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Thursday, 10 October, 2024
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मी लॉर्ड, एससी-एसटी एक्ट चाहिए क्योंकि समानता असमान लोगों के बीच नहीं होती!

एससी-एसटी एक्ट को लेकर फिर से सवाल उठ रहे हैं और ये सवाल किसी संगठन ने नहीं, सुप्रीम कोर्ट के जजों ने उठाए हैं. इसके लिए वे समानता के सिद्धांत का हवाला दे रहे हैं, जबकि समानता का सिद्धांत ये नहीं कहता कि नागरिकों के बीच अंतर नहीं है.

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सुप्रीम कोर्ट के दो जजों – जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस यू यू ललित की बेंच ने ये टिप्पणी की है कि देश में सबके लिए समान कानून होना चाहिए और जनरल कटेगरी और एससी, एसटी के लिए अलग कानून नहीं हो सकते.’ जजों की ये टिप्पणी एससी-एसटी एक्ट को ‘कमजोर किए जाने’ के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार द्वारा दाखिल पुनर्विचार याचिका की सुनवाई के दौरान आई.

दरअसल 20 मार्च 2018 को जस्टिस यू यू ललित और आदर्श कुमार गोयल की बेंच ने एससी-एसटी एक्ट में अभियुक्तों की गिरफ्तारी और अंतरिम जमानत के प्रावधानों पर एक फैसला दिया था. यह फैसला ये मानकर दिया गया था कि इस एक्ट का दुरुपयोग होता है और इस एक्ट के तहत जिन पर आरोप लगाए जाते हैं, उन्हें संरक्षण मिलना चाहिए.

एससी-एसटी एक्ट पर अदालती फैसला और संसद का हस्तक्षेप

इस फैसले का एससी-एसटी संगठनों ने विरोध किया और 2 अप्रैल 2018 को भारत बंद भी किया. भारत बंद के ही दिन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ उसी बेंच के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर की और आगे चलकर संसद में एससी-एसटी अत्याचार निरोधक संशोधन विधेयक 2018 पारित किया, जिससे सुप्रीम कोर्ट का 20 मार्च का आदेश निरस्त हो गया.

हालांकि इस मामले में कानून बन चुका है कि लेकिन पुनर्विचार याचिका अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और इस मामले में अभी फैसला आना है. जजों की टिप्पणी इसी मामले में है.

यह पहला मौका नहीं है. जब हम ऐसी बहस देख-सुन रहे हैं कि कानून हर किसी के लिए समान होना चाहिए और एक सा कानून हर किसी पर लागू होना चाहिए. ऐसी बहस सिर्फ न्याय और कानून के क्षेत्र में नहीं, बल्कि आम जनता भी आपसी बातचीत में करती है कि अलग-अलग समूहों के लिए अलग कानून क्यों जबकि सभी नागरिक कानून की नजर में समान हैं.


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इसमें तर्क की बुनियाद में यही भावना है कि महिलाओं, अल्पसंख्यकों, शारीरिक रूप से अक्षम लोगों, ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों या इस विशेष मामले में, एससी-एसटी को विशेष संरक्षण नहीं मिलना चाहिए.

भारतीय लोकतंत्र और समानता का सिद्धांत

सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने हर जातीय समूहों के लिए समान कानून की जो बात की है, उससे यही धारणा मजबूत होती है कि किसी को भी विशेष संरक्षण क्यों. लेकिन ये एक ऐसी बात है जिसका भारतीय लोकतंत्र और संसद के कानून बनाने के अधिकारों के लिए गंभीर मायने हो सकते हैं.

इसलिए बेहद जरूरी है कि समानता को लेकर जजों की टिप्पणी के सैद्धांतिक पक्षों को समझा जाए और जानने की कोशिश की जाए कि ये कितना तर्कसंगत है. इस आलेख में अधिकार, न्याय और लोकतंत्र के सिद्धांतों की मदद से उक्त टिप्पणी के तीन प्रमुख दोषों को रेखांकित करने की कोशिश की जाएगी.

कोर्ट की टिप्पणी और व्यक्ति तथा समूह के अधिकारों का अतंर्विरोध

सबसे पहली बात. उक्त टिप्पणी में जनरल और एससी-एसटी को दो अलग-अलग श्रेणी या कटेगरी माना गया है. जबकि तथ्य ये है कि एससी-एसटी के तमाम लोग जनरल कटेगरी के अंदर मौजूद एक श्रेणी हैं. जनरल कटेगरी के लिए देश में लागू सभी कानून जैसे आईपीसी आदि एससी-एसटी पर भी समान रूप से लागू होते हैं. हालांकि, एससी-एसटी के लिए बने विशेष कानून जनरल कटेगरी के बाकी लोगों पर उसी तरह लागू नहीं होते.

दूसरी बात. जजों की टिप्पणी अधिकारों और खासकर मूल अधिकारों की रूढ़ यानी कंजर्वेटिव समझदारी को पेश करती है. भारतीय संविधान के तीसरे अध्याय में मूल अधिकारों की बात है. इस अध्याय में तीन तरह के अधिकारों का जिक्र है- प्राकृतिक या नैचुरल अधिकार, ह्यूमन राइट्स या मानवाधिकार और तीन, राज्य या स्टेट के अधिकार. राज्य के अधिकार को अनुच्छेद 22 में देखा जा सकता है. जिसमें प्रावधान है कि अगर कोई व्यक्ति देश की सुरक्षा के लिए खतरा है तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है.

प्राकृतिक अधिकार वह बड़ी श्रेणी हैं. जो मानवाधिकारों को अपने अंदर समाहित करती है. ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक को प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धात का रचनाकार माना जाता है. उन्होंने जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता के अधिकार और संपत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार माना. प्राकृतिक अधिकार के सिद्धांत का आधार यह है कि ये प्रकृति के नियमों के अनुसार हैं. चूंकि प्रकृति और उससे नियम किसी खास समय या स्थान के हिसाब से नहीं बने हैं, इसलिए प्राकृतिक अधिकार हर काल और स्थान के हिसाब से लागू होने चाहिए.

जजों की टिप्पणी का दूसरा दोष ये है कि इसमें प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के आधार पर मौलिक अधिकारों को परिभाषित करने की कोशिश की गई है.


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प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें समूह के अधिकारों की तुलना में व्यक्ति के अधिकारों को तरजीह दी गई है. इस सिद्धांत में समूहों के अधिकारों को महत्व नहीं दिया गया है. नारीवादी आंदोलन के पहले चरण में बने दबाव की वजह से पश्चिमी देशों में पहली बार प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत में संशोधन किया गया और महिलाओं को विशेष अधिकार और संरक्षण दिए गए. 20वीं सदी में समूहों के अधिकारों को महत्व मिलना शुरू हुआ. ये अधिकार समाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक श्रेणियों के थे. इस तरह दो तरह के अधिकारों का अस्तित्व बना. व्यक्ति के अधिकार और समूहों के अधिकार. यहीं से मानवाधिकारों की परिकल्पना सामने आई.

जिन अधिकारों का अस्तित्व सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों के लिए संघर्षों की वजह से सामने आया, उनकी व्याख्या प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत से नहीं की जा सकती. ये जजों की टिप्पणी का तीसरा दोष है.

व्यक्तिगत अधिकारों को, समूहों के अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण मानना संविधान निर्माताओं की परिकल्पना के खिलाफ है. क्योंकि उन्होंने समूहों के अधिकारों की रक्षा को मौलिक अधिकारों के अध्याय में शामिल किया है. अगर संविधान निर्माताओं ने व्यक्ति के अधिकारों को सर्वोपरि माना होता और समूहों के अधिकारों को खारिज कर दिया होता, तो संविधान में महिलाओं, बच्चों, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, मजदूरों, भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान न होते और न ही उनके लिए विशेष संरक्षण की व्यवस्था होती.

सुप्रीम कोर्ट के दोनों जज समानता का जिस तरह जिक्र कर रहे हैं, उसके मूल में संविधान के अनुच्छेद 14 की इकहरी यानी एकपक्षीय व्याख्या है. यह अनुच्छेद कहता है कि ‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा.’ इसे ही भारतीय संविधान का समानता का सिद्धांत कहा जाता है.

सवाल ये है कि समानता को समझा किस तरह से जाए. समानता को लेकर वैश्विक स्तर पर जो चिंतन धाराएं हैं, वे कहीं ये नहीं कहती है कि सभी नागरिक समान हैं और सबको समान माना जाएगा. समानता यूनिवर्सल यानी सार्वभौमिक नहीं है.

सामाजिक और आर्थिक आधार पर नागरिकों के बीच अंतर को भारतीय संविधान ने स्वीकार किया है.

समानता की सबसे सटीक व्याख्या डिफरेंस प्रिंसिपल यानी असमता या अंतर के सिद्धांत के तहत की जा सकती है, जो मानती है कि तमाम लोग एक जैसे नहीं हैं. उनमें अंतर है और कानून को लागू करते समय या कानून बनाते समय इस अंतर का ध्यान रखा जाना चाहिए. डिफरेंस प्रिंसिपल के आधार पर ही दुनिया के विभिन्न देशों ने महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यकों के लिए अलग से कानून बनाए हैं या प्रावधान किए हैं. नारीवादी आंदोलन ने सबके लिए एक समान कानून के सिद्धांत का इस आधार पर विरोध किया है कि सबके लिए जो समान कानून बनाया जाता है, उसमें पुरुषवादी मूल्य हावी होते हैं.

कुल मिलाकर, अगर सुप्रीम कोर्ट कानून की सार्वभौमिकता (यूनिवर्सिलिटी) पर ज्यादा जोर देता है यानी हर नागरिक को समान बनाने की एकपक्षीय व्याख्या करता है, तो न सिर्फ एससी-एसटी, बल्कि ओबीसी, महिलाओं, धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों तथा ऐसे ही तमाम अन्य समूहों के अधिकारों पर विपरीत असर पड़ेगा. दुनिया भर में महिलाओं और अश्वेतों समेत कई और वंचित तथा माइनॉरिटी समुदायों के लिए जिस तरह से विशेष संरक्षण की व्यवस्था की जा रही है, वैसे समय में क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट वंचित समूहों को मिले विशेष अधिकारों पर सवाल खड़े करेगा?

अगर यह होता है कि इसे एक विराट विपरीत यात्रा कहेंगे. उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट समानता को उसी अर्थ में समझेगा, जिन अर्थों में संविधान निर्मातओं ने समझा था.

(लेखक लंदन विश्वविद्यालय के रायल हॉलवे में पीएचडी कर रहे हैं)

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