पश्चिम बंगाल विधानसभा ने पिछले सोमवार को केंद्रीय जांच एजेंसियों के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित करके कहा कि वे तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के नेताओं को ‘चुन कर निशाना बना रही हैं’ और ‘भय का माहौल पैदा कर रही हैं’.
लेकिन इसने टीएमसी के नेताओं और मंत्रियों का हौसला बढ़ाने का काम नहीं किया. खुद जेल जाने और अपने परिवार के मुसीबत में पड़ने की दहशत उन्हें परेशान कर रही है. प्रस्ताव पारित होने के अगले दिन विधान भवन के परिसर में एक मंत्री, जिनके खिलाफ एक केंद्रीय जांच एजेंसी भ्रष्टाचार के मामले की जांच कर रही है, कुछ लोगों से बातें कर रहे थे. किसी ने उनसे पूछा कि क्या कोलकाता की अलीपुर सेंट्रल जेल को संग्रहालय में बदलने की कोई योजना है?
अगले दिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक संग्रहालय का उद्घाटन करने जा रही थीं. मंत्री ने सवाल करने वाले का खंडन करते हुए कुछ मज़ाक से और कुछ गंभीरता से कहा कि ‘अलीपुर जेल मेरे घर के पास है. अगर सीबीआई मुझे गिरफ्तार करती है तो मेरी पत्नी को मुझसे मुलाक़ात करना आसान रहेगा.’
मंत्री महोदय के बारे में तो कोई यह नहीं कह सकता कि वे भ्रष्टाचार में शामिल हैं या नहीं, मगर अपनी गिरफ्तारी को लेकर उनकी आशंका केंद्रीय जांच एजेंसियों के रेकॉर्ड के मद्देनजर बेबुनियाद नहीं है. बंगाल के राजनीतिक हलक़ों में इन दिनों ईडी, सीबीआई, और आईटी जैसे शब्द खूब सुने जा रहे हैं. ये एजेंसियां राज्य में बेहद सक्रिय हैं क्योंकि इस राज्य पर भाजपा के बड़े दांव लगे हैं.
एजेंसियों के दुरुपयोग के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ममता बनर्जी की ‘क्लीन चिट’ ने काफी उत्सुकता जगा दी है. ममता ने पिछले सप्ताह विधानसभा में कहा कि ईडी और सीबीआई के दुरुपयोग और डर के मारे व्यवसायी लोग देश छोड़ रहे हैं, ‘मेरा मानना है कि मोदी ने यह सब नहीं किया है. आपमें से कई लोगों को नहीं मालूम होगा कि सीबीआई पीएमओ को रिपोर्ट नहीं देती है. वह गृहमंत्री को रिपोर्ट देती है. कुछ भाजपा नेता साजिश कर रहे हैं…’
लेकिन तथ्य यह है कि सीबीआई अभी भी प्रधानमंत्री को रिपोर्ट देती है. वह कार्मिक, सार्वजनिक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के अधीन है, जो प्रधानमंत्री के पास है. ममता गृहमंत्री अमित शाह पर कटाक्ष कर रही थीं. इस महीने के शुरू में, उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी ने कथित कोयला घोटाले के मामले में 6 घंटे की पूछताछ के बाद ईडी के दफ्तर से बाहर निकलने पर कहा था कि ‘चूंकि मैंने राष्ट्रीय झंडे के मसले पर अमित शाह के बेटे पर हमला किया था, सिर्फ इसलिए मुझे ईडी और सीबीआई के जरिए धमकाया नहीं जा सकता.’
ईडी राजस्व, विभाग, वित्त मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में है, जिसे निर्मला सीतारमण संभालती हैं. कोई नहीं कहता कि कार्म्मिक मंत्रालय के प्रभारी राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह सीबीआई को चलाते हैं या निर्मला सीतारमण ईडी को चलाती हैं. तकनीकी पहलू अलग है. इस बात पर भी बहस करना बेकार है कि सरकार में अमित शाह का फरमान चलता है. लेकिन यह कहना गलत होगा केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी की मंजूरी के बिना कोई कुछ कर सकता है.
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ममता वह जानती हैं, जो मोदी के आलोचक नहीं जानते
सवाल है कि ममता ने मोदी को क्लीन-चिट क्यों दी? बंगाल के नेता और जानकार लोग इसकी दो वजहें बताते हैं. पहली यह कि ममता, उनका परिवार और उनकी पार्टी के उनके साथी ईडी और सीबीआई के इतने दबाव में हैं कि ममता प्रधानमंत्री से सुलह करना चाहती हैं. लेकिन ममता के पांच दशकों के राजनीतिक जीवन पर नज़र डालने पर यह व्याख्या पचती नहीं है. वे उग्र जुझारू नेता रही हैं.
1980 और 1990 के दशकों में उन्होंने वाम मोर्चा सरकार से पश्चिम बंगाल की सड़कों पर लड़ाई लड़ी और पुलिस से लेकर कॉमरेड तक सब से लोहा लिया, बराबर घायल होती रहीं. एक बार तो सिर पर चोट खाने के बाद हफ्तों तक अस्पताल में रहीं. 1993 में, उन्होंने केंद्रीय खेल मंत्री के पद से इस्तीफा देने की सार्वजनिक चेतावनी तक दे डाली थी, क्योंकि नरसिंह राव की सरकार ने भारत में खेलों में सुधार लाने के उनके विचारों पर ध्यान नहीं दिया था. इसके तीन साल बाद, उन्होंने ख़ुदकुशी करने की धमकी दी थी क्योंकि कांग्रेस ने चुनाव में चार दागी उम्मीदवारों को खड़ा किया था. 2004 से 2009 के बीच वे लोकसभा में टीएमसी की एकमात्र सांसद थीं.
जब भी वे सदन में बहस में भाग लेने के लिए खड़ी होती थीं, वाम खेमा उनकी हूटिंग करता था. ऐसे में दूसरा कोई नेता होता तो हताश हो जाता. इसलिए, यह कहना उतनी ही नादानी होगी कि ममता केंद्रीय एजेंसियों से डर गई हैं और मोदी से सुलह चाहती हैं, जितना यह कहना कि अमित शाह मोदी की सहमति के बिना कुछ करते हैं.
इस तरह की व्याख्या यह भी मान कर चलती है कि मोदी और ममता ऐसे सीधे-सादे नेता हैं कि एक ने दूसरे की तारीफ में कुछ कहा नहीं कि दूसरा पिघल गया.
मोदी को ममता की क्लीन चिट की दूसरी व्याख्या करते हुए कई लोग यह कहते हैं कि ममता मोदी और शाह के बीच खाई पैदा करने की कोशिश कर रही हैं. यह भी ममता को राजनीति का नौसिखुआ मानने के बराबर है. बेशक वे ऐसी नहीं हैं.
एक समय तक जब विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति नरम दिखते थे और लालकृष्ण आडवाणी को निशाना बना रहे थे. ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि इन दोनों भाजपा नेताओं के बीच मतभेद सामने आ गए थे और उनके राजनीतिक विरोधियों को फायदा उठाने मौका मिल गया था. इसके अलावा, वाजपेयी की छवि जबकि एक दिग्गज राजनेता की बन गई थी, विपक्ष को हिंदुत्ववादी आडवाणी एक आसान निशाना नज़र आने लगे थे.
विडंबना यह है कि आज मोदी ने अपने संरक्षक आडवाणी को जब दरकिनार करके राजनीति से लगभग संन्यास दिलाते हुए ‘मार्गदर्शक मण्डल’ में बैठा दिया है तब विपक्षी खेमा उनके लिए हमदर्दी जता रहा है.
ममता अच्छी तरह जानती हैं कि मोदी और शाह के बीच खाईं पैदा करना बेकार की कवायद होगी. भविष्य में कभी ऐसा हुआ भी तो वह किसी विपक्षी नेता के किए नहीं होगा.
जो भी हो, मोदी के लिए ममता की क्लीन चिट को उनकी राजनीतिक रणनीति में बदलाव का संकेत मान जा सकता है. राहुल गांधी अभी भी मान रहे हों कि राजनीति विचारधाराओं की लड़ाई है, इसलिए ‘चौकीदार चोर है’ के नारे को अपना युद्धघोष बनाए रखना चाहिए, भले ही वह चुनावों में नुकसान क्यों न पहुंचा रहा हों. लेकिन जो नेता चुनावी जीत पर ज़ोर देते हैं वे अपनी रणनीति दुरुस्त करने में जुट गए हैं. मोदी की निंदा करने या उन पर व्यक्तिगत हमला करने से कोई चुनावी फायदा नहीं होता नहीं दिख रहा है. उनका व्यक्तित्व इतना बुलंद है कि उसे फब्तियों और अपुष्ट से आरोपों से चोट नहीं पहुंचाई जा सकती.
मोदी ने नामीबिया से लंबी यात्रा करके आए ‘मेहमानों’ यानी चीतों के सम्मान में लोगों से ‘खड़े होकर ताली बजाने’ के लिए कहा तो उन्होंने खुशी से उनके निर्देश पर अमल किया. मोदी ने कोरोना से लड़ाई में लोगों से अपने घरों की बत्तियां बुझाने, ताली बजाने, बर्तन बजाने को कहा, सबने वैसा ही किया. नोटबंदी के बाद मोदी ने लोगों से कहा कि वे उन्हें 50 दिन दें और उसके बाद उन्हें कोई कमी नज़र आए तो वे कोई भी सजा भुगतने को तैयार हैं. नोटबंदी अपने मकसद में नाकाम रही लेकिन मोदी में मतदाताओं का भरोसा नहीं टूटा.
मोदी के मामले में विपक्ष की बदलती रणनीति
राहुल को छोड़ अधिकतर विपक्षी नेताओं ने इस सच को कबूल कर लिया है कि मोदी पर हमले करने से वोट नहीं मिलने वाले. इसलिए सबने अपना रुख बदल लिया है. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा से कड़ी टक्कर महसूस हुई होगी मगर चुनाव प्रचार में उन्होंने अपने सरकार के कामकाज पर ही ज़ोर दिया. विधानसभा चुनाव में उन्होंने अच्छी जीत हासिल की और लोकसभा चुनाव में भी मोदी की भाजपा के उभार को थामा. ओडिशा में भाजपा को लोकसभा की कुल 21 सीटों में केवल 8 सीटें ही मिलीं लेकिन पटनायक की बीजद की बुरी हालत हो सकती थी. पिछले तीन साल से भाजपा ओडिशा में अपनी जमीन गंवा रही थी जबकि पटनायक मोदी पर हमला करने से बचते रहे.
तमिलनाडु के एम.के. स्टालिन ने भी सीमारेखा तय कर ली है. वे केंद्र सरकार पर तो हमले करते हैं मगर मोदी पर नहीं. आंध्र प्रदेश के वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी अपनी सरकार की जनकल्याण योजनाओं पीआर पर ही फोकस करते हैं. यह रणनीति लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टियों—द्रमुक और वाईएसआरपी—के लिए कारगर साबित हुई हैं. कहा जा सकता है कि मोदी का जादू दक्षिण भारत में बहुत नहीं चलता. यह सच हो सकता है लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि उस हिस्से में भी मोदी के प्रति आकर्षण है और वहां रेड्डी और स्टालिन ने अपने राज्यों के लिए अपने सपनों को प्रचारित करके बेहतर नतीजे हासिल किए हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मोदी पर जोरदार हमला किया था, उन्हें 12वीं पास कहा था, राफेल विमानों की खरीद में घोटाले के आरोप उछाले थे. भाजपा ने जब दिल्ली की सभी सीटें जीत ली तब ‘आप’ के नेता ने अपनी चाल बदल दी और प्रधानमंत्री पर सीधा हमल करने से बचने लगे और अपनी सरकार की उपलब्धियों को प्रचारित करने में जुट गए. यह 2020 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में ‘आप’ के लिए काम कर गया. अब फिर से अगर केजरीवाल मोदी पर हमले करने लगे हैं तो उसकी वजह यह है कि उनका मुख्य निशाना कांग्रेस है.
उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी के मुख्य प्रतिद्वंदी के रूप में उभरना है ताकि 2029 के चुनाव में जब मोदी खुद किनारे बैठ रहे होंगे और मतदाता विकल्प की तलाश में होंगे तब वे अपनी दावेदारी मजबूत कर सकें.
केजरीवाल की तरह ममता भी 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी के खिलाफ आक्रामक हो उठी थीं, और उनकी सीटों की संख्या 34 से घटकर 22 हो गई जबकि भाजपा 2 से 18 सीटों पर पहुंच गई. 2021 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी ने अपने रणनीति बदली, मोदी नहीं बल्कि ममता पर फोकस किया. वास्तव में, मोदी ने ममता पर निजी हमले करने की गलती की. टीएमसी ने जोरदार बहुमत हासिल किया, लेकिन ममता को मालूम है कि भाजपा ने भी कोई बुरा प्रदर्शन नहीं किया, उसने 38 फीसदी वोट बटोरे.
बंगाल के चुनाव के बाद जब टीकाकारों ने ममता को राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के संभावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश करना शुरू किया तो ममता ने मोदी की आलोचना शुरू कर दी. गोवा में ममता की पार्टी की नाकामी ने उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं पर पानी डाल दिया. पंजाब में ‘आप’ की जीत और गुजरात में उसके उभार के साथ भी ऐसा होता दिख रहा है. इसने ममता को अगले लोकसभा चुनाव से 20 महीने पहले अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया है. लगता है, उन्हें समझ में आ गया है कि मोदी पर हमले करने से उन्हें ज्यादा वोट नहीं मिलने वाले हैं. मोदी का व्यक्तित्व पार्टी और विचारधारा की सीमाओं को लांघ चुका है. जरूरी नहीं कि मोदी के सारे वोटर भाजपा और आरएसएस के वफादार हों.
मोदी का हरेक समर्थक हिंदुत्ववादी नहीं है. इसलिए, मोदी के उन वोटरों के साथ संवाद खुला रखना ही राजनीतिक समझदारी है, जो राजनीतिक या सैद्धांतिक रूप से भाजपा के प्रति निष्ठावान नहीं हैं. ममता ने यह भी कहा है कि आरएसएस में हर कोई खराब ही नहीं है, और यह कि आरएसएस की शाखाओं में जाने वाला हर कोई जरूरी नहीं कि भाजपा का ही वोटर हो. उनके इस बयान को भी मोदी को क्लीन चिट देने वाले के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए.
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(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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