड़ा है. यह तब साफ नजर आता है, जब टीपू सुल्तान के नाम का जिक्र होता है, जब हिंदू समूह के लोग त्योहारों के दौरान हलाल मांस की दुकानें के बहिष्कार का आह्वान करते हैं, और जब हिजाब पहनने वाली बच्चियों को स्कूल में रोका जाता है, उन्हें परेशान किया जाता है.
फिर भी आखिर क्या वजह है कि आपको अभी तक भारत की वैचारिक राजनीति में टेक्सास बनाम कैलिफोर्निया जैसी पूर्वानुमान शैली नजर नहीं आई है? ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीतिक दृष्टिकोण और मतदान व्यवहार अभी अस्थिर हैं और पत्थर की लकीर जैसे गहरे नहीं हैं—वे लगातार बनते-बिगड़ते रहते हैं. तेलंगाना में भाजपा की पैठ को ही देख लीजिए.
एक राष्ट्र, विभाजित राज्य
हाल में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की तरफ से गर्भपात के संवैधानिक अधिकार से जुड़े ऐतिहासिक ‘रो बनाम वेड’ फैसले को पलट दिए जाने के बाद देश में रेड और ब्लू की राजनीति और भी गहराती जा रही है.
द अटलांटिक ने पिछले माह लिखा, ‘रेड स्टेट और ब्लू स्टेट के बीच बढ़ती असहमति—और वैर-भाव—21वीं सदी के अमेरिका की चारित्रिक विशेषता को परिभाषित करता है. यह 20वीं शताब्दी के मध्य दशकों से उलट है, जब मूल प्रवृत्ति एक-दूसरे के अधिक करीब आने वाली थी.’
अमेरिका में दोनों ट्रेंड के बीच कम से कम आधी सदी का अंतर है.
संयोग से भारत में ब्लू स्टेट्स-रेड स्टेट्स की तरह का टकराव जनभावना में राष्ट्रवाद तेजी से उभरने के साथ बढ़ा है. खासकर ऐसे समय में जब भाजपा एक राष्ट्र, एक टैक्स; एक राष्ट्र एक चुनाव; एक राष्ट्र एक पहचान पत्र; और एक राष्ट्र एक भाषा पर ज़ोर दे रही है.
इसलिए, अमेरिका के उलट भारत में निकटता और दूरी बढ़ना एक साथ और काफ़ी हद तक अराजक स्थिति में नजर आते हैं. यह कुछ टूटा होने से कहीं ज्यादा है. यह देश की दशा-दिशा के लिए नुकसानदेह है. शायद, समय के साथ यह बिखरा विभाजन स्पष्ट हो जाएगा और अनुमानित तौर पर स्पष्ट वैचारिक रेखाओं के साथ होगा—तब शायद हमारे पास न्यूनतम सरकार होगी, और राजनीति का संचालन भी आसान होगा.
रमा लक्ष्मी दिप्रिंट की ओपिनियन और फीचर संपादक हैं. वह @RamaNewDelhi ट्वीट करती हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.
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