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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतअब जब पश्चिम बंगाल के चुनाव नजदीक हैं तब ममता की कोविड राजनीति मोदी को पहुंचा रही है फायदा

अब जब पश्चिम बंगाल के चुनाव नजदीक हैं तब ममता की कोविड राजनीति मोदी को पहुंचा रही है फायदा

कोविड संकट से निपटने के ममता बनर्जी के तरीके ने उनकी स्थिति को कमज़ोर किया है. उन्होंने अपने व्यक्तित्व पर एक आवेगी और चुनाव-प्रेरित नेता की छवि को हावी होने दिया है.

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ममता बनर्जी का ये जांचा-परखा तरीका है- जब भी कोई दुविधा हो, नरेंद्र मोदी की भाजपा पर आरोप लगाओ. इसलिए जब कोरोनावायरस महामारी से उनका सामना हुआ, उन्होंने ऐसा ही किया. लेकिन इस प्रक्रिया में उनके राजनीतिक खेल की ऐसे समय पोल खुल रही है, जो इसके लिए सही वक्त नहीं है– पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में साल भर का समय भी नहीं रह गया है.

कोविड-19 संकट ने देश भर के मुख्यमंत्रियों की नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमताओं को उजागर करने का काम किया है, और कइयों ने बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए बहुत सधे ढंग से महामारी की चुनौतियों का सामना किया है. लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपवाद रही हैं– आक्रामक, शासन पर कमज़ोर पकड़, आवश्यक कुशलता का अभाव और हमेशा की तरह अस्थिर.

2021 के लिए अवसर के रूप में कोविड-19

ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी के लिए अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव शेष सारी चीज़ों पर हावी है और वह सुदृढ़ शासन के ऊपर तीखी राजनीति को प्राथमिकता दे रही हैं. कोविड-19 संकट के दौरान ममता बनर्जी और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के बीच निरंतर खींचतान चलती रही है. डेटा छुपाने की कोशिश, अनावश्यक हंगामा और बयानबाज़ी– इन सबका एक ही मतलब है कि उनका ध्यान राज्य में 2021 होने वाले चुनाव पर केंद्रित है.

राजस्थान में अशोक गहलोत, केरल में पिनराई विजयन, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, पंजाब में अमरिंदर सिंह और ओडिशा में नवीन पटनायक जैसे मुख्यमंत्रियों तथा असम की भाजपा सरकार में स्वास्थ्य मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने मौजूदा संकट का सामना करने की प्रबल क्षमता का प्रदर्शन किया है, वहीं ममता बनर्जी काफी पीछे छूट गई दिखती हैं. यदि उनके प्रदर्शन की तुलना उन्हीं की तरह ज़मीनी स्तर की राजनीति करने और केंद्र के साथ खींचतान करने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से करें, तो एक भारी अंतर दिखेगा क्योंकि केजरीवाल संकट का सामना खासे सधे अंदाज़ में और प्रभावी ढंग से कर रहे हैं.


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कुछ अन्य मुख्यमंत्रियों– खास कर भाजपा के मुख्यमंत्रियों, मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान और उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ– ने भी संकट से निपटने के अपने तरीकों से बहुत निराश किया है. लेकिन फिर भी, ममता बनर्जी जैसा अस्थिर और लड़ाकू कोई भी नज़र नहीं आया.

कोरोना की राजनीति

ममता बनर्जी के लिए कोविड-19 महामारी भी अन्य राजनीतिक साधनों के समान ही है. उनकी नज़र अगले साल के चुनाव पर है और ऐसे में किसी भी राजनीतिक नेता की प्रवृति इस तरह काम करने की होगी कि जिससे उसे दोबारा सत्ता हासिल करने में मदद मिले, खास कर जब 2019 के लोकसभा चुनावों में राज्य में भाजपा ने बहुत ही बढ़िया प्रदर्शन किया हो और नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नज़र ममता के गढ़ पर टिकी हो.

लेकिन हाल के दिनों में ममता बनर्जी की प्रवृति केंद्र से सीधे टकराव और स्वास्थ्य संकट के लिए मोदी सरकार को दोषी ठहराने की रही है. मार्च में, जब कोरोनावायरस का प्रसार अपने आरंभिक दौर में ही था, तो ममता ने केंद्र की भाजपा सरकार पर आरोप लगाया था कि वह वायरस को लेकर इसलिए घबराहट फैला रही है ताकि दिल्ली सांप्रदायिक दंगों से ध्यान बंटाया जा सके.

किसी राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा महज राजनीतिक फायदे के लिए एक गंभीर स्वास्थ्य आपदा की गंभीरता को कम करके बताने को गैर-ज़िम्मेदार और बचकाना व्यवहार ही कहा जाएगा.

ये तो बस शुरुआत थी, क्योंकि उसके बाद से ममता लगातार मोदी सरकार से तकरार में लगी हुई है. उन्होंने पश्चिम बंगाल में कम संख्या में होने वाली टेस्टिंग और अधूरे परिणामों के लिए केंद्र द्वारा त्रुटिपूर्ण टेस्ट किटों की आपूर्ति को दोष दिया. ममता ने केंद्र पर लॉकडाउन और एयरपोर्टों को बंद करने के कदम में देरी का भी आरोप लगाया.

मोदी का ममता के प्रति व्यवहार

बेशक, मोदी सरकार ने भी राजनीति करने में कसर नहीं रखी है. केंद्र ने लगातार पत्र भेजकर संकट से ठीक से नहीं निपटने के लिए ममता बनर्जी सरकार की खिंचाई की और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने स्थिति के आकलन के लिए राज्य में सात जगहों पर दो अंतर मंत्रालयीय केंद्रीय दलों को भेजने की घोषणा की.

पर अकेली ममता ही मोदी से राजनीतिक बैर नहीं रखती हैं. खास तौर पर अरविंद केजरीवाल का केंद्र के साथ अप्रिय और तनावपूर्ण संबंध रहा है. फिर, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल जैसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री भी हैं. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि संकट से निपटने के लिए केंद्र के साथ मिलकर और ‘सहकारी संघवाद’ की भावना से काम करने में उन्हें कोई परेशानी है. मोदी इस भावना की हमेशा चर्चा करते हैं, हालांकि इस पर अमल होता नहीं दिखता है.

ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस ने हमेशा राजनीतिक बयानबाज़ी को हवा दी है. साथ ही, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ से भी उनकी निरंतर तकरार चलती रही है.

सच कहें तो ममता बनर्जी के इस रवैये में नया कुछ भी नहीं है. उनकी राजनीति ऐसी ही रही है: टकरावपूर्ण, शोर भरी, बग़ावती और साहसिक. इन गुणों के प्रभावों से भी इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह इनके सहारे ही पश्चिम बंगाल में तीन दशकों से भी अधिक समय से काबिज वामपंथी सरकार को अकेले अपने दम पर उखाड़ फेंकने में सफल हुई थीं. मोदी की शब्दों की बाजीगरी और लोकप्रियता के समक्ष भी ममता अपनी पकड़ बनाए रख सकती हैं. उनकी अपनी एक विशिष्ट शैली है, जिसमें किसी तरह के बंधनों के लिए जगह नहीं होती. वह एक तनावपूर्ण चुनाव अभियान के दौरान ये तक कह सकती हैं कि वह प्रधानमंत्री को ‘लोकतंत्र का थप्पड़’ लगाना चाहती हैं.


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लेकिन यही गुण किसी राजनेता का दुश्मन भी साबित हो सकते हैं, जब वह एक अभूतपूर्व संकट के बीच एक प्रशासक के रूप में सबके सामने हो.

महामारी का सामना

महामारी से निपटने का ममता का तरीका, इससे संबंधित राजनीति के अलावा, एक बहुत बड़ा मुद्दा रहा है. उनकी सरकार पर जानबूझ कर मामलों की संख्या कम बताने, संकट की गंभीरता को कम करके दिखाने और जनस्वास्थ्य स्थिति के पूरी तरह टीएमसी सरकार के नियंत्रण में होने का झांसा देने के आरोप हैं. राज्य सरकार ने अपने दैनिक स्वास्थ्य बुलेटिन का प्रकाशन पहली अप्रैल के बाद बंद कर दिया था, जिसमें तमाम तथ्यों की अद्यतन जानकारी शामिल रहती थी. विपक्ष ने इसका ज़ोरदार विरोध किया. बाद में बुलेटिन का प्रकाशन दोबारा आरंभ तो किया गया लेकिन बदले स्वरूप में और पहले के मुकाबले कम सूचनाओं के साथ.

वैसे सरकार के आंकड़ों के परस्पर बेमेल होने के भी उदाहरण हैं. जैसे, 3 अप्रैल को ममता ने पश्चिम बंगाल में कोविड-19 के सक्रिय मामलों की संख्या 38 बताई थी, जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर पुष्ट मामलों की संख्या 63 दी गई थी.

जैसा कि दिप्रिंट की एक रिपोर्ट में पिछले महीने बताया गया था, केंद्र सरकार के जांच शुरू करने के बाद चौबीस घंटे में ही राज्य में कोरोनावायरस से होने वाली मौत के आंकड़े चार गुना बढ़ गए थे.

पिछले दिनों ममता के ‘गैर-ज़िम्मेदार’ व्यवहार की भी झलक मिली जब महामारी के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए सड़कों पर उतरने के दौरान उन्होंने ना सिर्फ लॉकडाउन का उल्लंघन किया बल्कि सोशल डिस्टैंसिंग का भी अनुपालन नहीं किया.

अभी हाल में, शायद संकट से निपटने को लेकर अपने मतदाताओं की नाराजगी की सूचना पाने के बाद, ममता ने अपने रवैये में बदलाव का फैसला किया है.

ममता की कोविड रणनीति में भले ही बदलाव दिख रहा हो, लेकिन अब तक उनके व्यवहार में उनके स्तर की राजनेता से अपेक्षित परिपक्वता नहीं दिखी है, खास कर एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा के दौरान.


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यदि मोदी का मुकाबला करने की उनकी ऐसी ही योजना है, तो शायद वह सही रास्ते पर नहीं हैं. कोई भी मतदाता एक डरावनी महामारी के बीच राजनीतिक तमाशा पसंद नहीं करेगा. साथ ही, अपने व्यक्तित्व पर एक आक्रामक, आवेगी और चुनाव-प्रेरित नेता की छवि को हावी होने देकर उन्होंने मुख्यमंत्री की अपनी हैसियत के साथ न्याय नहीं किया है.

(व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. लेखक के मन में जहर भरा है उसका पक्षपाती रूप लेख में दिखता है, लेखक ना जाने क्यों योगी का नाम लेने से डरता है। लेकिन विश्लेषण पढ़कर अच्छा लगता है। लेखक लिखती तो ममता के बारे में है लेकिन आलोचना मोदी की कर बैठती है, यही इस लेख की विशेषता है।

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