डॉक्टरेट के लिए रिसर्च के दौरान मुझे रिसर्च सुपरवाइजर पीटर रॉब ने अनुशंसित किताबों की सूची दी थी. मैं ब्रिटिश लाइब्रेरी के इंडिया ऑफिस सेक्शन में बड़ी तत्परता से उन किताबों को ढूंढकर निकालता था. एक बार, एम नागलू की जीवनी मेरे हाथ लग गई, जो पहले दलित होटल व्यवसायी थे जिनके बारे में लिखा गया हो. मैं ये देखकर हैरान था कि 1908 में ही एक दलित की जीवनी लिखी जा चुकी थी और वह भी अंग्रेजी में. नागलू के पुत्र एमएन वेंकटस्वामी द्वारा लिखित मैदरा नगय्या नामक ये किताब एक दलित के असामान्य उत्थान की कहानी के साथ ही केंद्रीय प्रांत से संबंधित औपनिवेशिक प्रसंगों और ब्रिटिश शासन की जड़ें जमने से जुड़े वृत्तांतों के जरिए इतिहास की नई खिड़कियां खोलती है.
इस जीवनी का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है दो अलग-अलग संस्करणों में इसका दो बार लिखा जाना. वेंकटस्वामी ने पहली बार 1908 में इस जीवनी का लेखन और उसकी सौ प्रतियों का प्रकाशन किया था. उन्होंने इसकी 57 प्रतियां इंग्लैंड और अमेरिका में अपने पिता के मित्रों और शुभचिंतकों को भेजी थी. दुर्भाग्य से, हैदराबाद में 1908 की बाढ़ में शेष 43 प्रतियां नष्ट हो गईं. वेंकटस्वामी ने जीवनी को फिर से लिखा और इसे 1929 में व्यापक संशोधनों और अतिरिक्त जानकारियों के साथ प्रकाशित किया. ये उल्लेखनीय है, हालांकि आश्चर्यजनक नहीं, कि जीवनी के दोनों संस्करण ब्रिटिश लाइब्रेरी में मौजूद हैं.
यह किताब दुर्लभ ही नहीं, बल्कि शायद अंग्रेजी में लिखी गई पहली दलित जीवनी भी है. यह दलित अध्ययनों में मौजूद इस पारंपरिक ऐतिहासिक मान्यता को चुनौती देती है कि अंबेडकर से पहले किसी दलित ने विद्वतापूर्ण अभिव्यक्ति और लेखन का काम नहीं किया था. जबकि असल में, इस जीवनी के लेखक, एमएन वेंकटस्वामी ने अंग्रेजी में काफी रचनाएं की थीं. वो रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य और अपने समय के एक प्रसिद्ध लोक कथाकार थे. वह फोकलोर और इंडियन एंटिक्विटी जैसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित हो रहे थे. उन्होंने राल्फ़ टीएच ग्रिफ़िथ के साथ मिलकर वाल्मीकि रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद किया था. उन्होंने 1912 में जदुनाथ सरकार के साथ द स्टोरी ऑफ बोबिली: ऐज़ हैंडेड डाउन थ्रू मिंस्ट्रल्स, और 1927 में नारायण जी चंदावरकर के साथ फोक स्टोरीज़ ऑफ द लैंड ऑफ इंडिया लिखी थी. वेंकटस्वामी ने हैदराबाद में स्टेट सेंट्रल लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन के रूप में काम किया था.
इससे भी अहम बात ये है कि वेंकटस्वामी की व्यापक अकादमिक जगत में दखल थी, जिसे नजरअंदाज करना मुश्किल है. लीला प्रसाद ने अपनी हालिया पुस्तक द ऑडेशियस रैकन्टर (कॉर्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस, 2020) में ‘सॉवरेन्टी एंड स्टोरीटेलिंग इन कॉलोनियल इंडिया’ नामक एक अध्याय वेंकटस्वामी को समर्पित किया है, जिसमें लोक कथाओं में उनके योगदान का वर्णन है. इस बीच, मैं नागपुर और हैदराबाद में उनके परिवार का पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं और अब तक की कई यात्राएं व्यर्थ साबित हुई हैं. मैं जल्दी ही उनकी जीवनी को संपादित और प्रकाशित करने वाला हूं.
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नागलू का रॉयल कनेक्शन
वेंकटस्वामी लिखते हैं कि नागलू के पूर्वज मद्रास प्रेसिडेंसी के रायलसीमा इलाक़े से थे. वह अपने परिवार की शाही वंशावली का दावा करते है और अपने एक पूर्वज के भ्रष्ट कृत्य के कारण जाति व्यवस्था में अपने कुल की गिरावट का वर्णन करते हैं. उनके अनुसार, 1783 के अकाल के दौरान, नागलू के दादा मैदरा गोविंदू ने मालवंडलु (मलास) के एक समूह को गाय का अपवित्र मांस खाते देखा था. भूख से पीड़ित गोविंदू ने भी मांस का एक टुकड़ा खा लिया. राजा को इसके बारे में पता चला तो उसने उन्हें अछूतों की कोटि में डाल दिया.
गोविंदू ने 1799 में श्रीरंगपट्टम की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश नेटिव इन्फैंट्री को बैलगाड़ियों की आपूर्ति कर काफी संपत्ति अर्जित की थी. उनकी मौत के समय उनका बेटा पोलया (नागलू के पिता) बहुत छोटा था. पोलया अपने पिता द्वारा अर्जित धन के सहारे जिंदगी गुजारते हुए जादू-टोना करने वाला ओझा बन गया था. नागलू ने भी बचपन में ही अपने पिता को खो दिया. उसकी दो बहनों की शादी करने के बाद, नागलू की मां अपने भाई के साथ रहने के लिए ले उसे हैदराबाद लेकर आ गईं. कुछ ही महीनों के भीतर, नागलू की मां भी गुजर गईं. नागलू जालना के ब्रिटिश सैन्य स्टेशन के लिए सामान ले जा रही बैलगाड़ियों के एक कारवां में शामिल हो गए. औपनिवेशिक कब्जे के शुरुआती दिनों में ब्रिटिश सेना के अधिकारी निचले स्तर के सेवकों और सहायकों के रूप में मुख्य रूप से मछलीपट्टनम (बंडारू) के अछूतों को भर्ती किया करते थे. यह एक व्यापारिक केंद्र और बंदरगाह शहर था जो कोरोमंडल तट में यूरोपीय लोगों के लिए प्रवेशद्वार का काम करता था. नागलू रॉयल हॉर्स आर्टिलरी के लेफ्टिनेंट कर्नल के घर में एक घरेलू नौकर के रूप में कार्यरत थे. जालना से, वह नागपुर के पास कैम्पटी आ गए और 1857 तक घरेलू नौकर-सह-बटलर के रूप में ब्रिटिश सेना के विभिन्न अधिकारियों के लिए काम किया.
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होटल व्यवसायी के रूप में नागलू का उदय
1857 के बाद, नागलू ने नागपुर से बंबई तक बैलगाड़ी से ढुलाई का धंधा शुरू किया और साथ ही बॉम्बे इन्फैंट्री के कैप्टन आरएच बोल्टन और ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर रेलवे के मुख्य अभियंता रॉबर्ट ब्रेरटन के लिए भी काम किया. इन दोनों अधिकारियों ने रेलवे के स्लीपरों के लिए लकड़ी के टिकाऊ लट्ठों की खरीद का काम नागलू को सौंप दिया. रेलवे के लिए लकड़ी के ठेके और ट्रांसपोर्ट के व्यवसाय के मुनाफे के सहारे उन्होंने 20 मार्च 1864 को नागपुर में अपना होटल शुरू किया.
रेलवे लाइनों के विस्तार के साथ क्रमिक रूप से ब्रिटिश शक्ति के सुदृढ़ीकरण और केंद्रीय प्रांत की स्थापना के कारण विभिन्न क्षेत्रों के बीच व्यापार में भारी वृद्धि हुई. इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश अधिकारियों और व्यापारियों की अंदरूनी इलाकों तक पहुंच भी बढ़ गई. वे नागपुर को अपने बेस के रूप में इस्तेमाल करते थे. इसके कारण नागलू के होटल में बहुत सारे अंग्रेज ग्राहक आने लगे, जिनमें कभी-कभी उनके पूर्व बॉस भी शामिल होते थे. साथ ही, केंद्रीय प्रांत के पहले मुख्य आयुक्त रिचर्ड टेंपल ने भी मुफ्त जमीन, नियमित ग्राहक और अन्य प्रोत्साहन प्रदान करके नागलू को अपना व्यवसाय बढ़ाने में मदद की. 1866 में, केंद्रीय प्रांत में व्यापार और वाणिज्यिक अवसरों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से रिचर्ड टेंपल ने नागपुर में एक औद्योगिक प्रदर्शनी का आयोजन किया था. इसके लिए नागलू को परिवहन, भोजन और आवास की व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इस आधिकारिक संरक्षण ने नागलू को अपने व्यवसाय का विस्तार करने के लिए अतिरिक्त वित्तीय विकल्प प्राप्त हुए और उन्हें जातिग्रस्त समाज में अपनी सार्वजनिक छवि चमकाने में मदद मिली. सौंपी गई जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक पूरा करने और आधिकारिक ब्रिटिश संरक्षण ने नागलू को जातिगत अवरोधों (अछूत की हैसियत) से पार पाने में मदद की. अब उन्हें स्थानीय शासक वर्ग के ऊंची जाति के हिंदू ग्राहक भी मिलने लगे और साथ ही मुस्लिम शासक वर्ग भी विशेष अवसरों पर भोजन और शराब की व्यवस्था के लिए उनकी सेवाएं लेता था.
ब्रिटेन एवं अमेरिका के यात्रियों के वृत्तांतों में उल्लेख के कारण नागलू का होटल विश्व विख्यात हो गया. ब्रिटिश व्यंग्य पत्रिका पंच ने होटल के बारे में विज्ञापन प्रकाशित किया. होटल जब अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर था तो टाटा ने उसे एक लाख रुपये में खरीदने का प्रस्ताव किया, जिसे नागलू ने ठुकरा दिया. कामयाबी के शिखर तक की अपनी यात्रा के दौरान नागलू की ऊंची जाति के हिंदुओं से शत्रुता भी हुई जिन्होंने उन्हें अदालती मामलों में उलझा दिया. आखिरकार उन्हें अपनी संपत्ति अंग्रेजों को सौंपनी पड़ी, जिसके बदले उन्हें मात्र 10,000 रुपये का भुगतान किया गया. उनके होटल को बंगाल-नागपुर रेलवे के मुख्यालय में परिवर्तित कर दिया गया. इस तरह से पतन के दबाव में नागलू को पक्षाघात हो गया और अंतत: उनकी मौत हो गई. उनका बेटा वेंकटस्वामी आरंभिक औपनिवेशिक भारत में विख्यात हुए अपने पिता की फर्श से अर्श तक की यात्रा की कहानी को लिपिबद्ध करने के लिए दृढ़ संकल्पित था.
(चिन्नैया जंगम, पीएचडी, कनाडा के कार्ल्टन विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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