आज के भारत में एक राजनीतिक स्तंभकार के लिए गलत होने से बुरी केवल एक ही चीज है. वह है उसका सही होना.
एक महीने से भी कम समय पहले, मैंने इस कॉलम में विरोध करने वाले पहलवानों की दुर्दशा के बारे में लिखा था. “जिस सरकार के नारों में “बेटी बचाओ” शामिल है, वह बृज भूषण सिंह का समर्थन कैसे कर सकती है? क्या यह शर्मिंदा करने वाली बात नहीं है कि इसके आलोचक अब यह कह रहे हैं कि नारा बदलकर “बेटी को हमारे से बचाओ” कर दिया जाना चाहिए?
मेरा निष्कर्ष यह था कि नहीं, सरकार शर्मिंदा नहीं थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके या उनके किसी खास व्यक्ति के खिलाफ होने वाले आंदोलन के सामने न झुकने और कार्रवाई न करने को अपने सम्मान का मुद्दा बना लिया, चाहे आरोप कितना भी गंभीर क्यों न हो, क्योंकि इसे उनकी कमजोरी माना जाएगा.
इसलिए उन्होंने उस आदमी की रक्षा करते हुए जनमानस की भावनाओं के खिलाफ पहलवानों को धीरे-धीरे सुबकते हुए छोड़ दिया, जिस पर उनके यौन उत्पीड़न का आरोप है. यहां तक कि बृजभूषण का रंगीन अतीत, जिसमें हत्या के आरोप और आपराधिक अदालतों के कई चक्कर लगाना शामिल है, मोदी को इस बात के लिए मनाने को पर्याप्त नहीं था कि कम से कम उनकी सरकार कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष को इस मामले की जांच के दौरान तक पद छोड़ने के लिए कहे.
दुर्भाग्य से, मैं सही था. लगभग एक महीना हो गया है और जबकि पीएम मोदी ने दुनिया का दौरा कर चुके हैं और औपचारिक रूप से सेंगोल को अपनाया चुके हैं, पर उन्होंने ऐसे दिखाने की कोशिश की कि जैसे पहलवान मौजूद ही नहीं हैं.
लेकिन, मैंने उस कॉलम में यह भी लिखा था, कई बार ऐसा भी हुआ है कि अपनी शुरुआती जिद के बावजूद प्रधानमंत्री को विरोधों को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. कृषि कानूनों का आंदोलन इसका एक उदाहरण है. दूसरा मुद्दा सीएए है.
मैंने तर्क दिया कि इस उथल-पुथल में से कोई भी सही-गलत की भावना या सही काम करने की इच्छा से प्रेरित नहीं था. केवल एक चीज जो मायने रखती थी वह थी राजनीतिक लाभ.
खैर, मुझे लगता है कि समय आ गया है कि सरकार पहलवानों द्वारा की गई शिकायतों पर ध्यान दे. इसलिए नहीं कि उन्हें इस बात की परवाह है कि उनके साथ क्या हुआ. इसलिए भी नहीं कि उसे बृजभूषण सिंह जैसे आदमी की रक्षा करने में शर्म आती है. और इसलिए भी नहीं कि सरकार भारत की बेटियों को बचाना चाहती है.
बल्कि इसलिए क्योंकि विरोध ने सरकार को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है.
प्रधानमंत्री को इस बात की खुशी नहीं हो सकती थी कि नए संसद भवन के उद्घाटन के दिन, उन्हें समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर अपनी खबर के साथ पुलिस बल की महिला पहलवानों के साथ मारपीट की तस्वीरों को देखना पड़ा. न ही वह इस बात को लेकर रोमांचित हो सकते हैं कि विरोध प्रदर्शन पर अब अंतरराष्ट्रीय ध्यान जाना शुरू हो गया है. कुश्ती को रेग्युलेट करने वाली वैश्विक संस्था यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग भी वैश्विक मीडिया के जरिए अपना गुस्सा जाहिर कर रही है.
मोदी को भी आखिरकार यह एहसास हो गया होगा कि कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन और अपने साथ यौन शोषण किए जाने का आरोप लगाने वाली महिला पहलवानों के विरोध प्रदर्शन में के खिलाफ दुनिया द्वारा की जाने वाली प्रतिक्रिया में काफी अंतर है. खासकर जब खेल निकाय का प्रमुख आपराधिक अदालतों से नाता रहा हो और वह सत्ताधारी दल का एक शक्तिशाली नेता हो.
अगर हम यह भी मान लें कि मोदी को परवाह नहीं है कि दुनिया उनके बारे में क्या कहती है, (हालांकि, निश्चित रूप से, यह स्पष्ट है कि वह करते हैं), फिर भी देश की प्रतिक्रिया पर तो विचार करने की बिल्कुल जरूरत है.
चिंता करने के कारण हैं
इसका मुकाबला करने के लिए प्रधानमंत्री के पास तीन चीजें हैं: एक तो सीधा हिंदुत्व. दूसरा कल्याणकारी योजनाओं वाली छवि. और तीसरा मध्यम वर्ग का वह विशाल समर्थन है जिसके तहत उनके समर्थक उन्हें एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति के रूप में देखते हैं जो अपने लिए कुछ नहीं चाहता बल्कि एक नया भारत बनाना चाहता हैं.
यह आखिरी वर्ग ही है जिसको लेकर मोदी को सोचना शुरू करना चाहिए. मध्य वर्ग हद से ज्यादा अस्थिर है. यह वही वर्ग है जिसने इंडिया शाइनिंग की जय-जयकार की और फिर अचानक लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में सब कुछ भूल गया और खुश होकर मनमोहन सिंह का स्वागत किया. फिर यह वर्ग उसी मनमोहन सिंह के खिलाफ हो गया और अपनी अपना विश्वास मनमोहन सिंह से शिफ्ट करके नरेंद्र मोदी में व्यक्त कर दिया.
बीजेपी के मौजूदा स्वरूप ने कभी भी मध्यम वर्ग की अस्थिरता को लेकर ज्यादा चिंता नहीं की है क्योंकि उसका मानना है कि उसने मध्य वर्ग को पूरी तरह से अपने पक्ष में कर लिया है. विदेश में किए जाने वाले क्रेडिट कार्ड के प्रत्येक लेन-देन पर 20 प्रतिशत टैक्स के विवाद पर आधिकारिक प्रतिक्रिया को लें. पहली बात तो यह है कि सरकार में किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि यह फटाफट योजना मध्यम वर्ग के बीच कितनी अलोकप्रिय होगी. और फिर, जब इससे थोड़ा पीछे हटने का दबाव बना, तो इसके अधिकारियों ने घोषणा की कि यह ठीक है क्योंकि यह गरीबों को प्रभावित नहीं करेगा.
तो यह 2,000 रुपये के नोटों को वापस लेने के साथ था. घोषणा से सरकार ने जो गड़बड़ी की (क्या सभी को नोट लौटाने के लिए फॉर्म भरना पड़ेगा या नहीं, 30 सितंबर तक ये नोट चलेंगे या नहीं, वगैरह-वगैरह), एक बार फिर यही भावना थी: हम चिंतित नहीं हैं क्योंकि इससे गरीबों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
वास्तव में, गरीबों को प्रभावित न करने की चिंता हाल की सरकारी प्रतिक्रियाओं की विषयवस्तु रही है, यहां तक कि जब यह उन मुद्दों के बारे में भी जहां कभी किसी ने भी यह सुझाव न दिया हो या विश्वास न किया हो कि गरीबों को नुकसान होगा. ये हमेशा मध्यम वर्ग की चिंताएं थीं.
लेकिन आधिकारिक बयान बिल्कुल स्पष्ट है: अगर यह केवल मध्यम वर्ग को प्रभावित करता है, तो इससे वास्तव में कोई फर्क नहीं पड़ता. उनकी चिंता प्राथमिकता नहीं है.
अपने आप में इस तरह के मुद्दे कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन सरकार की प्रतिक्रिया के स्वर भड़कने लगे हैं. यह लगातार मध्यम वर्ग की चिंताओं को खारिज करता है और मध्यम वर्ग को बहुत अमीरों के साथ जोड़ देता है, एक ऐसा वर्गीकरण जिससे अधिकांश मध्यम वर्ग के लोग नाराज होते हैं.
यह मध्यवर्ग ही है कि अपना यौन शोषण का आरोप लगाने वाली महिलाओं जो कि भारत के लिए पदक लेकर आईं, उन पर बीजेपी विश्वास करने से इनकार कर रही है. यह स्पष्ट है कि उसने पहलवानों को केवल इसलिए किनारे कर दिया है ताकि वह एक गलत व्यक्तिक की रक्षा कर सके, जिसकी उसे यूपी में अपने राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए जरूरत है.
जिसकी आशा थी वैसा नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी से सिस्टम को साफ करने की उम्मीद थी ताकि राजनीतिक ठग अपना प्रभाव खो दें, जिससे महिलाएं सुरक्षित रहें और फिर कभी निर्भया जैसी घटना न हो. मोदी का पहलवानों से विश्वासघात उनके जनादेश का विश्वासघात है.
प्रधानमंत्री को यह सब क्यों नहीं दिखता? निश्चित रूप से, यह स्पष्ट है?
इसके दो स्पष्टीकरण हो सकते हैं. पहला यह है कि शायद वह वास्तव में जो हो रहा है उसकी गंभीरता से वाकिफ नहीं हैं. जब निर्भया कांड हुआ तो टीवी एंकर्स सरकार को खूब गालियां दे रहे थे. सड़कों पर गुस्साए लोगों ने प्रदर्शन किया.
अब तो ऐंकर्स को सच छुपाने के लिए बनाया जाता है. और जब विरोध होता है, तो उन्हें ताकत का इस्तेमाल करके दबा दिया जाता है – जैसा कि पहलवानों के साथ किया गया.
यह हमें दूसरी व्याख्या की तरफ लेकर जाता है. प्रधानमंत्री ने हिंदुत्व और हिंदू प्रतीकवाद में अपनी आस्था रखी है, जैसा कि हमने नए संसद भवन के उद्घाटन के समय देखा था. अभी अयोध्या का मंदिर आना बाकी है और वह संसद से भी बड़ा हिंदुत्व का दिखावा होगा.
यहां तक कि अगर कल्याणवाद (welfarism) कम रिटर्न दे रहा है (जैसा कि कर्नाटक में दिखा) और मध्यम वर्ग कुछ हद तक अलग-थलग होता है, तो हिंदुत्व की लहर में देश बह जाएगी और 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा सत्ता में वापस आ जाएगी- या ऐसा प्रधानमंत्री सोचते हैं.
वह सही हो सकते हैं.
लेकिन यह काफी कुछ गलत भी हो सकता है.
तो मध्यम वर्ग को अलग क्यों करें? भारत की महिलाओं के ऊपर एक गैंगस्टर को क्यों चुनें? क्या यह वास्तव में जोखिम भरा है?
शायद ये सवाल मोदी खुद से पूछते हैं. अगर वह ऐसा करते हैं तो पहलवानों के मुद्दे पर जल्द ही डैमेज कंट्रोल के लिए कुछ करेंगे. अपने अहंकार पर अपना स्वार्थ चुनने का समय आ गया है.
(वीर सांघवी प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और एक टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsangvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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