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Sunday, 24 November, 2024
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मनमोहन सिंह की अर्थ नीति में चीन से बहुत पीछे कैसे छूट गया भारत

चीन इस समय वैश्विक आर्थिक ताकतों में से एक है. प्रति व्यक्ति आमदनी में वह संपन्न देशों के बराबर है, वहीं विनिर्माण में सबसे आगे निकल चुका है. वहीं 1990 तक करीब हर मोर्चे पर चीन से आगे रहा भारत अब उससे बहुत पीछे छूट चुका .

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चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भारत से 4.78 गुना बड़ा है. चीन में प्रति व्यक्ति आमदनी 10,216.6 डॉलर, जबकि भारत में 2104.1 डॉलर है. भारत करीब हर मोर्चे पर चीन से पीछे नजर आता है और चीन न सिर्फ सैन्य बल्कि आर्थिक हिसाब से वैश्विक ताकत बन चुका है. चीन वैश्विक ताकत कैसे बना, इसके लिए हमें महज 3 दशक पीछे जाना होगा, जब अर्थव्यवस्था के आकार और प्रति व्यक्ति आमदनी के हिसाब से भारत, चीन से आगे था.

1990 में चीन ने आर्थिक नीतियां बदलकर अपना बाजार खोला और उसी समय मनमोहन सिंह की खुली अर्थव्यवस्था की नीति लागू हुई. उसके बाद चीन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और भारत हर आर्थिक मोर्चे पर चीन से पिछड़ता गया. अब भारत विनिवेश से बिक्री के दौर में पहुंच चुका है.  1990 तक आगे रहा भारत और चीन दोनों देशों ने 1950 में नए आर्थिक युग में प्रवेश किया था. उस समय भारत में लंबे समय तक अंग्रेजों के शासन के बावजूद आर्थिक मोर्चे पर चीन की तुलना में भारत की आर्थिक स्थिति बेहतर थी.

सकल घरेलू अत्पाद (जीडीपी) के आकार के हिसाब से देखें तो 1987 में दोनों देश बराबर थे. जीडीपी के हिसाब से प्रति व्यक्ति आमदनी देखें तो विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत की स्थिति 1990 तक चीन से बेहतर रही है.1990 में भारत की प्रति व्यक्ति आमदनी 368 डॉलर थी, जबकि चीन की 318 डॉलर.

मिश्रित अर्थव्यवस्था से शुरुआत

स्वतंत्रता के बाद जवाहरलाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई. शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान से लेकर बड़े बड़े उद्योगों की स्थापना सरकार ने अपने हाथों में लिया. साथ ही निजी क्षेत्र को भी बढ़ने दिया गया. हालांकि बिजनेस, खासकर भारी उद्योगों व प्राकृतिक संसाधनों जैसे कोयला, लोहा आदि पर सरकार का पूरी तरह से नियंत्रण बना रहा. विदेश से भी सहयोग लिया जाता रहा और उस दौर के सोवियत संघ (यूएसएसआर) से परमाणु बिजली, बड़े बांध बनाने सहित विभिन्न क्षेत्रों में मिलकर काम हुआ.

वहीं माओत्से तुंग के शासनकाल में पूरी तरह बंद अर्थव्यवस्था रही. तुंग की लोकप्रियता चरम पर थी क्योंकि देश में आंदोलन चलाकर और लांग मार्च के माध्यम से लोगों को एकजुट कर उन्होंने कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था स्थापित की थी.1978 में माओत्से तुंग की मृत्यु हो गई. तब तक बड़ी जनसंख्या के बोझ से कराहते चीन की आर्थिक प्रगति हाशिये पर थी. उसके बाद देंग श्याओ पिंग के नेतृत्व में चीन ने विदेशी निवेश मंगाने और अर्थव्यवस्था को खोलने  की कवायद शुरू की और खासकर तटीय इलाकों में यह काम हुआ जिससे आयात-निर्यात सरल हो सके.

उस दौर में भारत में इंदिरा गांधी का शासन था. गांधी ने राजाओं के प्रिवी पर्स खत्म किए. तमाम निजी उद्योगों को सरकार के कब्जे में ले लिया. बैंक सरकार के हाथ में आ गए. हालांकि निजी क्षेत्र को छोटे कारोबार में अवसर मिलते रहे और कुल मिलाकर भारत में 1990 तक भारत में मिली-जुली अर्थव्यवस्था चलती रही.


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1990 के बाद का बदलाव

बाजार खोलने के बाद चीन ने कारोबार व प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, ज्यादा बचत दर, मानव व भौतिक संसाधनों में भारी निवेश और मजबूत सूक्ष्म वित्त नीतियों के हिसाब से तेजी से प्रगति की. चीन ने विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाए और निर्यात केंद्रित उद्योगों पर जोर दिया. कारोबार के नियमों का पालन करते हुए इन क्षेत्रों में कारोबार पर ढील दी गई.चीन ने इस दौरान अपने विशेष क्षेत्रों में विदेशी निवेश पूरी तरह खोल दिया. खासकर उन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को भरपूर छूट दी गई, जहां तकनीकी रूप से चीन कमजोर था. वहीं बड़े उद्योगों और प्राकृतिक संसाधनों पर सरकारी कब्जा बरकरार रखा. चीन ने सबसे ज्यादा बुनियादी ढांचे पर खर्च किया. यानी चीन ने 1990 में मिश्रित अर्थव्यवस्था की वह रणनीति अपनाई, जो नेहरू ने 1950 में अपनाई थी.

1991 में पीवी नरसिम्हाराव के शासनकाल में वित्तमंत्री बने मनमोहन सिंह ने खुली अर्थव्यवस्था का पक्ष लिया. सरकारी कंपनियों के विनिवेश की अवधारणा पेश की गई. हालांकि नरसिम्हाराव के शासनकाल तक किसी भी सरकारी कंपनी या पीएसयू में 49 प्रतिशत से ज्यादा निजी या विदेशी निवेश की अवधारणा नहीं आई थी. लेकिन भारत के निजी क्षेत्र और विदेशी कंपनियों ने भारत की नई रणनीति का स्वागत किया. भारत का सरकारी क्षेत्र निजी निवेश के लिए खुल चुका था.

1996 में कांग्रेस के सत्ता से हटने के बाद भारत की राजनीति में अस्थिरता का दौर रहा. लेकिन जैसे ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी, सरकारी माल की बिकवाली शुरू हो गई. सरकारी संपत्तियों को बेचने के लिए भारत में पहली बार अरुण शौरी के नेतृत्व में विनिवेश मंत्रालय बनाया गया. विनिवेश मंत्रालय ने तमाम कवायदें कर सरकारी उपक्रमों में निजी हिस्सेदारी को बढ़ाया. देश में बड़े पैमाने पर सरकारी होटलों को बेच दिया गया, जो प्रमुख शहरों के आलीशान इलाकों में स्थित थे. यही वह दौर था, जब संचार क्षेत्र में निजी कंपनियों का प्रभुत्व कायम हुआ. बीएसएनएल के नेटवर्क में ढेरों समस्याएं आने लगीं और निजी कंपनियां बीएसएनएल से आगे निकल गईं.सरकारी बैंक कमजोर पड़ने लगे.

2004 से 2014 के मनमोहन सिंह के काल में विनिवेश मंत्रालय तो खत्म कर दिया गया, लेकिन कंपनियों में विनिवेश की प्रक्रिया जारी रही. हर बजट में सरकार विनिवेश का लक्ष्य तय करती थी और सरकारी कंपनियों, सरकारी जमीनों की बिक्री  कर उससे आमदनी कमाया जाता रहा.हालांकि इस दौर में बैंकिंग क्षेत्र में खूब भर्तियां हुईं. निजी के साथ सरकारी बैंकों का भी कारोबार बढ़ा.

2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद बिकवाली के लिए अलग मंत्रालय तो नहीं गठित हुआ, लेकिन उसकी जगह पर दीपम (विनिवेश एवंसार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग) बनाया गया. दीपम का काम उन सरकारी उपक्रमों, कंपनियों, जमीनों की तलाश करना है, जिनकी बिक्री की घोषणा सरकार अपने बजट में करती है. कुल मिलाकर 1991 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था निजी हाथों में चली गई. बड़े उपक्रमों की बिक्री जारी है. अब रेलवे का बड़े पैमाने पर निजीकरण हो रहा है. सरकारी बैंकों को बेचने की तैयारी हो रही है. एयर इंडिया सहित तमाम सरकारी कंपनियों को सरकार पूरी तरह से बेचने को तैयार है. शुरुआती दौर में अखबारों में इसे विनिवेश लिखा जाता था, जिसे अब सीधे बिक्री लिखा जाता है.


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सरकारी कंपनियों के दम पर चीन निकला आगे

इस बीच मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले चीन की 2019 में प्रति व्यक्ति आमदनी 10,216.6 डॉलर हो गई, जबकि भारत में 2104.1 डॉलर पर अटका है. अगर सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शासन देखें तो 2014 में भारत का नॉमिनल जीडीपी कैपिटा 1,574 से बढ़कर 2019 में 2,104 पर पहुंचा है, जबकि चीन की 7,651 से बढ़कर 9,771पर पहुंच गया है. चीन की अर्थव्यवस्था 1998 में ही एक ट्रिलियन डॉलर को पार कर गई थी, जबकि भारत 9 साल बाद 2007 में ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बन पाया. भारत की हालत यह हो गई है कि वृद्धि दर के हिसाब से भी चीन आगे निकलता नजर आ रहा है.

2018 तक के विश्व बैंक के सबसे ताजा आंकड़ों के मुताबिक चीन ने दुनिया के 215 कारोबारी साझेदार देशों को 2.49 लाख करोड़ डॉलर के 4,416 उत्पादों का निर्यात किया, जबकि विश्व के 216 देशों को 2.13 लाख करोड़ डॉलर के 4,429 उत्पादों का आयात किया है. इस तरह से आयात निर्यात का संतुलन चीन के पक्ष में है.

वहीं 2018 में भारत का आयात 61,800 करोड़ डॉलर रहा है और निर्यात 32,200 करोड़ डॉलर रहा है. आयात और निर्यात दोनों हिसाब से भारत चीन से बहुत पीछे है. इसके बावजूद भारत को वैश्विक व्यापार में 30,000 करोड़ रुपये का कारोबारी घाटा उठाना पड़ता है.

चीन ने तकनीक के मामले में भी बहुत प्रगति की है.भारत ने तनाव बढ़ने पर चीन के 59 ऐप पर प्रतिबंध लगाए हैं. चीन में कोई भारतीय ऐप चलता ही नहीं, जिस पर वह प्रतिबंध लगाए. वहीं इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में चीन बहुत आगे है और 2019 में चीन ने 1.4 लाख करोड़ रुपये के सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक्स सामान भारत को बेच डाले.

आंकड़ों को देखें तो पिछले तीन दशकों में चीन बहुत आगे निकल चुका है. चीन इस समय विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. जब अमेरिका व यूरोप के बड़े देश अपने आयात को डाइवर्सीफाई करके चीन पर निर्भरता घटाना चाहते हैं, ऐसे में भारत को एक विकल्प के रूप में पेश करने की जरूरत है, जिससे सीमा पर खतरा बन चुके चीन का आर्थिक मुकाबला किया जा सके. खासकर भारत को सरकारी संपत्तियों को बेचने की रणनीति पर फिर से विचार करने और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था की ओर लौटने की जरूरत नजर आने लगी है.


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(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

 

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