ये मुहिम एक तरह से उन पुरुषों के लिए चेतावनी है जो सोचते हैं कि उनके पास पद की ताकत है और वो कुछ भी कर सकते हैं.
भारत में #मीटू मूवमेंट की आंधी की चल रही है. पत्रकारिता, बॉलीवुड और राजनीति सभी इसके चपेट में हैं. ऐसा लगता है मानों महिलाओं को आवाज़ मिल गई है. 20 साल पुराने मामलों पर भी महिलाएं खुल कर बाल रही हैं.
इसका असर भी दिखना शुरू हो गया है. हिंदुस्तान टाइम्स के ब्यूरो प्रमुख प्रशांत झा अपने पद से हट गए है. बिज़नेस स्टैंडर्ड अखबार में सेक्सुअल हरासमेंट कमेटी की आंतरिक जांच चल रही है. एक बड़े पूर्व संपादक और मंत्री का नाम उछल रहा है और उनको पद से हटाने की मांग तेज़ हो रही है. वहीं द वायर के सह-संस्थापक सिद्धार्ध भाटिया ने अपने उपर लगे आरोपों को निराधार बताया है.
अब बॉलीबुड के संस्कारी चेहरे आलोक नाथ पर विनता नंदा ने फेसबुक पर आरोप लगाया है कि आलोक नाथ ने उनका बलात्कार किया था.
वहीं एआईबी में उत्सव चक्रवर्ती मामले से उठा तूफान थमा नहीं है और लगता है कि एआईबी का भविष्य अधर में है. कंपनी की ह्यूमन रिसोर्स हेड विधी जोतवानी ने कहा है कि कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और सह संस्थापक तन्मय भट्ट पर लग रहे आरोपों के बाद वे कंपनी से हट रहे हैं. गुरसिमरन खांबा के खिलाफ भी सोशल मीडिया में उठ रही आवाज़ों के मद्देनज़र वे भी छुट्टी पर चले गए हैं.
एक पत्रकार और सह निर्देशक के आरोपों के बाद रजत कपूर ने ट्विटर पर माफी मांगी है और कहा कि “जीवन भर मैं अच्छा आदमी बनने की कोशिश करता रहा. सही काम करने की कोशिश करता रहा. हालांकि मुझसे चूक हुई है– मेरे शब्दों या काम से अगर किसी को भी दुख पहुंचा है तो मेरी माफी स्वीकार करें…”
ये तूफान फिल्म अभिनेत्री तनुश्री दत्ता की ओर से अभिनेता नाना पाटेकर पर आरोप से शुरू हुआ. मामला लगभग एक दशक पुराना था. नाना पाटेकर ने आरोपों को बेबुनियाद बताया है और मानहानि का दावा ठोंका है. वहीं दत्ता ने भी पुलिस रिपोर्ट कर दी है. सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन (सिंटा) ने माना कि 2008 में तनुश्री दत्ता मामले में कोई कदम न उठा के उसने गलती की. अब आलोक नाथ पर लगे आरोपों पर सिंटा संज्ञान लेने की बात कर रहा है.
हाल ही में दो अभिनेत्रियों और और एक महिला क्रू मेंबर ने फिल्म ‘क्वीन’ के निर्देशक विकास बहल पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है.
मामला अब जिस तेज़ी से बढ़ रहा है उससे तय है कि उसकी ज़द में बहुत और नाम आएंगे. पर साथ ही मामले में वाम और दक्षिणपंथी राजनीतिक ध्रुवीकरण की छाया भी पड़ रही है. हर खेमें में होड़ लगी है ये दिखाने की कि दूसरे की कमीज़ में भी दाग है. पर इसमें खतरा यह है कि इस मुहिम की जड़ में जो समाज की घिनौनी तस्वीर है, वो धूमिल न हो जाए.
साथ ही ये मुहिम एक तरह से उन पुरुषों के लिए चेतावनी भी है जो सोचते हैं कि उनके पास पद की ताकत है और वो कुछ भी करें उनके मातहत काम करने वाली महिलाएं बेज़ुबान बनी रहेंगी. एक महिला के ना को ना मानने और उसके ना को अहम पर चोट के रूप में ना लेने में ही समझदारी है. और जैसा कि ट्विटर पर किसी ने कहा कि महिलाओं की बात सुनिये– ये आप पर निजी हमला नहीं है.
वहीं इस बहाव में महिलाएं भी कई ऐसे मामले उठा रही हैं जिसको #मीटू नहीं माना जा सकता. एक रिश्ता जो न चला, उसको बात बात में यौन उत्पीड़न बता देना या फिर किसी पुरुष को मना करने पर उसके पीछे हट जाने और महिला को अकेला छोड़ देना, या करियर में कोई नुकसान ना पहुंचाने को #मीटू नहीं माना जाना चाहिए.
पर ये मुहिम महिलाओं को आवाज़ दे रही है और इसलिए ये समाज के लिए ज़रूरी है. आवाज़ कितनी दूर तक जाती है वो इसकी दिशा तय करेगी.