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Saturday, 21 December, 2024
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सेकुलर और कम्युनल दोनों खेमों में होने की मायावती और नीतीश की सुविधा

बेशक, यूपी में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल अल्पसंख्यकों की पहली प्राथमिकता वाले दल हैं, लेकिन बहुजन समाज पार्टी और जनता दल यूनाइटेड भी अल्पसंख्यकों के अच्छे-खासे वोट पाते रहे हैं.

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बिहार में इन दिनों चर्चा है कि नीतीश कुमार अगला विधानसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिल कर लड़ेंगे या नहीं. बीजेपी के अंदर से ही ऐसे स्वर आने लगे हैं कि बीजेपी को नीतीश कुमार का साथ छोड़ देना चाहिए. ये बात इस शक्ल में कही जा रही है कि नीतीश कुमार को अब मुख्यमंत्री पद बीजेपी के लिए छोड़ देना चाहिए.

अगर बीजेपी सचमुच नीतीश कुमार का साथ छोड़ देती है तो मुमकिन है कि नीतीश कुमार फिर से सेकुलर खेमे में आने की कोशिश करें. यानी बीजेपी के साथ एक दशक से ज्यादा समय तक सरकार चलाने के बावजूद नीतीश कुमार इतने सेकुलर रह गए हैं कि कांग्रेस या आरजेडी उन्हें फिर से अपने साथ लेने के बारे में सोच सकती है. ये 2015 में हो भी चुका है, जब जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था. ये बात और है कि नीतीश कुमार ने गठबंधन तोड़कर बाद में उसी बीजेपी के साथ सरकार बना ली.

नीतीश कुमार की राजनीति की जलेबियां

तीन तलाक के मुद्दे पर जनता दल यूनाइटेड ने संसद के दोनों सदनों में मतदान में भाग नहीं लिया. यह इस खास मुद्दे पर जेडीयू का सरकार का प्रत्यक्ष विरोध और परोक्ष समर्थन था, क्योंकि वोटिंग में हिस्सा न लेने से सदन में सदस्यों की संख्या कम हो जाती है. इसके पीछे की राजनीति कई लोगों को उलझी लग सकती है, लेकिन कुछ पीछे जाकर देखें, तो इसका कारण स्पष्ट समझ में आने लगा है.

जनता दल यूनाइटेड ने तीन तलाक के मुद्दे पर मतदान का बहिष्कार तो किया लेकिन उसे यह पता था कि उसके बगैर भी भाजपा ये बिल पास करा ले जाएगी. अगर भाजपा को जेडीयू का समर्थन जरूरी होता तो जरूर नीतीश वैसा ही कुछ तरीका अपनाते तो भाजपा को रास आता.


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इसके पीछे कारण यह है कि नीतीश कुमार को अच्छी तरह से पता है कि भाजपा के साथ रहने पर भी, उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष साथ देने पर भी, मुसलमान मतदाता जेडीयू के खिलाफ नहीं जाते. आखिर, बिहार में नीतीश कुमार भाजपा के साथ सरकार चला ही रहे हैं और पहले भी चलाते रहे हैं. इसके बावजूद वे सेकुलर बने हुए हैं.

नीतीश कुमार ने बीजेपी को स्वीकृति दी

वास्तव में भाजपा को केंद्र में राजनीतिक अस्पृश्यता की स्थिति से बाहर निकालने वाले नीतीश कुमार ही हैं. वरना एक समय तो शिवसेना के अलावा कोई राजनीतिक दल भाजपा के साथ जाना पसंद ही नहीं करता था. नीतीश कुमार ने ही केंद्र और बिहार में भाजपा के साथ सरकार बनाना शुरू किया, लेकिन इस बात से मुसलमान मतदाता उनसे कभी बहुत ज्यादा नाराज नहीं हुए. अल्पसंख्यकों के इस राजनीतिक व्यवहार से नीतीश कुमार को दाएं-बाएं चलने की काफी सुविधा मिल गई.

लगभग यही स्थिति राम विलास पासवान की भी है. राजनीति के मौसम वैज्ञानिक कहे जाने वाले राम विलास पासवान को हमेशा से ये सुविधा रही है कि वे दक्षिणपंथी गठबंधन, वामपंथी गठबंधन या मध्यमार्गी गठबंधन में शामिल हो सकते हैं और सरकार में मंत्री भी बन सकते हैं. किसी भी वैचारिक मोर्चे के साथ जाने पर उन्हें नुकसान कुछ भी नहीं होता, जबकि फायदा बराबर होता रहता है, लेकिन क्या यह फायदा केवल रामविलास पासवान को ही मिला हुआ है?

मायावती भी सुविधा के अनुसार बदलती हैं खेमा

पिछले दो-तीन दशकों की राजनीति को देखें, तो यूपी में मायावती को भी कुछ इसी तरह का फायदा मिला हुआ है. समय-समय पर बीएसपी सीधे-सीधे भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना चुकी है, लेकिन इनके समर्थकों, खासकर मुस्लिम मतदाताओं पर इसका कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा. दलित मतदाताओं ने कभी इस बात की शिकायत नहीं की कि बीएसपी बीजेपी के साथ सरकार क्यों बना लेती है. भाजपा का साथ छोड़ देने पर तो इन्हें फिर से अल्पसंख्यकों के वोट मिलने ही लगते हैं, साथ ही सत्ता में रहने पर भी मुस्लिम तबका इनके साथ बना रहता है.

ऐसी छूट सपा और आरजेडी को नहीं

ये सामाजिक विज्ञान और राजनीति विज्ञान के शोधार्थियों के शोध का विषय हो सकता है कि जब अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान लोग भारतीय जनता पार्टी से स्पष्ट दूरी बनाए रखते हैं, तब उनके साथ मिलने वाले जनता दल यूनाइटेड और बहुजन समाज पार्टी के प्रति उनका विश्वास क्यों बना रहता है.

बेशक, यूपी में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल अल्पसंख्यकों की पहली प्राथमिकता वाले दल हैं, लेकिन बहुजन समाज पार्टी और जनता दल यूनाइटेड भी अल्पसंख्यकों के अच्छे-खासे वोट पाते रहे हैं. बीएसपी और जेडीयू को इस मामले में दोतरफा लाभ होता है, जबकि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल को दोतरफा घाटा.


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बीएसपी और जेडीयू को परिस्थिति अनुसार सवर्ण तबके का भी समर्थन मिल जाता है और अल्पसंख्यकों का भी, जबकि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल, दोनों ही सवर्णों के निशाने पर बने रहते हैं और अल्पसंख्यकों का भी बड़ा हिस्सा उनसे छिटककर बीएसपी और जेडीयू की तरफ चला जाता है.

बीएसपी और जेडीयू को एक और फायदा ये है कि उन्हें सत्ता में रहने का भी मौका ज्यादा मिलता है. खुद की हालत कमजोर होने पर उन्हें भाजपा के सहारे सत्ता में आने का कई बार मौका मिला और इस बहाने वे राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बचाए रख पाए.

दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल को भाजपा से सीधे टकराने की कीमत हमेशा चुकानी पड़ी है. हिंदुत्ववादी मतदाता तो उनसे चिढ़ता ही है, साथ ही अल्पसंख्यकों को टिकट देकर बीएसपी और जेडीयू अल्पसंख्यक वोट में सेंध भी लगा देती है.

सुविधा के अनुसार, धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक बन जाने की सहूलियत बीएसपी और जेडीयू दोनों को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखती है. बीएसपी के सामने यह सुविधा हमेशा रहती है कि वह कभी भी कांग्रेस या समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ ले या फिर भाजपा के साथ सरकार बना ले. मायावती ने जब गुजरात दंगे के बाद गुजरात में फिर से नरेंद्र मोदी की सरकार बनवाने के लिए वोट मांगे थे, तब भी यूपी में उन्हें मुसलमानों की कोई बहुत ज्यादा नाराजगी का सामना नहीं करना पड़ा.

विचित्र बात यह भी है कि इस सबके बीच, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल पर भाजपा से गुप्त मेलजोल रखने के आरोप या निकट भविष्य में तालमेल करने की संभावना वाले आरोप लगातार लगते रहते हैं और इस तरह से इनकी धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े किए जाते हैं. जबकि जो दल खुले आम बीजेपी के साथ गलबहियां करते हैं और ऐसा बार-बार करते हैं, उनसे ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा जाता है. राजनीतिक शुद्धता की जो उम्मीद सपा और आरजेडी से है, उसकी उम्मीद बीएसपी या जेडीयू से नहीं है. ये उत्तर भारत की राजनीति का बहुत बड़ा रहस्य है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है.)

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