दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारतीय मध्यवर्गीय के सच्चे नायक थे और यह सच्चाई उनके ज़िंदा रहते नहीं, बल्कि उनकी मृत्यु के बाद ही स्पष्ट हुई. उनकी मृत्यु पर उमड़े सैलाब और स्नेह ने यह दिखा दिया कि शहरी कुलीन और शिक्षित वर्ग खासकर 1990 के दशक की पीढ़ी, जिसे उन्होंने स्वतंत्रता के स्वर्णिम युग में पहुंचाया था, के मन में उनके लिए कितना सम्मान था.
मनमोहन सिंह मध्यवर्गीय स्वप्न के प्रतिनिधि थे. वे 1950 और 60 के दशक के नेहरूवादी राष्ट्र-निर्माता के प्रतीक थे: शिक्षित, विद्वान, प्रतिष्ठित, आत्म-विनीत और सेवा की भावना से प्रेरित. सिंह खुली अर्थव्यवस्था, सभी के लिए समृद्धि और वैश्वीकरण की दुनिया के साथ सहजता के पक्षधर थे.
मनमोहन सिंह भारतीय मिडिल-क्लास के सर्वश्रेष्ठ लोगों का प्रतिनिधित्व करते थे — जैसा असल मध्यवर्ग को होना चाहिए. इसके विपरीत, नरेंद्र मोदी अपनी प्रतिशोध-प्रेरित प्रवृत्तियों, सरकार-भारी केंद्रीकरण प्रवृत्तियों और विभाजनकारी हिंदुत्व राजनीति के साथ भारत के मध्यम वर्ग की सबसे खराब प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं.
दरअसल, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी नेतृत्व के दो ऐसे पहलुओं को दर्शाते हैं, जिनकी ओर भारत का मध्यम वर्ग आकर्षित हुआ है: पहला (मनमोहन सिंह) महान, विद्वान और सुधार और खुलेपन के लिए खड़े रहे, दूसरा (नरेंद्र मोदी) असभ्य, व्यवहारिक और लोकतांत्रिक मानदंडों का उल्लंघन करने वाले और धार्मिक घृणा को हवा देने वाले हैं.
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मिडिल-क्लास कैसे बदला
मनमोहन सिंह की मृत्यु पर उनकी प्रशंसा की गई, जो 2014 में उन्हें पद से हटाने के लिए व्यापक आक्रोश के विपरीत थी. उस चुनाव में मध्यम वर्ग सिंह के खिलाफ हो गया और मोदी के प्रति वफादारी दिखाने लगा. यह बदलाव शहरी शिक्षित वर्ग के राजनीति के साथ संबंधों की बदलती प्रकृति को दर्शाता है.
मनमोहन सिंह जब पहली बार वित्त मंत्री बने तो मध्यम वर्ग ने उनकी प्रशंसा की, जब उन्होंने 1991 के महान परिवर्तन-भारत के बिग बैंग आर्थिक सुधारों का नेतृत्व किया. इन सुधारों ने अर्थव्यवस्था को उदार बनाया और सिंह ने दशकों पुराने समाजवादी लाइसेंस परमिट राज को ध्वस्त कर दिया. अर्थव्यवस्था सरकारी नियंत्रण की बेड़ियों से मुक्त हो गई और आगे बढ़ी. “मनमोहनइकोनॉमिक्स” सुधारवादी अर्थशास्त्र का पर्याय बन गया. हमेशा उदार अर्थशास्त्र में विश्वास रखने वाले सिंह ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अपने सुधारवादी एजेंडे को आगे बढ़ाया, ऐतिहासिक भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर जोर दिया, जिसने भारत को कई नई तकनीकों तक पहुंच दी. उन्होंने आधार, मनरेगा और भोजन के अधिकार सहित नए प्रशासनिक नवाचारों की भी देखरेख की.
बेशक, वे कोई जननेता नहीं थे, उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं जीता और वास्तव में वे एक “एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” थे, इस अर्थ में कि उन्हें तत्कालीन सर्वशक्तिमान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा इस पद के लिए नामित किया गया था, लेकिन 2009 तक, वे अत्यधिक लोकप्रियता वाले प्रधानमंत्री के रूप में उभरे. 2009 के आम चुनावों में यूपीए की जीत मुख्य रूप से सिंह की सरकार के शांत और कुशल नेतृत्व के कारण हुई थी. तब तक, वे मध्यम वर्ग के सपने बन चुके थे, जो एक ऐसे गैर-राजनीतिक प्रधानमंत्री की अपेक्षाओं को पूरा कर रहे थे, जो राजनीति को शासन में उत्कृष्टता और लोगों की सेवा के रूप में देखते थे. मिडिल-क्लास सिंह को ऐसे व्यक्ति के रूप में पसंद करता था, जिसके जैसा वह बनना चाहता था: एक ऐसा व्यक्ति जो शिक्षा और अकादमिक प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ा और सरकार में विद्वत्तापूर्ण विशेषज्ञता लेकर आया.
फिर भी यूपीए 2 के प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में सिंह पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे. हालांकि, आज, एक दशक बाद, उनमें से कई आरोप प्रोपेगेंडा और कम तथ्य के रूप में सामने आए हैं. उदाहरण के लिए 2जी स्पेक्ट्रम मूल्य निर्धारण में 1.76 लाख करोड़ के “काल्पनिक नुकसान” पर सीएजी (CAG) की पूर्व रिपोर्ट एक ऐसा आंकड़ा था जिसे पूर्व आरबीआई गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव सहित कई लोगों ने चुनौती दी थी, लेकिन एक हाई-वोल्टेज मीडिया अभियान और 2011 के इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) आंदोलन के साथ, वही मध्यम वर्ग जो उन्हें पसंद करता था, मनमोहन सिंह के खिलाफ विद्रोह कर उठा. सिंह के साथ मिडिल-क्लास के रिश्तों में एका-एक खटास आने लगी. निराश मध्यम वर्ग नए नायकों की तलाश में था.
आईएसी आंदोलन, जिसमें कथित तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपने संसाधनों का इस्तेमाल किया और आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर जैसे लोगों ने भूमिका निभाई, ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी (AAP) के गठन की नींव रखी. आईएसी आंदोलन ने नरेंद्र मोदी के उदय के लिए एक मंच भी तैयार किया, जिससे उन्हें तथाकथित “बाहरी” के रूप में सत्ता के लिए विजयी बोली लगाने में सक्षम बनाया गया, जो घोटाले से ग्रस्त यूपीए 2 को खत्म कर देगा.
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सुधारवादी बनाम बयानबाजी के उस्ताद
आज, इस बात पर बहुत सारी टिप्पणियां हो रही हैं कि कैसे (हिंदू) मध्यम वर्ग मोदी की ओर निर्णायक रूप से झुका है, जो ज़ाहिर तौर पर उनके “मजबूत” नेतृत्व और उग्र हिंदुत्व पहचान से मंत्रमुग्ध है.
लेकिन मनमोहन सिंह की सुधारवादी, मध्यम वर्ग समर्थक नीतियों के विपरीत, मोदी ने मध्यम वर्ग के लिए लगभग कुछ भी नहीं किया है. इसके बजाय, उन्होंने मध्यम वर्ग को हल्के में लिया है, इस विश्वास में कि उनकी हिंदुत्व नायक की छवि उनकी वफादारी बनाए रखेगी. मोदी मिडिल-क्लास के प्रति उदारता नहीं दिखाते हैं, बल्कि गरीब वर्गों पर ध्यान केंद्रित करते हैं क्योंकि उन्हें उनके वोट चाहिए. मोदी “आकांक्षा” की बात करते हैं, लेकिन उनके शासन में भारत के लगभग आधे शिक्षित युवा बेरोज़गार हैं और भारत के लाखों लोग भारतीय नागरिकता छोड़ रहे हैं. अकेले 2022 में, 2,25,000 लोगों ने अपनी भारतीय नागरिकता त्याग दी; भारत में 2024 में 4,300 उच्च निवल संपत्ति वाले व्यक्तियों के खोने की उम्मीद थी.
क्योंकि मोदी को लगता है कि उनकी मुस्लिम विरोधी हिंदुत्व पहचान मध्यम वर्ग को अपने पक्ष में रखने के लिए कापी है, इसलिए उन्होंने कभी भी मध्यम वर्ग के पक्ष में नीतियों की परवाह नहीं की.
इसके विपरीत, सिंह ने सुधारों, समृद्धि और वैश्विक खुलेपन को आगे बढ़ाकर वास्तव में मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं को संबोधित किया. मोदी ने अपनी “स्व-निर्मित” साख को उजागर करने के लिए अपनी “चायवाला” पहचान को पेश किया, लेकिन मनमोहन सिंह ने कभी भी अपनी लाइफ स्टोरी की मार्केटिंग या प्रचार नहीं किया, लेकिन उनकी यात्रा मोदी की तुलना में कहीं अधिक उल्लेखनीय है.
अब पाकिस्तान में गाह गांव में एक सिख किसान परिवार में जन्मे, उनके परिवार ने विभाजन के जख्मों को झेला. युवा मनमोहन ने कड़ी मेहनत और विद्वता के माध्यम से अपना रास्ता बनाया, ऑक्सफोर्ड की डिग्री और पीएचडी की डिग्री हासिल की.
सिंह कोई आरएसएस द्वारा निर्मित भड़काऊ भाषण देने वाला या मुख्यधारा के मीडिया द्वारा निर्मित व्यक्तित्व पंथ नहीं थे. वे एक शिक्षाविद थे जिन्होंने अकेले मेहनत की और राजनीति में एक सराहनीय बदलाव किया. उन्होंने कभी परिवारवाद (वंशवादी राजनीति) में भाग नहीं लिया, कभी अपने परिवार को अपनी विरासत नहीं सौंपी और खुद भी राजनीतिक भाई-भतीजावाद के लाभार्थी नहीं रहे.
हालांकि, मोदी अपने समर्थन को बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक डॉग-व्हिस्टल, हिंदुत्व राष्ट्रवाद और हिंदू-खतरे-में-हैं के नारे पर भरोसा करते हैं. मनमोहन सिंह का धार्मिक विभाजन या मोदी-शैली की नफरत की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था. उन्होंने कभी भी अपनी सिख पहचान को अपने ऊपर नहीं रखा. अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के रूप में, सिंह इस बात पर स्पष्ट थे कि उदार लोकतंत्रों को अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, जैसा कि दुनिया भर में होता है.
मोदी के तथाकथित “मजबूत” फैसलों में से हर एक विनाशकारी रहा है — चाहे वह नोटबंदी हो, चार घंटे के नोटिस पर राष्ट्रीय लॉकडाउन हो, या सैन्य भर्ती के लिए अग्निवीर योजना हो. सिंह के कार्यकाल में प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर इतने लगातार लीक नहीं हुए और 270 मिलियन से अधिक लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया. यह मनमोहन सिंह के प्रति श्रद्धांजलि है कि मोदी ने आधार से लेकर मनरेगा तक उनके सभी प्रशासनिक नवाचारों की नकल की है.
कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को किया विफल
विडंबना यह है कि कांग्रेस मनमोहन सिंह को मध्यवर्गीय शुभंकर के रूप में स्वीकार करने और पेश करने में अजीब तरह से संकोची दिखी.
वास्तव में, पार्टी ने मध्यम वर्ग का साथ खो दिया क्योंकि वह सिंह और “मनमोहनइकोनॉमिक्स” को पूरी तरह से अपनाने में विफल रही. कांग्रेस उदार मुक्त बाज़ार अर्थशास्त्र के बारे में लगभग क्षमाप्रार्थी लग रही थी और सिंह द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए मूल्यों के लिए कभी नहीं लड़ी. आज, पार्टी उनके लिए प्रशंसा गीत गा रही है, लेकिन तथ्य यह है कि अगर कांग्रेस ने सिंह के मूल्यों को अपनाया होता, तो शहरी शिक्षित मध्यम वर्ग ने पिछले दशक में पार्टी को नहीं छोड़ा होता.
कांग्रेस ने सिंह की विरासत या नीतियों के लिए लड़ाई नहीं लड़ी. अपने कार्यकाल के अंत तक, यूपीए “घोटालों” से इतना कमज़ोर और जख्मी हो गया था कि वह मनमोहन सिंह को अपने सुधार-उन्मुख अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री के रूप में पेश करने में विफल रहा, जो भारत को व्यापक समृद्धि की ओर ले जा रहे थे. उन्होंने उन्हें मोदी के स्पष्ट विकल्प के रूप में प्रस्तुत नहीं किया. मनमोहन सिंह की उपलब्धियों की सराहना करने के लिए अनिच्छुक, कांग्रेस ने नेतृत्व शून्यता पैदा की. इस खालीपन ने मोदी को नेतृत्व का स्थान लेने और तथाकथित शक्तिशाली “नायक” के रूप में पेश होने का अवसर दिया.
तो, मध्यवर्ग का असली नायक कौन है?
सच तो यह है कि मोदी के कार्यकाल में रुपया डॉलर के मुकाबले 85.82 के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गया है और अब भारतीय अवैध प्रवासियों के मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका में तीसरे सबसे बड़े समूह का हिस्सा बन गए हैं. मोदी के कार्यकाल में आय असमानता इस हद तक बढ़ गई है कि शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों के पास भारत की राष्ट्रीय संपत्ति का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है. मनमोहन सिंह ने उस जगह सफलता हासिल की, जहां मोदी अधिक समृद्ध मध्यवर्ग का निर्माण करने में बुरी तरह विफल रहे.
हमारे समय की भावना व्यापक समृद्धि और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के लिए आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदानकर्ता के रूप में है. मनरेगा जैसे कल्याणकारी उपायों को लागू करते हुए धन सृजन पर जोर देकर, सिंह ने भविष्यवाणी की कि आर्थिक विकास तभी टिकाऊ हो सकता है, जब गरीबों को कमाने का अधिकार दिया जाए.
एक तरफ मोदी का क्रोनी कैपिटलिज्म का मॉडल और दूसरी तरफ गरीबों के लिए रियायतें और राशन, साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए लगातार घटते आवंटन ने उन्हें एक लोकलुभावन तानाशाह के रूप में उजागर किया है. एक ऐसे नेता के रूप में जो सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार है, अपनी पार्टी के खजाने को अमीरों से भरता है और गरीबों को मुफ्त में सम्मोहित रखता है.
मनमोहन सिंह इसके बिल्कुल विपरीत थे. भोजन का अधिकार, मनरेगा और आधार जैसी नीतियों ने लाखों लोगों के लिए एक विशाल राष्ट्रव्यापी सीढ़ी बनाई जिसे पकड़कर वह उच्च आय की ओर बढ़ सकते हैं.
वोट जीतने की मजबूरी में मोदी ने मध्यम वर्ग की उपेक्षा की है, चाहे वह उनके लिए कितना भी प्यारा क्यों न हो. इसके विपरीत, मनमोहन सिंह ने राजनीति और सुधारवादी अर्थशास्त्र के अपने सेवा-उन्मुख दृष्टिकोण के साथ मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं का जवाब दिया. सच तो यह है कि भारत के असली मध्यम वर्ग के नायक मोदी नहीं, बल्कि मनमोहन सिंह हैं.
(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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