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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतसेना को युद्ध के सियासी मकसद की जानकारी जरूर होनी चाहिए ताकि वह गफलत में न रहे

सेना को युद्ध के सियासी मकसद की जानकारी जरूर होनी चाहिए ताकि वह गफलत में न रहे

राष्ट्रहित के लिए सेना को हमेशा चौकस रहना पड़ेगा कि उसकी कार्रवाइयां कहीं अनजाने में गलत मकसदों की खातिर अपनी तरफ से सही समझ कर न कर दें.

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प्रुसियाई जनरल कार्ल वॉन क्लाउज़विज की इस सूक्ति को अक्सर उद्धृत किया जाता है कि “युद्ध दरअसल राजनीति को दूसरी तरह से जारी रखने का एक तरीका है”. इसमें यह भाव शामिल है कि कूटनीतिक, आर्थिक, वैचारिक, आदि सभी उपायों के विफल हो जाने के बाद युद्ध का विकल्प चुनने के पीछे कोई-न-कोई राजनीतिक मकसद जरूर होता है. आधुनिक युग में, इसमें छद्म युद्ध समेत ताकत के उप-पारंपरिक किस्म के इस्तेमाल भी शामिल हैं.

वैसे, राजनीतिक और सामरिक लक्ष्य युद्ध के संदर्भ में दो अलग-अलग अवधारणाएं ग्रहण कर लेते हैं. राजनीतिक लक्ष्य का अर्थ है वह अंतिम मकसद जो कोई देश या देशों का ग्रुप सैन्य शक्ति के इस्तेमाल से हासिल करना चाहता है. यह युद्ध का ‘क्या’, उसकी वजह होता है. इसके विपरीत सामरिक लक्ष्य का अर्थ है वे खास लक्ष्य, जो सेना राजनीतिक मकसद की खातिर हासिल करना चाहती है. यह युद्ध का ‘कैसे’ है, वे साधन जिनके बूते सेना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करेगी.

प्रबंधन के सिद्धांतों में अक्सर कहा जाता है कि कोई टीम अपनी चतुराई से आपको चकित कर सकती है अगर आप उसे यह बता देते हैं कि उसे ‘क्या’ करना है, बजाय इसके कि आप यह बताएं कि वह ‘क्या’ ‘कैसे’ हासिल करना है. यह राजनीतिक स्तर पर हासिल किए जाने वाले अपेक्षित लक्ष्य और उसे सामरिक क्षेत्र में कैसे हासिल करना है उनके बीच की पारस्परिक क्रिया के लिए भी सच है.
इसलिए सेना और राजनीति, दोनों का नेतृत्व करने वालों के लिए जरूरी है कि वे युद्ध के राजनीतिक मकसद को समझें, क्योंकि यह संघर्ष के स्वरूप को समझने का आधार है. राजनीतिक मकसद की साफ समझ के युद्ध में विजय को परिभाषित करना मुश्किल होगा, और यह युद्ध को जीतना और उसे उसके तार्किक अंत तक पहुंचाना कठिन हो जाएगा.

राजनीतिक और मिलिट्री लक्ष्य में कैसे फर्क है

राजनीतिक और मिलिट्री के लक्ष्यों में कई तरह के अंतर हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, किसी युद्ध का राजनीतिक मकसद एक नयी सरकार बनाना या किसी भू-भाग पर कब्जा करना हो सकता है. लेकिन मिलिट्री का लक्ष्य हमेशा किसी खास शहर पर कब्जा करना या किसी खास दुश्मन की सेना को परास्त करना हो सकता है. कुछ मामलों में राजनीतिक लक्ष्य अस्पष्ट हो सकता है, जैसे लोकतंत्र की स्थापना करना या मानवाधिकारों की रक्षा करना, जबकि मिलिट्री का लक्ष्य हमेशा ठोस किस्म का ही होता है जैसे दुश्मन के इन्फ्रास्ट्रक्चर को नष्ट करना या उसके नेताओं को बंदी बनाना.

राजनीतिक और सामरिक लक्ष्यों में अंतर उनकी संभावनाओं को लेकर भी हो सकता है. युद्ध का राजनीतिक मकसद व्यापक और दीर्घकालिक हो सकता है, जबकि सामरिक लक्ष्य छोटा और अल्पकालिक हो सकता है.
उदाहरण के लिए, वियतनाम युद्ध में अमेरिका का राजनीतिक मकसद दक्षिण-पूर्व एशिया में साम्यवाद के विस्तार को रोकना था. लेकिन सामरिक लक्ष्य उत्तरी वियतनामी सेना और विएत कांग को परास्त करना था. राजनीतिक मकसद पूरा करने के लिए लंबे समय तक लगातार सैन्य अभियान चलाने की जरूरत थी, जबकि सामरिक लक्ष्य कम समय में कई तरह की सामरिक विजय हासिल करके हासिल किया जा सकता था.

भारत के मामले में, एक उदाहरण 1962 का भारत-चीन युद्ध है. चीन ने ‘भारत को सबक सिखाने’ और उसे एक क्षेत्रीय स्वर के रूप में उभरने से रोकने के राजनीतिक मकसद से युद्ध छेड़ा. इस मकसद की खातिर सैन्य लक्ष्य था बड़े भूभाग और प्रमुख इलाकों पर कब्जा करना तथा भारतीय सैनिकों का संहार करना.
समान्यतः, राजनीति और सेना का नेतृत्व करने वालों के लिए अपने-अपने लक्ष्यों और रणनीतियों के मामले में तालमेल महत्वपूर्ण होता है, ताकि अपने देश या मित्र देशों के समूह (मसलन नाटो) के लिए वे सर्वश्रेष्ठ नतीजे हासिल कर सकें. जब राजनीतिक और सैन्य लक्ष्य मिलते-जुलते होते हैं तब कामयाबी की संभावना उनमें तालमेल न होने की स्थिति में कामयाबी की संभावना से कई गुना ज्यादा होती है. यह बुनियादी बात लग सकती है लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जब दोनों एक-दूसरे के पूरक नहीं रहे.

उदाहरण के लिए, अफगानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन का राजनीतिक मकसद तालिबान को सत्ता से हटाकर वहां एक स्थिर लोकतांत्रिक सरकार बनाना था. सामरिक लक्ष्य तालिबान को हराकर यह मकसद हासिल करना था. सेना तालिबान को हराने का सामरिक लक्ष्य हासिल करने और अफगानिस्तान पर कब्जा करने में सफल रही लेकिन अमेरिका वहां एक स्थिर लोकतांत्रिक सरकार बनाने का राजनीतिक मकसद पूरा नहीं कर पाया. इस कारण वहां से उन्हें अचानक और नाटकीय ढंग से निकलना पड़ा.

यह सवाल कायम है कि इन दोनों में से कोई लक्ष्य अमेरिका के हित में था या नहीं.


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राष्ट्रीय हित की कसौटी

कई बार सरकारें आंतरिक संघर्षों से ध्यान हटाने के लिए या केवल सत्ता में बने रहने के लिए युद्ध कर बैठती हैं. बाहरी खतरों के कारण भी कई देश और उनकी जनता राष्ट्रवादी भावना के तहत एकजुट हो जाती है और आंतरिक असंतोष को कुछ समय के लिए भूल जाती है. ऐसे भटकाव शायद ही सफल हो पाते हैं क्योंकि जनता ऐसे बहानों का मकसद समझ जाती है.

अपने संदर्भ में भी यह आकलन करना चाहिए कि राजनीतिक मकसद के लिए सेना का इस्तेमाल क्या देश के हित में है या यह केवल अपनी बढ़त लेने अथवा अपनी चलाने की कोशिश है.

मुंबई में 26/11 के हमलों का रणनीतिक संयम के नाम पर जवाब न देने के हमारे फैसले ने हमारी छवि को कमजोर किया था, हमें दंत विहीन शेर के रूप में पेश किया, बावजूद इसके कि हमारे पास विशाल सेना है. इसके विपरीत उड़ी में हमले के बाद किए गए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ ने हमारा यह नया संकल्प उजागर कर दिया कि हम ऐसे उकसावों को बर्दाश्त नहीं करेंगे. शेर ने अपने पंजे दिखा दिए थे. इस ऑपरेशन एवं दूसरी सैन्य कार्रवाइयों ने राष्ट्रहित में राजनीतिक मकसदों को पूरा करने के लिए सैन्य शक्ति के इस्तेमाल की हमारी इच्छाशक्ति और क्षमता को प्रदर्शित कर दिया था.

इसका अर्थ यह नहीं है कि सेना का राजनीतिकरण किया जाए, बल्कि यह इस बात को रेखांकित करता है कि सेना की भूमिका समग्र राष्ट्रीय ताकत के साधन के रूप में हो जिसका जरूरत पड़ने पर ही इस्तेमाल किया जाए. सेना को हमेशा चौकस रहना पड़ेगा कि उसकी कार्रवाइयां राष्ट्रहित में हों और वह गलत मकसदों की खातिर अनजाने में अपनी तरफ से सही काम न कर रही हो.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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