एंटरप्राइज़ किसी भी प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का आधार होता है. यह नई खोज, रोज़गार और व्यापक आधार वाली आर्थिक वृद्धि लाता है. स्टार्ट-अप भावी उद्योगों का निर्माण करते हैं. वह समुदाय को गरीबी से बाहर निकाल सकते हैं.
140 करोड़ आबादी वाले भारत में उद्यमशीलता की बड़ी क्षमता है. देश की विशाल युवा आबादी में रोज़गार पैदा करने की जगह रोज़गार हासिल करने की चाहत में थोड़ी सी कमी क्रांतिकारी साबित हो सकती है.
प्रतिकूल व्यवस्था
भारत की नियमनकारी और नीति आधारित व्यवस्था उद्यमशीलता को दबा देती है. बेहिसाब दस्तावेज़ की मांग, नियमों में निरंतर बदलाव, और संदिग्ध वित्तीय व्यवस्थाएं और लीक पर चलने को प्रोत्साहन वगैरह मिलकर किसी व्यवसाय को शुरू करने और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश को जोखिम भरी बना देते हैं.
जरा सोचिए कि भारत में कोई बिजनेस शुरू करने के लिए कितने कदम उठाने पड़ते हैं. जीएसटी के लिए रजिस्ट्रेशन कराने से लेकर पर्यावरण संबंधी मंजूरी, ‘एफएसएसएआई’ की मंजूरी, स्थानीय पालिका से मंजूरी लेने के लिए कई तरह के फॉर्म भरने से लेकर समयसीमा का पालन करने तक तमाम प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है. जो एक सहज, एक खिड़की पर पूरी की जाने वाली डिजिटल प्रक्रिया होनी चाहिए उसमें प्रायः महीनों लग जाते हैं. वह रुकावटें पैदा करते हैं, पूंजी की बर्बादी करवाते हैं और संस्थापकों का मनोबल शुरू में ही कमज़ोर कर देते हैं. ये बाधाएं आकस्मिक नहीं हैं, पूरी संरचना में रची बसी हैं.
पूंजी की उपलब्धता एक अलग बड़ी दिक्कत है. तमाम जोखिम से परहेज़ करने वाले बैंक ‘सिबिल स्कोर जैसे पुराने पड़ चुके और अपारदर्शी क्रेडिट मॉडल का इस्तेमाल करते हैं, जो कर्ज़ लेने के मामले में अनुभवहीन युवा उद्यमियों को सज़ा भुगतने पर मजबूर करते हैं. जिन संस्थापकों के पास गिरवी रखने के लिए कुछ नहीं होता या जिनकी ऊंची पहुंच नहीं होती उनके लिए पारंपरिक किस्म की संस्थाओं से फंड हासिल करना असंभव ही होता है. ‘वेंचर’ पूंजी की व्यवस्था भी भेदभावपूर्ण ही है, जो शहरी, अंग्रेज़ी भाषी और शैक्षिक और पेशेगत पुराने संबंधों वाले नेटवर्क से जुड़े उद्यमियों की ही ज्यादा मदद करती है. इसलिए कई संभावनाशील योजनाएं शुरू में ही दम तोड़ देती हैं, उन्हें समान अवसर नहीं दिया जाता.
2014 में बड़े शोर-शराबे के साथ शुरू की गई ‘मेक इन इंडिया’ का लक्ष्य देश को मैनुफैक्चरिंग का ग्लोबल हब बनाना था. इसके तहत 2022 तक देश के औद्योगिक क्षेत्र में 1 करोड़ नौकरियां पैदा करने का और जीडीपी में मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र के योगदान में भारी वृद्धि करने का वादा किया गया था. शुरू में तो भारी जोश दिखा. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में तेज़ी भी आई, लेकिन इस शोर-शराबे के नीचे शासन के बिखराव, नीतिगत असंगति और अपर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर कायम रहे. महत्वाकांक्षा के साथ सुधार का मेल नहीं हुआ. ‘मेक इन इंडिया’ शानदार नारेबाजी और निराशाजनक उपलब्धि का मानक उदाहरण बनकर रह गया.
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स्टार्ट-अप की कब्र
भारत के कथित स्टार्ट-अप ‘बूम’ के जो आंकड़े हैं वह एक फीकी तस्वीर पेश करते हैं. पिछले दो साल में 28,000 से ज्यादा स्टार्ट-अप ने अपनी दुकान बंद कर दी — 2023 में 15,921 ने और 2024 में 12,717 ने. पिछले तीन साल में इनकी संख्या में 12 गुना वृद्धि हुई. नए स्टार्ट-अप का निर्माण लगभग बंद हो गया है, 2024 में केवल 5,264 की स्थापना हुई, जबकि 2019 से 2022 के बीच हर साल औसतन 9,600 स्टार्ट-अप रजिस्टर्ड किए गए थे. 2025 के शुरुआती महीनों में मात्र 125 स्टार्ट-अप रजिस्टर्ड किए गए हैं.
एग्रीटेक, फिनटेक, एडटेक, हेल्थटेक जैसे जिन उद्योगों को कभी क्रांतिकारी कहा गया था उनमें नाकाम स्टार्ट-अप की संख्या भरी पड़ी है. वह ऊंची विफलता दर, नियमन के बंधनों, ग्राहकों के टूटने और कम संस्थागत समर्थन के शिकार हुए.
वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने हाल में भारतीय स्टार्ट-अप कंपनियों की आलोचना की कि वह फूड डेलीवरी जैसे मामलों में ‘मामूली आविष्कारों’ में उलझी हुई हैं, लेकिन इस तरह की आलोचना इसलिए खोखली ही लगती है क्योंकि यही व्यवस्था अधिक आधुनिक टेक्नोलॉजी के लिए फंड उपलब्ध कराने या उसके लिए राह आसान करने से पीछे हट जाती है. भारत में अनुसंधान एवं विकास (आर एंड डी) पर फिलहाल जीडीपी के 0.64 प्रतिशत के बराबर खर्च किया जा रहा है जबकि इसका वैश्विक औसत 2.6 प्रतिशत है. अमेरिका और चीन इससे कहीं ज्यादा, क्रमशः 3.5 और 2.4 प्रतिशत खर्च करते हैं.
आर एंड डी पर इतना मामूली निवेश और उसे बढ़ावा देने की बेहद कम कोशिश के बूते हम ‘एआई’, रोबोटिक्स, या ऊर्जा के क्षेत्रों में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? यहां तक कि हमारे शिक्षा व्यवस्था भी प्रयोग की जगह रटने वाली पढ़ाई पर ही ज़ोर दे रही है. हमारे स्कूल छात्रों को दो-तीन घंटे वाली परीक्षाओं के लिए तैयार कर रहे हैं. वह उन्हें उपक्रम खड़ा करने या वास्तविक ज़मीनी समस्याओं का समाधान करना नहीं सिखाते.
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महत्वाकांक्षाओं को चोट
किसी कंपनी की मौत से ज्यादा दुखद होता है किसी उद्यम के सपने का मर जाना. भारत में विफलता को सीखने के अवसर के रूप में नहीं लिया जाता, उसे एक कलंक माना जाता है. बिजनेस की विफलता बेहद निजी होती है. ऐसे व्यक्ति मानसिक सदमे से निबटते हुए खुद को समाज से काट लेते हैं.
भारत में व्यवसाय का माहौल कितना दमघोंटू है इसका अंदाज़ा ‘कैफे कॉफी’ के संस्थापक वी.जी. सिद्धार्थ की दुखद मृत्यु से बेहतर किसी और उदाहरण से नहीं मिल सकता. एक अनुभवी उद्यमी सिद्धार्थ कर्ज़ के बढ़ते बोझ और टैक्स अधिकारियों द्वारा कथित रूप से परेशान किए जाने के कारण 2019 में चल बसे.
‘मर्लिन एआई’ के संस्थापक प्रत्यूष राय ने सही कहा कि “विफलता भारत में जितना आहत करती है उतना अमेरिका में नहीं करती. अमेरिका में विफलता एक पड़ाव है, भारत में यह अंधी गली है.”
ऐसी ही मुंबई की एक हेल्थटेक स्टार्ट-अप कंपनी ने अस्पतालों तक सुरक्षित रूप से खून पहुंचाने के लिए एआई आधारित सिस्टम तैयार किया था, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का था, लेकिन उसे नियमन संबंधी एक मामूली बाधा (शहर प्रशासन की ओर से एक लिफ्ट लगाने के लाइसेंस) के कारण बंद करना पड़ा. यह लाइसेंस हासिल करने में 18 महीने लग गए और इस बीच उसका फंड खत्म हो गया, साझीदारों ने किनारा कर लिया और कंपनी को बंद करना पड़ा.
उन उद्यमियों ने स्वास्थ्यसेवा के एक महत्वपूर्ण मसले को हल किया था, लेकिन संस्थागत सुस्ती के कारण उनकी दूरदर्शिता की हत्या हो गई.
सुधार या गिरावट?
भारत में बुद्धिमत्ता, महत्वाकांक्षा, या प्रतिभा की कमी नहीं है, लेकिन अगर हम एक आर्थिक बनने को लेकर गंभीर हैं तो हमें उद्यमशीलता के प्रति अपने रुख में आमूल परिवर्तन करना होगा.
इस वास्तविक बदलाव के लिए इसे कानूनी रूप देना होगा. नियमन की सभी संस्थाओं को अर्जियों के मामले में 15 दिन की समयसीमा के दायरे काम करना होगा. अगर वह ऐसा नहीं करते तो अर्जी को स्वतः मंजूर मान लिया जाएगा. इससे अनावश्यक देरी में कमी आएगी और ऐसी संस्कृति का निर्माण होगा जिसमें उद्यमशीलता किसी रुकावट के स्थायी डर से मुक्त होकर फल-फूल सकेगी.
हमें व्यवस्याओं या व्यक्तियों को नियमन के बोझ से मुक्ति देने के लिए उन्हें पुरस्कार और समर्थन की पेशकश करनी होगी. उदाहरण के लिए, जो लोग मानकों का पालन करते हैं उन्हें टैक्स में छूट दी जा सकती है या उनके लिए प्रक्रियाओं को आसान बनाया जा सकता है.
मानकों के पालन को सरल बनाएं. नियमन संबंधी अड़चनों को दुरुस्त करें. उधार देने में समानता बरती जाए और उस प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए. संस्थापकों को परेशान न किया जाए और सबसे ऊपर, ऐसी संस्कृति बनाई जाए जो उद्यम का सम्मान करती हो.
(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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