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Thursday, 7 November, 2024
होममत-विमतपरिवार और पिता बनने के लिए माओवादियों ने सरेंडर किया लेकिन उनके इस सपने को काफी पहले छीन लिया गया

परिवार और पिता बनने के लिए माओवादियों ने सरेंडर किया लेकिन उनके इस सपने को काफी पहले छीन लिया गया

एक दशक के दौरान एकमात्र परिवर्तन ये हुआ कि पहले वह एक विद्रोही के रूप में एके-47 टांगता था, अब वह सरकार के सैनिक के रूप में ऐसा करता है.

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पिछले 10 वर्षों से मैं मध्य भारत के नक्सल-प्रभावित क्षेत्र से रिपोर्टिंग करते वक्त छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र के विराट बीहड़ में घटित हो रही त्रासदी को दर्ज कर रहा हूं. लेकिन आज भी बस्तर के आदिवासियों की व्यथा नए रूप में सामने आती है, हतप्रभ कर देती है.

पिछले महीने एक सुबह सुकमा-बीजापुर सीमा के जंगलों में एक पुलिस गश्ती दल से मेरा सामना हुआ. आधा घंटा भी नहीं हुआ था जब पुलिसकर्मियों ने वहां एक आईईडी विस्फोटक बरामद दिया था. ये सर्वाधिक खतरनाक किस्म का भूमिगत बारूद था, जिसमें धमाका कराने के लिए किसी ट्रिगर की भी आवश्यकता नहीं. उस पर अनजाने में किसी के पांव रखने भर की देर होती है और विस्फोटक उसके पुर्जे उड़ा सकता है.

जब मैं उनसे ऐसे विस्फोटकों को बिछाने और उन्हें निष्क्रिय करने के बारे में बात कर रहा था, मुझे सहसा एहसास हुआ कि उनमें से एक से मैं पहले मिल चुका था.

वह एक पूर्व नक्सली था. मैं 2012 में उससे मिला था, वहां से लगभग 600 किलोमीटर उत्तर में स्थित राजनांदगांव में. उसने पिता बनने की उत्कट इच्छा के साथ अपनी प्रेमिका के साथ आत्मसमर्पण किया था. बीजापुर के गंगालूर क्षेत्र के इस आदिवासी को नक्सली दस्ते में शामिल होने के कुछ ही समय बाद सिर्फ बीस की उम्र में नसबंदी करानी पड़ी थी. माओवादियों के खेमे में नसबंदी लगभग अनिवार्य है. चूंकि बच्चे का जन्म और उसका पालन-पोषण क्रांति की राह में अवरोध हो सकता है, माओवादियों ने अविवाहित लड़ाकों के बीच यौन संबध को प्रतिबंधित कर दिया है और विवाहितों के लिए सख्त निर्देश है— जिसका एक साधन है पुरुष नसबंदी.

लेकिन आत्मसमर्पण के बाद अब यह व्यक्ति नसबंदी को उलटाना चाहता था. अक्टूबर 2012 में मैंने उसके ऊपर एक रिपोर्ट लिखी थी— हथियार डाल चुका पहला नक्सली जो नसबंदी को उलटवाना और ‘पिता बनने का अपना अधिकार वापस हासिल करना चाहता है’. जल्दी ही, आत्मसमर्पण कर चुके कई अन्य नक्सलियों ने भी छत्तीसगढ़ पुलिस की मदद से नसबंदी को निष्प्रभावी करने के लिए रिवर्स ऑपरेशन का विकल्प अपनाया था.

लेकिन उस जनवरी की सुबह मुझे पता चला कि वह बाप नहीं बन पाया था. शायद नसबंदी या उसके बाद उसे उलटाने के दौरान कोई समस्या पैदा हो गयी थी. थोड़ी पड़ताल करने पर मैंने पाया कि वह अकेला नहीं था. अपनी प्रेमिकाओं के साथ आत्मसमर्पण करने और नसबंदी उलटाने वाले कई नक्सली पिता नहीं बन पाये थे. घर बसाने के जिस ख्वाब को लिए वे माओवादियों का साथ छोड़कर आए थे, वह अधूरा रह गया था. इतने वर्षों से वे मानते आ रहे थे कि नसबंदी को उलटा जा सकता है लेकिन अब उनके सामने कुछ अज्ञात समस्याएं आ गई थीं.

फिर एक डॉक्टर मित्र से मुझे पता चला कि नसबंदी उलटाने की सफलता दर समय के साथ घटती जाती है. यानि उलटवाने का ऑपरेशन जितने दिन बाद किया जाएगा, उसकी सफलता की संभावना उतनी कम हो जाएगी. लेकिन, अपने कैडरों पर नसबंदी थोपने वाले माओवादी नेता और आत्मसमर्पित नक्सलियों के पुनर्वास को सुनिश्चित कर रहे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी शायद इससे अनजान थे. इससे भी खराब यह था कि पहले नसबंदी और फिर इसे उलटाने वाले डॉक्टरों ने भी उन्हें यह नहीं बताया था.


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हेमलकसा का क्लीनिक

माओवादियों की नसबंदी करने वाले डॉक्टर ज्यादातर नागपुर और गढ़चिरौली के हैं. रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बाबा आमटे के बेटे प्रकाश आमटे ऐसे ही एक डॉक्टर हैं, जिन्होंने तमाम नक्सलियों की नसबंदी की है. प्रकाश और उनकी पत्नी मंदाकिनी भी रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित हैं, यह एकमात्र परिवार है जिसके तीन सदस्यों को ‘एशिया का नोबेल’ मिल चुका है.

अबूझमाड़ के पश्चिमी किनारे पर गढ़चिरौली जिले का आदिवासी-बाहुल्य गांव हेमलकसा छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमाओं को छूता है. बाबा आमटे ने 1973 में हेमलकसा में स्थानीय समुदाय की सेवा के लिए ‘लोक बिरादरी प्रकल्प’ स्थापित किया था. एक साल बाद प्रकाश ने वहां एक झोपड़ी में चिकित्सा केंद्र खोला और अपनी डॉक्टर पत्नी मंदाकिनी के साथ गांव में ही बस गए. 1980 के दशक में यह क्षेत्र नक्सलियों के प्रभुत्व में आ गया. नक्सली स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आमटे के क्लिनिक में आते थे और कभी-कभी अपने कैडरों की नसबंदी भी कराते थे. हेमलकसा में नसबंदी कराने वालों में किशोर माओवादी भी शामिल थे. एक बार एक नक्सली ने मुझे बताया था, ‘जब मेरी नसबंदी हुई तब मैं मात्र 18 साल का था.’

सरकारी स्वास्थ्य सुविधा से वंचित इस वृहद इलाके में आमटे का क्लिनिक आदिवासियों के लिए एकमात्र स्वास्थ्य केंद्र था. बाबा आमटे ने 1985 में मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त किया था, जबकि प्रकाश और मंदाकिनी को 2008 में ‘चिकित्सा और शिक्षा और अन्य करुणामय कार्यों के ज़रिए माडिया गोंड लोगों की क्षमता के विकास के लिए’ मैग्सेसे दिया गया.

प्रकाश ने 2012 में मुझसे बात करते हुए नसबंदी ऑपरेशन करने की बात स्वीकार की थी लेकिन उनका कहना था कि उन्होंने केवल एक डॉक्टर के रूप में अपना कर्तव्य निभाया और चिकित्सकीय दृष्टि से यह गर्भपात की तुलना में कम जोखिम भरा था.

उन्होंने कहा, ‘माओवादी अपनी पत्नियों के गर्भपात और अपने कैडरों की नसबंदी के लिए मेरे पास आते थे. गर्भपात महिलाओं के लिए जोखिम भरा था, इससे उनकी जान खतरे में पड़ जाती थी.’ उन्होंने आगे बताया, ‘यह आशंका भी थी कि एक बार गर्भपात कराने पर वे दोबारा उसी महिला को गर्भपात के लिए ला सकते हैं. ये उसके स्वास्थ्य की दृष्टि से कहीं अधिक जोखिम भरा होता, इसलिए मैंने पुरुष नसबंदी के कम बुरे विकल्प को चुना. साथ ही, मुझे पता था कि पुरुष नसबंदी को उलटा जा सकता है.’


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पितृत्व से वंचित

प्रकाश आमटे ने शायद उन्हें यह नहीं बताया था कि इसे उलटवाने की सफलता दर सीमित होती है. चूंकि इन पुरुषों को अभी तक ये पता नहीं है कि बहुत पहले ही उनसे पिता बनने की क्षमता शायद छीन ली गई थी, उनमें से कुछ अभी भी पिता बनने के लिए विभिन्न विकल्पों को आजमा रहे हैं, साथ ही अपनी असमर्थता की वजह समझने की भी कोशिश कर रहे हैं.

इस क्रूर विडंबना के लिए किसे दोष दिया जाए— वह क्रांतिकारी विचारधारा जिसने अपनी देह और यौनिकता पर नक्सली के अधिकार को छीन लिया, वे डॉक्टर जिन्होंने उन्हें इसके दुष्परिणामों के बारे में नहीं बताया, नहीं तो शायद उनमें से कुछ अपने वरिष्ठ नेताओं के हुक्म का प्रतिरोध कर सकते थे या वे पुलिस अधिकारी जिन्हें नहीं मालूम था कि उलटवाने की सफलता दर सीमित होती है?

खोई संभावनाएं गिनने की इस कवायद का कोई अंत नहीं है. जिस इंसान से मैं उस सुबह मिला, उसके भीतर आत्मसमर्पण के एक दशक बाद सिर्फ यह परिवर्तन आया था- पहले वह एक विद्रोही के रूप में एके-47 लिए चलता था, अब वह भारतीय सत्ता के सिपाही बतौर उसी हथियार को लिए घूमता है. पहले वह भूमिगत बारूद बिछाता था, अब उसे बरामद कर, निष्क्रिय करता है.

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट’ नक्सल आंदोलन का इतिहास खंगालती है. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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