उत्तर प्रदेश और पंजाब के ताजा विधानसभा चुनावों में मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भारत की वामपंथी पार्टियों की तरह लगभग विलुप्त हो गई है. यूपी में मायावती ने 2007 से 2012 तक मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया था और इससे पहले भी थोड़े-थोड़े समय के लिए वे सत्ता में रही थीं लेकिन इस बार के चुनाव में उनका अभियान अदृश्य रहा. पार्टी कोई सीट नहीं जीत पाई और उसके वोट भी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए. वैसे, उम्मीद इसी सब की थी.
मायावती की निष्क्रियता के ज्ञात और अज्ञात, दोनों कारण हैं. हमें मालूम है कि नरेंद्र मोदी की सरकार उनकी संपत्तियों पर छापे डलवा सकती है. लेकिन हमें यह नहीं मालूम है कि बसपा ने जब सपा के साथ गठबंधन करके 2019 का चुनाव लड़ा था और मायावती सक्रिय खिलाड़ी थीं, उसी समय अगर छापे का खतरा बना हुआ था तो इस खतरे ने आज भी कोई भूमिका निभाई या नहीं.
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बसपा की बदली विचारधारा
मायावती अगर राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हो गई हैं तो क्या इसकी कोई और वजह है? हां. यूपी में उनकी पार्टी की हैसियत इतनी कमजोर हो गई है कि वे कोई प्रभावी अभियान नहीं चला सकतीं. वास्तव में मायावती ने 2007 के चुनाव से पहले ही अपनी विचारधारा के टायर को पंचर कर दिया था. वे और उनके नये ‘वैचारिक गुरु’, ब्राह्मण नेता सतीश मिश्र ने कांशीराम के मूल नारे ‘बहुजन समाज ’ को बदलकर ‘सर्वजन समाज ’ कर दिया.
बहुजन समाज के विचार में दलितों/अन्य पिछड़ी जातियों/आदिवासियों का नया चुनावी समीकरण निहित था, जिसके साथ यथासंभव मुसलमानों का समर्थन भी जुड़ा था. इसके अलावा, इसे सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के नारे के रूप में देखा गया था, जिस परिवर्तन के लिए आंबेडकरवाद से काफी कुछ उधार लेकर एक व्यवस्थित एजेंडा तैयार किया गया था. हालांकि यूपी में सपा के रूप में पिछड़ों की एक समानांतर पार्टी जरूर उभरी लेकिन सभी प्रताड़ित समुदायों के लिए बसपा ही मुख्य वैचारिक ताकत थी.
बसपा ने क्षत्रियों से ज्यादा ब्राह्मण समुदाय का समर्थन बटोरकर 2007 का चुनाव जीता. क्षत्रिय समुदाय प्रदेश में कांग्रेस के दौर के बाद भाजपा के साथ जुड़े रहे और राम मंदिर के मुद्दे को धार्मिक से ज्यादा अपने समुदाय के मुद्दे के रूप में पूरी तरह अपना लिया. आरएसएस और भाजपा में क्षत्रियों की मजबूत स्थिति ने योगी आदित्यनाथ को भी काफी ताकतवर बना दिया. इस बीच ब्राह्मणों ने 2007 से 2012 के बीच बसपा का साथ देकर भाजपा के अंदर अपनी ताकत कमजोर कर ली. वैसे, ज्यादा अहम बात यह है कि बसपा ने ब्राह्मण समुदाय के साथ राजनीतिक गठजोड़ करके दलित-ओबीसी की वैचारिक शक्तियों और मतदाताओं के बीच भी अपनी साख कमजोर कर ली.
मायावती ने 2007-12 के बीच सत्ता में होते हुए ऐसे कोई बड़े नीतिगत सुधार नहीं किए जो देश के गरीब और निम्न-मध्य वर्गों के बीच एक मॉडल बन जाते. उन्होंने केवल एक ‘परिवर्तन’ लाया, दलितों के बीच जमीन बांटी और आंबेडकर, कांशीराम और खुद के स्मारक बनवा डाले. इन स्मारकों ने ब्राह्मणों को नाराज कर दिया, हालांकि दलितों और ओबीसी की तरह उन्हें भी रोजगार के रूप में सरकार की ओर से कुछ लाभ मिले.
मायावती के राज में यह धारणा बन गई थी कि सामान्य श्रेणी वाले रोजगारों में ठाकुरों और जाटों की जगह ब्राह्मणों को प्राथमिकता दी जाती थी. लेकिन 2012 के चुनाव तक ब्राह्मणों ने बसपा की ओर से मुंह मोड़ लिया. बसपा का साथ दे रहे गैर-यादव ओबीसी भी उनकी राजनीति के कारण और जनसभाओं में नोटों की माला पहनने, मंत्रियों की उपेक्षा करने जैसे आदि व्यक्तिगत आचरण के कारण निराश होकर उससे छिटक गए थे.
2014 में आरएसएस/भाजपा ने जाति के मसले पर अपनी विचारधारा में बदलाव करते हुए गैर-जाटव दलितों और कई गैर-यादव ओबीसी जातियों को अपने चुनावी आधार में शामिल किया. मायावती और उनके संरक्षक सतीश मिश्र सभी मोर्चों पर मात खा बैठे. वे समझ नहीं पाए कि किस दिशा में जाएं और कौन-सा समीकरण उनके लिए कारगर साबित होगा. मुसलमान सपा के साथ बने हुए हैं, वैसे भी वे कांशीराम के दौर में भी बसपा के साथ पूरी मजबूती से नहीं खड़े थे क्योंकि लंबे समय तक वे जाति आधारित विचारधारा को कबूल नहीं कर रहे थे.
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ढांचे की कमी
एक पार्टी के रूप में बसपा ने कभी केंद्रीय और प्रादेशिक इकाइयों के साथ संगठन का बाजाफ्ता ढांचा नहीं बनाया, हालांकि वह कई राज्यों में अपनी मौजूदगी रखती थी. कांशीराम जब थे तब वे ही बसपा के ‘सब कुछ’ थे. उनकी मृत्यु के बाद मायावती पार्टी अध्यक्ष बनकर उसकी ‘सब कुछ’ बन गईं. लेकिन इसके साथ ही वे अपनी निर्णय क्षमता गंवा बैठीं और सतीश मिश्र पर निर्भर हो गईं. दलितों को केंद्र में रखकर बनी पार्टी एक ब्राह्मण की गोद में चली गई, जिसे किसी सामाजिक सुधार का काम करने के लिए नहीं जाना जाता. पार्टी में दूसरा कोई दलित नेता नहीं था, जो कम-से-कम सामाजिक आधार के साथ उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता.
इस तरह के ढांचे के लिए, सिवा व्यक्ति केंद्रित नेतृत्व के जो हालांकि वंशवादी नहीं है, एक विपरीत राजनीतिक वातावरण में उस तरह बचे रहने की कोई गुंजाइश नहीं है जिस तरह कम्युनिस्ट पार्टियां बची रही हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां जातीय पहचान की प्रधानता वाले माहौल में अप्रासंगिक हो गईं और वर्गवादी विचारधारा से चिपकी रहीं, जिसे तरजीह देने के लिए शायद ही कोई तैयार था. इधर बसपा ने 2007 में सत्ता की खातिर थोड़े समय के अंदर ही ‘बहुजन समाज’ की अपनी विचारधारा को त्याग दिया. सत्ता ब्राह्मण गठजोड़ के साथ मिली लेकिन 2007 से 2012 के बीच सत्ता में होते हुए ही पार्टी ने अपनी मौत की ओर कदम बढ़ा लिया था.
जल्दी ही वह समय आ गया जब उसने केवल सत्ता ही नहीं गंवाई बल्कि अपना राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक आधार भी खो दिया. कई क्षेत्रीय दलों के विपरीत, बसपा केवल कांग्रेस या भाजपा की जनकल्याणकारी विचारधारा के दायरे में सत्ता के लिए अस्तित्व में नहीं आई थी. वह जाति-विरोधी एक सुनिश्चित विचारधारा के साथ अस्तित्व में आई थी. दुर्भाग्य से, वह विचारधारा अब बसपा में कोई भूमिका नहीं निभा रही है. वह मायावती-सतीश मिश्रा पार्टी बन गई है.
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मायावती की कमजोरियां
मायावती कांशीराम की तरह कोई बड़ी वैचारिक नेता नहीं हैं, जिनका अखिल भारतीय असर था. वे भाषण देने में माहिर हैं लेकिन बिना किसी वैचारिक आधार के भाषण देती हैं और वे एक ऐसी राजनीतिक नेता हैं जो अपने कार्यकर्ताओं को प्रेरित नहीं करतीं. धीरे-धीरे वे जनसभाओं में ‘लिखा हुआ पढ़ने वाली नेता ’ बन गई हैं. यह अफसोसजनक स्थिति है. अनपढ़, अर्द्ध-शिक्षित और शिक्षित जनता को भी ऐसा नेता चाहिए जो सभाओं में भावनाएं उभार सके.
मायावती अखिल भारतीय नेतृत्व की भूमिका संभालने में इसलिए विफल रहीं क्योंकि वे और उनकी पार्टी दिल्ली और उत्तर प्रदेश में ही सिकुड़ी रही. दूसरे राज्यों में भी पार्टी की विचारधारा पर काम करने और उसके लिए जीने वाले कार्यकर्ता थे मगर उनका कोई लाभ नहीं उठाया गया. उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो आज के राजनीतिक वातावरण में कांशीराम की विचारधारा को जीवित रख सके.
मुझे ऐसा लगता है कि माकपा और भाकपा जैसी वामपंथी पार्टियां हालांकि अप्रासंगिक हो चुकी हैं लेकिन उनके पास सांगठनिक ढांचा है और वे अपनी वर्गवादी विचारधारा से चिपकी रह सकती हैं. बसपा विलुप्त हो सकती है क्योंकि उसकी एकमात्र ज्ञात नेता ने इसकी बहुजन वाली (यानी जाति विरोधी) विचारधारा को त्याग दिया है और दूसरे पायदान पर न तो उसका कोई नेता है और न ही कोई सांगठनिक ढांचा है, जो उसे आगे बढ़ा सके. यह एक बड़ी त्रासदी ही है कि बहुजन समाज की मुक्ति के लिए कांशीराम ने जो मेहनत की थी उसे इतनी जल्दी उसी ने गर्त में पहुंचा दिया जिसे उन्होंने बड़ी उम्मीद के साथ अपना उत्तराधिकारी चुना था.
(कांचा इलैया शेफर्ड एक राजनीतिक विचारक, सामाजिक एक्टिविस्ट और लेखक हैं. उनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं—‘व्हाइ आइ ऐम नॉट अ हिंदू : अ शूद्र क्रिटिक ऑफ हिंदुत्व फ़िलॉसफ़ी, कल्चर, ऐंड पॉलिटिकल इकोनॉमी’, और ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया : अ डिस्कोर्स इन दलित-बहुजन सोशियो-स्पीरिचुअल ऐंड साइंटिफिक रिवोलुशन’. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं)
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