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Thursday, 17 July, 2025
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शहीद दिवस विवाद ने फिर कुरेदे कश्मीर के सबसे गहरे ज़ख्म

कई मुस्लिमों के लिए इस बार शहीद दिवस का संदेश साफ है — चाहे वे किसी को भी वोट दें, कश्मीर की पहचान और इतिहास का फैसला अब उनके लोकतांत्रिक विकल्पों से नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवादी सत्ता से होगा.

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चिनाब किनारे अपने दफ्तर से इंस्पेक्टर जनरल बीसीए लोथर धैर्यपूर्वक तूफान के बाद बिखरे मलबे को देख रहे थे: तीन सौ मण (करीब 11 टन) अनाज, मवेशी, सोना-चांदी, ज़ेवरात, बर्तन और हैरान कर देने वाला एक ग्रामोफोन. कोटली और सेरी से लोथर ने रिपोर्ट भेजी कि वहां हिंदू “लगभग पूरी तरह से तबाह” हो गए थे. 1932 के दंगों में लगभग 20 लोगों की जान गई, दलितों को जबरन इस्लाम कबूल कराया गया और कुछ सिखों के केश कटवा दिए गए. इन हिंसाओं की अगुवाई पहाड़ी इलाके के डाकू सरगना खीमा खान ने गांव के लंबरदारों (प्रधानों) की मदद से की थी.

सोमवार को, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने डटकर दीवार फांदी — उन शहीदों के कब्रिस्तान की दीवार, जो ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी की दरगाह के पास स्थित है. वहीं 13 जुलाई 1931 को महाराजा हरि सिंह की सेना की गोलियों से मारे गए 22 प्रदर्शनकारियों को दफनाया गया था. आरोप है कि उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के निर्देश पर स्थानीय पुलिस ने मंत्रियों और विधायकों को उनके घरों में बंद कर दिया और कब्रिस्तान की ओर जुलूस को रोक दिया.

दशकों तक कश्मीर के भारत समर्थक नेताओं ने 13 जुलाई की इस गोलीकांड को डोगरा शासन के खिलाफ जन आंदोलन की शुरुआत के तौर पर पेश किया, जो बाद में आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गया, लेकिन 2020 में सरकार ने इस दिन को आधिकारिक छुट्टियों की सूची से हटा दिया — साथ ही जम्मू-कश्मीर के पहले प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की जयंती को भी. इसके बजाय सरकार ने महाराजा हरि सिंह की जयंती को मनाने की घोषणा कर दी.

इतिहास को मिटाने की यह कोशिश कश्मीर के पुराने और गहरे जख़्मों को फिर से कुरेद रही है. सच्चाई यह है कि 1931-32 की घटनाएं पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष विद्रोह नहीं थीं, जैसा कि कश्मीरी राजनेता पेश करते हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि डोगरा शासन एक पक्षपाती राजशाही थी, जो मुस्लिम प्रजा के हितों के मुकाबले हिंदू हितों को प्राथमिकता देती थी.

कई मुस्लिमों के लिए इस बार शहीद दिवस का संदेश साफ है — चाहे वे जिस किसी को वोट दें, कश्मीर की पहचान और इतिहास का फैसला अब उनके लोकतांत्रिक विकल्पों से नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवादी सत्ता करेगी.

कश्मीर को आज जिन बहसों की सबसे ज्यादा ज़रूरत है — पहचान, धर्म और उन घावों पर बात करने की जो दशकों बाद भी नहीं भर पाए — वो बहसें अब और भी दूर हो गई हैं.


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जेल की जंग

1931 की गर्मियों में कश्मीर में हालात लगातार बिगड़ते जा रहे थे. पहले, जम्मू सेंट्रल जेल में एक कांस्टेबल पर कुरान के अपमान का आरोप लगा. फिर श्रीनगर की एक नाली में कुरान के फटे हुए पन्ने मिले. इसी दौरान, एक पंजाबी मूल के खानसामा अब्दुल कदीर पर श्रीनगर की शाह-ए-हमदान दरगाह में भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगा. वे एक यूरोपीय सैलानी के लिए खाना बनाता था. जब अब्दुल कदीर को अदालत ले जाया गया, तो भारी भीड़ उसका समर्थन करने जुटी. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन ने फैसला किया कि उसका मुकदमा जेल परिसर में ही चलाया जाएगा.

13 जुलाई 1931 की सुबह, जब श्रीनगर जेल के बाहर हज़ारों प्रदर्शनकारी जमा थे, पुलिस ने उन पर गोलियां बरसा दीं. मृतकों के शव जब लोग महाराजगंज इलाके से लेकर जा रहे थे, तो उन्होंने हिंदू दुकानों को लूटना शुरू कर दिया. इसके बाद स्थानीय मुसलमानों ने आरोप लगाया कि हिंदुओं ने सैनिकों की मदद से जवाबी हमला किया और उनकी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया.

इतिहासकार चित्रलेखा ज़ुत्शी के अनुसार, 1931 में भड़के धार्मिक तनाव को समझने के लिए उस समय की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को देखना ज़रूरी है. 1920 के दशक के अंत से शुरू हुई ग्रेट डिप्रेशन (महामंदी) ने कश्मीर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया. कृषि उत्पादों की कीमतें गिरने लगीं, जिससे ग्रामीण मज़दूर शहरों की ओर काम की तलाश में आने लगे, लेकिन वहां भी उद्योगों का बुरा हाल था. ज़ुत्शी लिखती हैं कि ग्रामीण इलाकों में साहूकार किसानों की ज़मीनें ज़ब्त कर रहे थे.

1931 में 26 साल के शेख अब्दुल्ला, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री लेकर कश्मीर के शिक्षा विभाग में काम कर रहे थे. वे उस नवगठित मुस्लिम मध्यवर्ग का हिस्सा थे जो राजनीतिक प्रतिनिधित्व और अधिकारों की मांग कर रहा था. 1920 के दशक से ही शेख अब्दुल्ला ऐसे समूहों के अगुआ बन चुके थे जो मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में अधिक अवसर देने की मांग कर रहे थे. 1930 की गर्मियों में जब महात्मा गांधी को गिरफ्तार किया गया, तो कश्मीर ने भी एकजुटता में बंद का आह्वान किया, जो उभरती जनराजनीति की मिसाल थी.

इसी दौरान एक और महत्वपूर्ण घटना हुई. मार्च 1931 में श्रीनगर के मीरवाइज़ अतीकुल्ला का निधन हो गया. वे वहां के मुस्लिमों के वंशानुगत धार्मिक नेता और महाराजा के समर्थक थे. उनके निधन के बाद उत्तराधिकार को लेकर कड़ा संघर्ष छिड़ गया. एक ओर यूसुफ शाह थे, तो दूसरी ओर परिवार की प्रतिद्वंद्वी शाखा से मोहम्मद अहमदुल्ला हमदानी.

हालांकि, यह पद जनभावनाओं पर आधारित नहीं था, लेकिन समाज में तेज़ी से बढ़ते धार्मिक तनाव ने इस उत्तराधिकार विवाद को राजनीतिक रंग दे दिया और एक ऐसा आंदोलन आकार लेने लगा जिसकी कमान जल्द ही शेख अब्दुल्ला जैसे नेता संभालने लगे.


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धर्म के लिए संघर्ष

भारत के ज़्यादातर रियासती राज्यों की तरह कश्मीर में भी कर बहुत ज़्यादा वसूले जाते थे और यह पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं की बजाय राजघराने के खर्चों पर ज़्यादा लगाया जाता था. इससे हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों को नुकसान पहुंचता था, लेकिन इतिहासकार मृदुला राय के अनुसार, डोगरा शासकों ने राज्य को धार्मिक पहचान देने की भरपूर कोशिश की.

उदाहरण के लिए गाय को मारने पर 10 साल की सज़ा थी, बकरे की कुर्बानी सिर्फ कुछ खास दिनों पर ही दी जा सकती थी और जो कोई इस्लाम कबूल करता, वह अपने पुश्तैनी ज़मीन-जायदाद का हक खो देता था.

कश्मीर के तत्कालीन विदेशी मंत्री एलबियन राजकुमार बनर्जी ने यहां के मुसलमानों की हालत को “गूंगे और हांक कर ले जाए जाने वाले जानवरों” जैसी बताया था.

इतिहासकार इयान कॉपलैंड लिखते हैं कि कश्मीर की आबादी में मुस्लिम बहुसंख्यक थे, लेकिन फिर भी सरकारी उच्च पदों में 78 प्रतिशत हिंदू और सिख थे, जबकि मुसलमानों को सिर्फ 22 प्रतिशत हिस्सेदारी मिली थी. कोटली और राजौरी के तहसीलदार, भिम्बर, नौशेरा, कोटली और राजौरी के नायब तहसीलदार, कोटली के पुलिस अधीक्षक और उप-अधीक्षक सभी हिंदू या सिख थे. यहां तक कि मीरपुर में 10 में से 9 पटवारी (भूमि रिकॉर्ड अधिकारी) कश्मीरी ब्राह्मण थे.

पंजाब की कई राजनीतिक ताकतों के लिए यह असंतोष एक मौका बनकर सामने आया. अहमदिया संप्रदाय के खलीफा, मिर्ज़ा बशीरुद्दीन महमूद अहमद ने कश्मीर में इस्लाम के प्रचार के लिए मिशनरी अभियान शुरू कराया. अहमदिया मुख्यालय गुरदासपुर, जम्मू के करीब था. इस समुदाय का दावा था कि ईसा मसीह (जिन्हें मुसलमान पैगंबर मानते हैं) की कब्र श्रीनगर में है.

इतिहासकार कॉपलैंड के मुताबिक, अहमदिया समुदाय की आर्थिक मदद से शेख अब्दुल्ला ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ी और पूरी तरह राजनीति में सक्रिय हो गए. इसी वक्त, मजलिस-ए-अहरार नामक एक मुस्लिम राजनीतिक संगठन ने भी अपना अलग राजनीतिक रास्ता बनाने की कोशिश की. यही संगठन बाद में पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय को गैर-मुस्लिम घोषित कराने का आंदोलन चलाएगा. जबकि मुस्लिम लीग और पंजाब के शक्तिशाली यूनियनिस्ट नेता अंग्रेज़ों के साथ थे, मजलिस-ए-अहरार खुद को क्रांतिकारी कहते थे, वे अंग्रेज़ी हुकूमत और ज़मींदारों-राजाओं के पारंपरिक शासन का विरोध कर रहे थे.

मुश्किल विरासत

जब पूरे राज्य में विरोध की लहर उठी, तो डोगरा शासन ने दमन का रास्ता अपनाया. सितंबर के अंत में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे पांच लोगों को श्रीनगर में गोली मार दी गई और अनंतनाग में 22 मुसलमान मारे गए. अगले दिन, शोपियां में गुस्साई भीड़ ने पुलिस पर हमला किया — जुमे की नमाज़ के दौरान मस्जिद के बाहर तैनात गार्डों की पिटाई की गई.

महाराजा के प्रमुख सलाहकार, पंडित हरि किशन कौल और उनके भाई दया किशन कौल ने जवाब में मार्शल लॉ (सैनिक कानून) लागू कर दिया. इतिहासकार कॉपलैंड लिखते हैं कि स्थानीय मुसलमानों को राजा के रंगों के फूल पहनने को मजबूर किया गया और 100 से ज़्यादा लोगों को सरेआम कोड़े मारे गए. स्थिति तेज़ी से संकट की ओर बढ़ने लगी. मीरपुर और जम्मू के मुसलमान सड़कों पर उतर आए. उन्होंने शेख अब्दुल्ला की रिहाई की मांग की. भीड़ ने धार्मिक स्वतंत्रता, दंगा पीड़ितों के लिए मुआवज़ा और नौकरियों में बराबर की हिस्सेदारी की मांग की.

श्रीनगर में तैनात ब्रिटिश रेज़िडेंट कर्टनी लैटिमर ने चेताया कि “व्यापक विद्रोह हो सकता है.” 1931-1932 के इस संकट की विरासत बेहद जटिल है. इसमें कोई शक नहीं कि धर्म ने कश्मीर में राजनीतिक चेतना जगाने में अहम भूमिका निभाई और आने वाली कई पीढ़ियों तक यह एक जहरीली भूमिका निभाता रहा. बहुत कम नेता, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम, इस बात को स्वीकार करने की हिम्मत दिखा पाए हैं कि सांप्रदायिकता ने कश्मीर के सार्वजनिक जीवन पर कितना गहरा असर डाला है.

फिर भी, 1931 की घटनाएं ही वो आधार बनीं जिन पर बाद में कश्मीर का भारत से विलय हुआ. इस संकट के बाद राज्य में एक विधानसभा बनाई गई, भले ही वोटिंग का अधिकार सिर्फ उन्हें मिला जो हर साल 20 रुपये ज़मीन कर देते थे. फिर भी, मुसलमानों को शिक्षा और प्रतिनिधित्व में कुछ वास्तविक लाभ मिले. शेख अब्दुल्ला ने भी वक्त के साथ अपने शुरुआती उग्र विचारों से दूरी बना ली और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन से हाथ मिला लिया.

अगर 1931 की हत्याओं को कश्मीर की राजनीतिक स्मृति से मिटाने की कोशिश की जाती है, तो यह कश्मीर के मुसलमानों को ये संकेत देता है कि वे ‘दूसरे दर्जे के नागरिक’ ही बने रहेंगे और वहां से रास्ता फिर एक बार उस दर्दनाक और बंटे हुए अतीत की ओर लौट जाता है, जिसे हम बार-बार भूलना चाहते हैं, लेकिन वो लौट आता है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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