scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतहाथरस से हरियाणा तक राहुल गांधी एक बार फिर सक्रिय दिखे मगर कब तक

हाथरस से हरियाणा तक राहुल गांधी एक बार फिर सक्रिय दिखे मगर कब तक

आज जो लोग राहुल की सक्रियता पर उनके लिए तालियां बजा रहे हैं वे कल को उनके मनमौजीपन, उनकी अघोषित विदेश यात्राओं, और सबसे ऊपर नेतृत्व संकट से निबटने में उनकी विफलता के लिए उनके खून के प्यासे भी हो सकते हैं.

Text Size:

पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश पुलिस ने राहुल गांधी को जब हाथरस जाने से रोक दिया, तब कई लोगों को उनके भीतर मसीहा की छवि नज़र आने लगी. कुछ दिनों बाद उनकी तस्वीरें हाथरस कांड की पीड़िता के परिवार के साथ आईं, और उन्हें करुणा की प्रतिमूर्ति घोषित कर दिया गया. किसी ने याद दिलाया कि वह 2012 में दिल्ली के निर्भया कांड की पीड़िता के छोटे भाई से नियमित बात किया करते थे. इसके बाद राहुल कृषि विधेयकों के विरोध में हरियाणा में ट्रैक्टर रैली का नेतृत्व करते दिखे, जहां उन्हें रोक दिया गया. ऐसा लगा कि भारत और भारत की जनता को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज से मुक्ति दिलाने के लिए अंततः राहुल ने अवतार ले ही लिया है.

ऐसी अपेक्षाएं बेवजह नहीं हैं. नायकों के अभाव से जूझता समाज उम्मीद की बारीक़ किरण या किसी क्षणिक सहारे की प्रतीक्षा में जीता है. लेकिन इस भावुक महिमागान और मुगालते को परे रख तटस्थ हो यह पूछना चाहिए कि क्या राहुल वह नेतृत्व दे सकते हैं जिसकी प्रतीक्षा अनेक भारतीय कर रहे हैं?  राहुल के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती क्या है, और उसका सामना उन्होंने कैसे किया है? आज़ाद भारत में शायद उनसे अधिक सौभाग्यशाली नेता कोई नहीं हुआ है. उन्हें बिना किसी खास योग्यता के देश के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक ओहदे विरासत में मिले हैं. इन ओहदों को उन्होंने अपना जन्मसिद्ध अधिकार माना है. अपने विशेषाधिकार के आंकलन का विचार शायद कभी उनके भीतर नहीं आया है, जबकि उनकी पार्टी के पास जुलाई 2019 से पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है.

महीना भर पहले उन्होंने और कांग्रेस में उनकी मंडली ने पार्टी में नेतृत्व संकट को लेकर 23 वरिष्ठ नेताओं के जायज सवालों को सिरे से खारिज कर दिया था. सबसे ख़राब यह कि इन असहमत नेताओं को ‘विश्वासघाती’ कहा गया. गांधी परिवार जब अपने ही संगठन में असहमति को सम्मान नहीं दे सकता तो वह मोदी सरकार से असहमत होने वालों के पक्ष में किस नैतिक अधिकार से बोल पायेगा? जब राहुल अपनी ही पार्टी के सदस्यों का विश्वास खो रहे हैं, वह मतदाताओं से कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वे उन पर विश्वास करेंगे?

माना कि कोरोना संकट के बारे में उनकी भविष्यवाणियां सच हुईं और मोदी सरकार की उनकी आलोचना तर्कसंगत है, लेकिन जब निर्णायक कसौटी यानी राजनीतिक समझ और कौशल का प्रश्न आएगा, उनका ‘सीवी’ खाली नज़र आएगा. कोरोना काल के दौरान मध्य प्रदेश में उनकी पार्टी ने सत्ता गंवा दी और राजस्थान में लुढ़कने से जैसे-तैसे बच गयी. बेशक इसके लिए भाजपा की क्रूर और मूल्यहीन राजनीति अधिक दोषी है, मगर कांग्रेस नेतृत्व के बारे में भी सोचना चाहिए, जो अपने कुनबे को एकजुट नहीं रख पाता.

पार्टी में सुधार के खोखले दावे

नवंबर-दिसंबर 2013 में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली विधानसभाओं के चुनाव में भारी पराजय के ठीक बाद राहुल ने एक मशहूर बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि वे ‘पार्टी को इस तरह सुधार देंगे कि आप उसे पहचान भी नहीं पाएंगे.’ ये चुनाव 2014 के लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले हुए थे, जिसके लिए भाजपा ने सितंबर 2013 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बतौर नरेंद्र मोदी की घोषणा कर दी थी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उलट बयार कांग्रेस के पक्ष में थी, फिर भी वह हार गई. इसके बाद से पूरे देश में वह सिकुड़ती ही जा रही है. बस 2018 में कुछ राज्यों में उसकी किस्मत थोड़ी बदली, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का फिर से सूपड़ा साफ हो गया. आंतरिक सुधार तो भूल ही जाइये, कांग्रेस जगनमोहन रेड्डी, अजित जोगी या ज्योतिरादित्य सिंधिया सरीखे अपने कई क्षेत्रीय नेताओं को बगावत करने से भी नहीं रोक पाई है.


यह भी पढ़ें : ‘गाय हमारी माता है’ का अनुवाद कर के देखिये, यही आपको अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में सेक्युलरिज़्म का अंतर दिखा देगा


एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने 2016 में मुझसे कहा था कि राहुल को कभी कोई विफलता नहीं मिली. 2014 के बाद वह भले सत्ता में न रहे हों, लेकिन पार्टी पर उनका कब्जा सम्पूर्ण है. पार्टी के जिला अध्यक्ष पद पर भी अंतिम मोहर उनकी होती है और इस सत्ता सुख से वह जरा भी दूर नहीं जाना चाहते.

अगर वह अपने विशेषाधिकारों को रत्ती भर नहीं छोड़ सकते, तो देश के वंचितों के बारे में बात करने का उन्हें क्या नैतिक अधिकार है? जब तक वह एक सत्ताधारी की तरह बर्ताव करेंगे, दलित घरों में उनके दौरों को संदेह की निगाह से देखा जायेगा.  सबसे ख़राब यह कि चूंकि उनका राजनैतिक व्यवहार स्थिर नहीं है, इस तरह के दौरे किसी सयाने और दीर्घकालीन अभियान के बजाय अधीर और आवेगजन्य प्रतिक्रिया बतौर देखे जायेंगे.

उनके समर्थक कहते हैं कि जिस तरह के कटाक्ष उनके ऊपर हुए हैं, वैसे शायद ही किसी और नेता पर किए गए होंगे. इसका उलट भी सच है. कोई और नेता उनके जैसा विशेषाधिकार-संपन्न भी नहीं रहा है. यह इसी स्वयंभू विशेषाधिकार कर परिणाम है कि वह किसी राजनैतिक अभियान को सहसा शुरू कर जब मन करे बीच रास्ते छोड़ देते हैं.

मुझे 25-26 मई 2013 की रात याद आती है. छत्तीसगढ़ में माओवादी हमले में कई वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के मारे जाने के कुछ घंटे बाद तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी उस रात करीब 2 बजे रायपुर पहुंचे थे और बदहवास पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित किया था. उनका संबोधन भावुक तो था, मगर उन्होंने ‘माओवादी’ शब्द का एक बार भी जिक्र नहीं किया, न क्रांतिकारियों से निबटने की कोई रणनीति सुझाई और न ही प्रदेश इकाई को नये सिरे से खड़ा करने का कोई रास्ता सुझाया.

कुछ महीने बाद ही छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव होने थे, 2014 के लोकसभा चुनाव सिर पर थे, प्रदेश पार्टी अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, बस्तर में पार्टी के सबसे कद्दावर नेता महेंद्र कर्मा समेत कई नेता उस हमले में मारे जा चुके थे. बेसहारा प्रदेश कांग्रेस को दिल्ली के मार्गदर्शन की सख्त जरूरत थी, लेकिन राहुल उस आधी रात के आकस्मिक दौरे के बाद उस राज्य में फिर नहीं आये, जब तक कि कई महीने बाद एक चुनावी सभा में आने की मज़बूरी न बन गयी.

उस रात का भावुक उद्बोधन अधूरा रह गया, कोई ठोस योजना नहीं बनी. बिना पतवार की नाव की तरह छत्तीसगढ़ कांग्रेस चुनावी लहरों में डोलती रही, अजित जोगी को बगावत का मौका मिल गया और मजबूत सहानुभूति लहर के बावजूद कांग्रेस सत्ताधारी भाजपा से हार गई. आलाकमान चुनाव प्रक्रिया और प्रदेश इकाई की आवश्यकताओं के प्रति पूरी तरह उदासीन रहा आया.

झूठी उम्मीदें?

इसलिए, राहुल गांधी पर टिकी उम्मीदों का संबंध उनके अपने व्यक्तित्व से कहीं अधिक उस हताश जनता से है जो मोदी के सामने किसी को भी जैसे-तैसे खड़ा कर देना चाहती है.


यह भी पढ़ें : हिंदी अब ज्ञान की भाषा नहीं रही, स्तरहीनता के साम्राज्य ने इसकी आत्मा को कुचल दिया है


लेकिन जनता की स्मृति क्षणिक होती है, और सोशल मीडिया की तो उससे भी ज्यादा क्षणिक है. आज जो लोग सोशल मीडिया पर राहुल के लिए तालियां बजा रहे हैं वे कल उनके अस्थिरता, उनकी अघोषित विदेश यात्राओं, और नेतृत्व संकट से निबटने में उनकी विफलता के लिए उनके पीछे पड़ जायेंगे. मतदाताओं को तो छोड़िए, आज जो लोग उनके पक्ष में ‘हैशटैग’ चला रहे हैं वे उनकी राजनीतिक विफलता पर उन्हें बख्शने को कतई तैयार नहीं होंगे.

राहुल भले एक सहिष्णु और संवेदनशील इंसान बतौर उभर रहे हैं, उनकी अग्निपरीक्षा की भूमि कहीं और है. अपने विशेषाधिकार से, कांग्रेस में अपनी स्थिति से वह किस तरह जूझते हैं, इससे खुद उनका और उनकी पार्टी का, और काफी हद तक उनके देश का भविष्य तय होगा. कड़े आत्ममंथन के बगैर मोदी सरकार के खिलाफ उनका विरोध हमेशा वेध्य रहा आएगा.

मैं चाहता हूं कि गलत साबित हो जाऊं, लेकिन उनका पिछला रिकॉर्ड दिखाता है कि हाथरस दौरे और हरियाणा की ट्रैक्टर रैली की तस्वीरें जल्दी ही पीली पड़ जाएंगी, उनके वर्तमान प्रशंसक इस कटु सत्य के साथ अपने एकांत में जूझते नजर आएंगे, जबकि राहुल फिर से किसी अघोषित और अज्ञात यात्रा को निकल जायेंगे.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताबद डेथ स्क्रिप्ट, नक्सल आंदोलन का इतिहास खंगालती है. ये लेखक के निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments