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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतबंगाल में ममता बनर्जी की दुविधा-हिंदुओं को पूजा की अनुमति दें या Covid को काबू करें, आत्मसंतुष्ट भाजपा की हालात पर नजर

बंगाल में ममता बनर्जी की दुविधा-हिंदुओं को पूजा की अनुमति दें या Covid को काबू करें, आत्मसंतुष्ट भाजपा की हालात पर नजर

कोरोनावायरस वास्तव में एक बड़ा खतरा है. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति में फंस गई हैं, जहां अगले साल चुनाव होने वाले हैं.

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ममता बनर्जी पिछले एक दशक में पहली बार दुविधा में फंसी नजर आ रही है. अगले साल चुनाव का सामना करने जा रहे पश्चिम बंगाल में तेजी से उभरती भारतीय जनता पार्टी ने तो फिलहाल आराम की मुद्रा अपना ली है, लेकिन मुख्यमंत्री के सामने बहुसंख्यक हिंदू मतदाताओं को दरकिनार करने या कोविड फैलने का जोखिम उठाने के बीच किसी एक को चुनने का संकट खड़ा हो गया है. उनका कोई भी फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की पार्टी के लिए उपयुक्त ही होगा. ममता के लिए यह हर हाल में ही कुछ गंवाने वाली स्थिति है.

ममता पूजा के मौसम में हिंदू बंगाली मतदाता की नाराजगी का जोखिम नहीं उठा सकती हैं, और इसके लिए उनके पास पूरे उत्साह से उत्सव मनाने और पंडाल की अनुमति देने को छोड़कर कोई खास विकल्प नहीं है. मोदी-शाह तो बस इसी इंतजार में बैठे हैं कि कब तृणमूल कांग्रेस प्रमुख के ‘अल्पसंख्यक तुष्टीकरण’ को लेकर आवाज उठा सकें. इससे उन्हें अपना विभाजनकारी अभियान और आगे बढ़ाने और अपने हिंदू वोट बैंक तक पहुंचने का मौका मिलेगा.

लेकिन कोरोना वायरस के मामलों में तेजी को देखते हुए त्योहारी मौसम में पहले की तरह सामान्य गतिविधियों की मंजूरी के भी अपने खतरे हैं. यह भी राज्य सरकार के प्रदर्शन पर प्रतिकूल असर डालेगा और भाजपा को ममता पर निशाना साधने और उनकी प्रशासनिक क्षमताओं पर सवाल उठाने का पूरा मौका दे देगा.

सीधे शब्दों में कहें तो ममता एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई वाली स्थिति में फंस गई हैं. लगातार दो बार से मुख्यमंत्री ममता, जिन्होंने 2011 में वाम मोर्चे को 34 साल बाद सत्ता से उखाड़ फेंकने का असंभव कार्य कर दिखाया था, अगले साल अपने राजनीतिक करियर के सबसे चुनौतीपूर्ण चुनावों में से एक का सामना कर रही होंगी. यह उनके लिए तलवार की धार पर चलने जैसा है.

ममता बनर्जी, जिन्होंने पहले कहा था कि कोविड के बीच पूजा के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर प्रतिबंध रहेगा, ने पिछले हफ्ते अपना विचार बदल लिया और कहा कि यदि सभी प्रोटोकॉल का पालन किया जाए तो कार्यक्रम आयोजित हो सकते हैं.

लेकिन, कोलकाता हाईकोर्ट के ताजा आदेश ने पूजा पंडालों में लोगों के प्रवेश पर पाबंदी लगाकर मुख्यमंत्री के लिए एक नई सिरदर्दी पैदा कर दी है.


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बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का सवाल

ममता बनर्जी के विरोधी अक्सर उन पर ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’ का आरोप लगाते रहे हैं, यही नहीं वह महत्वपूर्ण मुस्लिम जनाधार, करीब 30 फीसदी, पर भरोसा भी करती रही हैं. इमामों के लिए विवादास्पद वजीफे से लेकर हज हाउस के निर्माण और मुस्लिम बहुल स्कूलों में भोजन कक्ष बनाने का आदेश देने तक बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने मुस्लिम मतदाता की तरफ झुकाव रखने की लगातार कोशिश भी की है.

ध्रुवीकरण की राजनीति पर फलने-फूलने वाली और बहुसंख्यक एजेंडे पर सवार होकर आगे बढ़ने वाली भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल एक टेक्स्ट बुक केस है जिसने खुद को इस मॉडस ऑपरेंडी और एक आसान लक्ष्य दीदी के सहारे छोड़ रखा है. सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए भाजपा का पूरा खेल पूर्व में अपने नियंत्रण से बाहर रहे असम जैसे राज्यों की तरह हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करना और अपने प्रतिद्वंद्वियों को मतदाताओं की नजर में ‘हिंदू विरोधी’ साबित करना है.

ममता को हिंदू विरोधी के तौर पर चित्रित करना एक कार्ड है जिसे भाजपा ने लगातार खेला है, और 2021 के विधानसभा चुनाव तक ऐसा करना जारी भी रखेगी. पिछले महीने भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की एक टिप्पणी पर नजर डालें जिसमें जब उन्होंने दावा किया था कि ममता ‘हिंदू विरोधी मानसिकता’ से ग्रसित हैं.

ऐसी टिप्पणियों के अलावा भाजपा के नीतिगत फैसले भी बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक बहस को हवा देने के रास्ते खोलते रहते हैं. सबसे तेज ध्रुवीकरण नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) के मुद्दे पर नजर आया था, जिस पर ‘अवैध घुसपैठियों को बाहर कर देने’ के वादे के साथ अमित शाह ने कहा था कि सबसे पहले पश्चिम बंगाल में लाएंगे और फिर कहीं और. भाजपा ने एनआरसी और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को एक-दूसरे के साथ जोड़ रखा है, जिन्हें एक साथ मिलाकर देखें तो मुस्लिमों को बाहर करने के साथ सभी हिंदू ‘शरणार्थियों’ के हितों की सुरक्षा होती है. ममता एनआरसी-सीएए का लगातार विरोध करती रही हैं और इस बारे में खुले तौर पर केंद्र को भी बता चुकी हैं.

इसने मोदी-शाह के लिए ममता को इस आधार पर निशाना बनाना और आसान कर दिया कि वह हिंदुओं की कीमत पर मुसलमानों की रक्षा करनी चाहती है और भाजपा बहुसंख्यक समुदाय के लिए एक रक्षक की तरह है.

अब, जबकि बंगाल के लोग अपना सबसे बड़ा त्योहार मनाने जा रहे हैं, ममता के पास हिंदू मतदाताओं के लिए पर्याप्त कदम उठाते नजर आने के सिवाय ज्यादा कोई विकल्प नहीं हैं. मुख्यमंत्री ने पूजा समितियों को 50-50 हजार रुपये की मदद देने के अलावा बिजली बिल में 50 फीसदी छूट की घोषणा भी की है. बहरहाल, भाजपा के पास ममता के कदमों को उनके ही खिलाफ इस्तेमाल करने का पर्याप्त मौका है.


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वायरस का खतरा

कोरोनावायरस वास्तव में एक बड़ा खतरा है, और न केवल भारत बल्कि दुनियाभर के नेता अब तक इस बात को समझ चुके हैं. हर किसी की तरह ममता बनर्जी को भी महामारी की शुरुआत के समय धीमी प्रतिक्रिया को लेकर आलोचना के रूप में मीडिया के कड़े रुख का सामना करना पड़ चुका है.

केंद्र के साथ लगातार टकराव, आंकड़े छिपाने की कोशिश और मोदी सरकार की राजनीतिक साजिश जैसे अपरिपक्व बयान आदि जगजाहिर हैं.

अपने चारो ओर ‘सुशासन’ का आभामंडल कायम करने में सफल हो चुके नरेंद्र मोदी को तो इसी बात का इंतजार है कि कब ममता कोविड के मोर्चे पर नाकाम साबित हों. भाजपा ने पश्चिम बंगाल में खराब कानून-व्यवस्था की स्थिति को लेकर पहले ही हो-हल्ला शुरू कर दिया है, और राज्य में ‘’राष्ट्रपति शासन’ के संकेत भी दे रही है जो मतदाताओं तक यह संदेश पहुंचाने के लिए काफी है कि बंगाल में मामलों पर ममता की मजबूत पकड़ नहीं रह गई है.

अगर त्योहार बाद कोविड के आंकड़ों में तेजी आई तो ममता के लिए यह स्पष्ट कर पाना मुश्किल होगा कि वह राज्य, जहां शनिवार को 3,865 केस के साथ एक दिन में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई, में वायरस का प्रसार रोकने में नाकाम क्यों रहीं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह मतदाताओं पर ही आघात करता है, भाजपा ने तो एक बाज की तरह नजरें टिका रखी हैं और इस मोर्चे पर ममता की ओर से जरा भी चूक का संकेत उनके कट्टर प्रतिद्वंद्वी को हमलावर होने का पूरा मौका दे देगा.

दस साल तक सत्ता में रहने के बाद ममता बनर्जी के खिलाफ सत्ता विरोधी भावना भी हावी होने जा रही है. और इसमें ‘कोविड प्रबंधन में नाकामी’ और विभाजनकारी हिंदुत्व की राजनीति का तड़का लग जाने पर तो भाजपा अपनी जीत के लिए अच्छी संभावनाएं बना सकती है.

2011 का विधानसभा चुनाव वाममोर्चे के मजबूत गढ़ को ध्वस्त करने के लिहाज से ममता के लिए बड़ी चुनौती था. पर 34 साल पुराने वाम शासन के बीच ताजा हवा के झोंके की तरह होना ममता बनर्जी के लिए एक सुअवसर था. ममता उस शासन व्यवस्था के खिलाफ ‘पोरिबर्तन’ का वादा कर रही थी जो आखिरी समय तक आते-आते जमीनी स्तर पर अराजकता, भ्रष्टाचार, विकास की कमी और सिंगुर और नंदीग्राम विरोध जैसी घटनाओं से प्रभावित हो चुका था और जिस पर समय के साथ नियंत्रण करना मुश्किल हो गया था.

हालांकि, अब उसी ‘पोरिबर्तन’ के विचार को हराने के लिहाज से 2021 का चुनाव उनके लिए कहीं अधिक बड़ी चुनौती बन गया है, क्योंकि यह भाजपा का नारा बन चुका है. उन्हें ऐसी पार्टी के साथ मुकाबला करना है जो आज वैसे ही सुअवसर की स्थिति में है जैसा उन्हें एक दशक पहले मिला था. लेकिन सबसे पहले उन्हें बंगाली हिंदू मतदाता को लुभाने और कोविड पर नियंत्रण रखने के दो विकल्पों के बीच सफलतापूर्वक तालमेल बनाना होगा जो ऐसा मुद्दा है जिसका नरेंद्र मोदी और अमित शाह शायद चुपचाप बैठकर आनंद ले रहे हैं.

(व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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