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Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतकश्मीर में 4जी के बिना ही उग्रवाद अपने चरम पर पहुंचा था लेकिन कोर्ट में मोदी सरकार ये बात भूल जाती है

कश्मीर में 4जी के बिना ही उग्रवाद अपने चरम पर पहुंचा था लेकिन कोर्ट में मोदी सरकार ये बात भूल जाती है

कोविड महामारी के कारण तमाम शैक्षिक गतिविधियां ठप पड़ी हैं और इंटनेट शिक्षा का एकमात्र माध्यम रह गया है. जम्मू-कश्मीर को 4जी से वंचित रखना मौलिक अधिकार छीनने जैसा है.

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सोमवार को दिन भर की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में 4जी इंटरनेट बहाल करने की एक याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा है. निर्णय जब भी आता है, तो उसमें या तो इसी साल के एक फैसले के अनुरूप हाई-स्पीड इंटरनेट के अधिकार के मौलिक अधिकार होने की बात पर ज़ोर दिया जाएगा या फिर इसे खारिज कर दिया जाएगा.

यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने दलील दी है कि 4जी इंटरनेट ना होने के कारण केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं पर बुरा असर पड़ रहा है.

लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण, याचिका पर फैसले से ये भी ज़ाहिर होगा कि क्या सुप्रीम कोर्ट देश के अन्य भागों में जनता को उपलब्ध 4जी इंटरनेट के अधिकार से जम्मू-कश्मीर के लोगों को वंचित रखने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा दी गई भ्रामक दलीलों को यों ही मान लेता है.

अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल द्वारा प्रस्तुत केंद्र और केंद्रशासित क्षेत्र प्रशासन की दलीलें भ्रामक से लेकर बिल्कुल बकवास की श्रेणी तक की थीं, जिनसे जजों का अक्सर सामना होता है और सामन्यतया वे उन्हें नज़रअंदाज़ करते हैं.

आतंकवाद से संबंध

किसी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र में 4जी इंटरनेट और अन्य प्रतिबंधों को आतंकवाद में संभावित उछाल से जोड़ने की दलील हास्यास्पद और भ्रामक है. जब 2016 में नोटबंदी हुई थी तो हमें बताया गया था कि यह उसका उद्देश्य अन्य बातों के साथ-साथ आतंकी फंडिंग पर रोक लगाना भी है. जम्मू-कश्मीर में हाल के आतंकवादी हमलों से तो यही लगता है कि कई अन्य दावों की तरह वो दावा भी खोखला था.

पिछले साल अगस्त में जब मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का फैसला किया, तो वाहवाही और जयकारों के बीच सरकार ने देश को आश्वस्त किया था कि ये कदम जम्मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार और आतंकवाद के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा. लेकिन ज़मीनी स्तर पर ज़्यादा कुछ बदला नहीं दिखता.

हालांकि सेना, जम्मू-कश्मीर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बहादुर जवान घाटी में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में लगातार अपनी जान गंवा रहे हैं, लेकिन पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगा रखी है कि चरमपंथ बस आखिरी सांस ले रहा है.

लेकिन अपनी हताशा में, वास्तविकता से अनभिज्ञ सरकार दूर की कौड़ी लाते हुए अब आतंकवाद को हाई-स्पीड इंटरनेट से जोड़ रही है. अगला नंबर किसका है: सिनेमा और टीवी? क्या पता चरमपंथी और उनके हिमायती लोगी टीवी सीरियलों और फिल्मों से प्रेरणा ले रहे हों?


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अच्छा होगा जो सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के दावों के बेतुकेपन पर गौर करे. जजों को बस एक सामान्य सवाल पूछना चाहिए: क्या इंटरनेट पर प्रतिबंध वास्तव में आतंकवाद को रोकने में सहायक है? अगस्त 2019 के बाद, जब केंद्र ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का फैसला करते हुए पुराने राज्य को दो केंद्रशासित क्षेत्रों में विभाजित कर दिया, जम्मू-कश्मीर के पास छह महीने के लिए कोई इंटरनेट नहीं था. 2जी सुविधा वाला मोबाइल इंटरनेट जनवरी में बहाल किया गया है. लेकिन उग्रवादियों ने अपनी गतिविधियों को उसी तरह जारी रखा जैसा वे 80 के दशक के अंत में और 90 के दशक में कर रहे थे, जब राज्य में मोबाइल इंटरनेट या ब्रॉडबैंड नहीं था.

याचिकाकर्ताओं के वकील हुज़ेफ़ा अहमदी ने भी खंडपीठ के समक्ष इस तथ्य का उल्लेख किया, ‘जम्मू-कश्मीर में सर्वाधिक आतंकवादियां गतविधियां 1990 के दशक में देखी गई थीं जब वहां इंटरनेट नहीं था.’

राष्ट्रीय हित के नाम पर

सुनवाई के दौरान वेणुगोपाल ने एक बार फिर उन दो शब्दों का उल्लेख किया जिन्हें हम लगभग रोज़ ही सुनते हैं– राष्ट्रीय हित. दुर्भाग्य से, कई मामलों में अदालतें भी राष्ट्रीय हित के बहाने को स्वीकार कर सरकार के असंवैधानिक या मनमाने कार्यों की अनदेखी करती रही हैं. ऐसा करते हुए, अदालतें इस तथ्य को भी नज़रअंदाज़ कर देती हैं कि उनका काम नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है, न कि राष्ट्रीय हितों की रक्षा के नाम पर सरकार के हर भ्रामक या झूठे दावे को स्वीकार करना.

अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल इतना पर ही नहीं रुके, बल्कि उन्होंने एक हास्यास्पद दलील ये भी दी कि 4जी इंटरनेट पर प्रतिबंध से शत्रुओं को ‘सेना की गतिविधियों’ की जानकारी नहीं मिल पा रही है. उन्होंने कोर्ट के समक्ष कहा, ‘यह जम्मू-कश्मीर की संपूर्ण आबादी की सुरक्षा से जुड़ी है. कल, कुछ दुखद घटनाएं हुईं. ये लोग आसानी से सेना की गतिविधियों का वीडियो बना सकते थे क्योंकि उन पर भरोसा किया जाता था. यदि शत्रुओं के पास 4जी होता तो वे सेना की गतिविधियों की जानकारी पा सकते थे.’

सुविज्ञ वकील और उनके लिए दलील जुटाने वालों को शायद ये नहीं मालूम कि प्रौद्योगिकी संचालित इस दौर में, सैनिकों की आवाजाही की जानकारी प्राप्त करने के लिए शत्रुओं को 4जी इंटरनेट की आवश्यकता नहीं है. अब ये काम उपग्रह करते हैं.

इंटरनेट पर पाबंदी यानि आवश्यक सेवाओं की मनाही

क्या जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा का अधिकार है?

मामले पर फैसला करते समय खंडपीठ को इस बात का ध्यान रखना होगा कि भारत के नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का अधिकार मिला हुआ है.

कोविड प्रभावित इस कठिन दौर में, जब केवल इंटरनेट सक्षम लैपटॉप और मोबाइल फोन से ही वर्चुअल कक्षाओं में पढ़ाई की जा सकती है, सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए था कि जम्मू-कश्मीर के युवा और मासूम प्रतिभाओं को भी वो सुविधाएं मिलें जो देश के बाकी हिस्सों में उपलब्ध हैं.

स्वास्थ्य सेवाओं और व्यवसायों पर भी हूबहू यही बात लागू होती है.


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वास्तव में, इनसे जुड़ी प्रतीकात्मकता के अलावा, इनको सुनिश्चित करना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य भी है. और, किसी संकुचित दृष्टिकोण की वजह से यदि सरकार अपने कर्तव्यों से विमुख होती है, तो ऐसे में कोर्ट का ये कर्तव्य हो जाता है कि वो हस्तक्षेप करे.

न्यायपालिका में आस्था

जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट की उपलब्धता पर अपने 10 जनवरी के फैसले में जस्टिस एनवी रमन्ना, बी सुभाष रेड्डी और बीआर गवई की खंडपीठ ने कहा था कि अदालत के पास ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा चिंताओं के बीच संतुलन बिठाने’ की सीमित गुंजाइश है ‘ताकि जीवन जीने के अधिकार की गारंटी और उसके सबसे अच्छे तरीके से उपभोग को सुनिश्चित किया जा सके.’ खंडपीठ ने ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा के बीच हमेशा चलने वाले द्वंद्व’ का ज़िक्र करते हुए ये सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया कि ‘(सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच) प्राथमिकता का पेंडुलम किसी भी दिशा में इतना नहीं जाए कि उनमें से किसी एक को प्राथमिकता दूसरे की कीमत पर मिले.’

चूंकि उसी खंडपीठ ने सोमवार को 4जी वाली याचिका की भी सुनवाई की है, इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि वह अपनी कही बात को याद रखेगी.

खंडपीठ ने माना था कि इंटरनेट का उपयोग एक मौलिक अधिकार है और सरकार केवल संविधान के अनुच्छेद 19 (2) और (6) की कसौटी पर परीक्षणों, जिसमें समानुपातिकता शामिल है, के अनुरूप ही इसे सीमित कर सकती है.

सुप्रीम कोर्ट के लिए ये मोदी सरकार की दलीलों को खारिज करने और अपने द्वारा निर्धारित कानून पर फिर से ज़ोर देने का अवसर है.

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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