शनिवार की शाम तक, जब तक डोनाल्ड ट्रंप की कोशिशों से भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम की घोषणा नहीं हुई थी तब तक पूरे भारत का ध्यान ‘ऑपरेशन सिंदूर’, पाकिस्तान को सिंधु जल से वंचित करने और जातिगत जनगणना कराने के बेहद विवादास्पद फैसले पर ही टिका था. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाले एनडीए मंत्रिमंडल ने पहलगाम हमले के चंद दिनों के अंदर ही इस फैसले को मंजूरी दी थी.
दिल्ली से प्रकाशित अखबारों में यह खबर भी एक कोने में छपी कि भाखड़ा नांगल बांध क्षेत्र में पंजाब पुलिस को तैनात किया गया है ताकि उसके पानी को हरियाणा की ओर जाने से रोका जाए.
इस कोलाहल के बीच एक महत्वपूर्ण फैसले की खबर दब गई, जो मणिपुर से संबंधित थी. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के नेतृत्व और जस्टिस संजय कुमार तथा जयमाल्य बागची की सदस्यता वाली तीन जजों की पीठ ने 17 मार्च 2025 को केंद्र सरकार को निर्देश जारी किया था कि वह उत्तर-पूर्वी राज्यों मणिपुर, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और असम में परिसीमन का काम तीन महीने के अंदर शुरू करे.
यह निर्देश इन चार राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली परिसीमन मांग कमिटी द्वारा दायर एक याचिका के जवाब में जारी किया गया था. जब तक यह लेख प्रकाशित होगा, इस समय सीमा की आधी अवधि बीत चुकी होगी, लेकिन अभी तक ज़मीनी स्तर पर तैयारी के कोई संकेत नहीं दिखते हैं — कम-से-कम मणिपुर में तो नहीं ही, जहां यह बहुत विवादास्पद मसला है. हकीकत यह है कि इस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू है और कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहद तनावपूर्ण है, जो ज्यादा समय लेने का बहाना बन सकती है, लेकिन सवाल यह है कि बहाना कब तक बनाया जाएगा? ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या इस बेहद अंधी सुरंग के अंत में कोई रोशनी दिखेगी?
चुनाव क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण
आइए, पहले हम इस मसले के पीछे की कहानी को समझते हैं. परिसीमन अधिनियम 2002 और परिसीमन (संशोधन) अधिनियम 2023 ने विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया निश्चित की. इसी क्रम में परिसीमन आयोग का गठन किया गया जिसका अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस कुलदीप सिंह को बनाया गया. इसके पदेन सदस्य बने एक चुनाव आयुक्त बी.बी. टंडन (मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा नामजद) और संबंधित राज्य तथा केंद्रशासित प्रदेश के चुनाव आयुक्त.
देश के ज़्यादातर हिस्सों में तो परिसीमन का काम पूरा हो गया, लेकिन इन पांच राज्यों को छूट दी गई थी: जम्मू-कश्मीर, असम, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर. जम्मू-कश्मीर को इसलिए दी गई क्योंकि उसे अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्ज़ा हासिल था. इसका मतलब यह हुआ कि परिसीमन से संबंधित अनुच्छेद 170 वहां लागू नहीं होता था. वहां आखिरी परिसीमन 1981 की जनगणना के आधार पर 1995 में किया गया था. इसके अलावा, जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने 2001 में एक कानून बनाकर परिसीमन को 2026 की जनगणना तक के लिए स्थगित कर दिया गया था.
उत्तर-पूर्व के बाकी चार राज्यों को परिसीमन अधिनियम 2002 की धारा 10ए के तहत छूट दी गई. यह धारा राष्ट्रपति को यह अधिकार देती है कि वे देश की एकता और अखंडता को या सार्वजनिक अमन-चैन को गंभीर खतरे में देखकर परिसीमन को टालने का आदेश दे सकते हैं.
काबिल-ए-गौर बात यह है कि चुनाव क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण का मतलब कुल सीटों की संख्या में बढ़ोतरी या कमी करना नहीं है. उस संख्या को इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में क्रमशः 42वें संविधान संशोधन (1976) और 84वें संशोधन (2001) के तहत स्थिर कर दिया गया. परिसीमन अधिनियम 2002 की धारा 14 साफ कहती है कि “2001 में की गई जनगणना के आंकड़ों के आधार पर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव के मद्देनजर हरेक राज्य का भौगोलिक चुनाव क्षेत्रों में विभाजन किया जाना चाहिए”.
लेकिन मतदाताओं की आबादी के विस्थापन और जिला या तहसील की सीमाओं के पुनर्गठन के आधार पर चुनाव क्षेत्रों के इस पुनर्निर्धारण ने भानुमती के पिटारे को खोल दिया, खासकर उन राज्यों में जिनकी जटिल भौगोलिक स्थितियों के कारण जनसांख्यिकीय संतुलन कमजोर है.
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उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, और पंजाब के उदाहरण
लेखक जब उत्तराखंड सरकार में सचिव के पद पर थे तब परिसीमन आयोग की रिपोर्ट ने पहाड़ी जिलों और मैदानी इलाकों (देहरादून, हरिद्वार, और उधम सिंह नगर) के बीच के राजनीतिक संतुलन को बदल दिया था. मार्च/अप्रैल 2002 में उत्तरांचल (1 जनवरी 2007 तक यही इस राज्य का नाम था) की विधानसभा के पहले चुनाव में पहाड़ी इलाकों की 42 सीटों और मैदानी इलाकों की 28 सीटों के लिए मतदान किए गए. 2007 में यह संख्या बदलकर क्रमशः 36 और 34 हो गई. इससे दोनों क्षेत्रों को लगभग बराबर प्रतिनिधित्व मिल गया. इससे पहाड़ी इलाकों में काफी असंतोष पैदा हुआ.
परिसीमन में जिलों का पुनर्निर्धारण भी होता है. इस लेखक ने खुद देखा है कि शासक दल (पश्चिम बंगाल में माकपा, पंजाब में अकाली दल और भाजपा, और उत्तराखंड में कांग्रेस) अपना दबदबा बनाने और विपक्ष को कमजोर करने के लिए तहसीलों और पालिकाओं की सीमाओं में किस तरह घालमेल करते रहे. यह अनैतिक कार्रवाई तो थी मगर इसे कानूनी मंजूरी थी.
इस लेखक का चुनाव क्षेत्र कपूरथला दशकों तक जालंधर संसदीय सीट (पारंपरिक रूप से कांग्रेस का गढ़) का हिस्सा था, लेकिन इसे खडूर साहिब में मिला दिया गया ताकि उस समय सत्ताधारी अकाली दल को फायदा हो. कपूरथला और इसका सब-डिवीजन फगवाड़ा हमेशा से दोआबे (सतलुज और ब्यास नदियों के बीच के क्षेत्र) का हिस्सा था, जबकि खडुर साहिब ब्यास के आगे के माझा क्षेत्र का हिस्सा है.
2008 का राष्ट्रपति आदेश
इस तरह की उथल-पुथल व्यापक रूप से हो रही थी, लेकिन उत्तर-पूर्व में तो ज़मीन ही खिसक गई. परिसीमन का आधार था 2001 की जनगणना. और इसी पर सवाल उठा दिया गया. मणिपुर प्रदेश कांग्रेस कमिटी ने गुवाहाटी हाईकोर्ट से इस प्रक्रिया पर रोक लगाने की गुहार लगाई. उसने जनगणना के आंकड़ों, खासकर सेनापति जिले के तीन सब-डिवीजनों (माओमारम, पाओ माता और पुरुल) के आंकड़ों में खोट का हवाला दिया जिनमें 1991 से 2001 के बीच कथित तौर पर 120 फीसदी की वृद्धि हो गई थी.
हाइकोर्ट ने घरों की जनसंख्या का सर्वे करवाने का आदेश जारी किया. यह सर्वे अभी तक पूरी नहीं हुआ है. इस बीच, भाजपा ने भी यह कहते हुए दखल दिया है कि जनगणना असम और मणिपुर में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का काम पूरा होने जाने के बाद की जाए.
मणिपुर पर सबसे लंबे समय ताक राज करने वाले मुख्यमंत्री ओकरम इबोबी सिंह (कांग्रेस) सुप्रीम कोर्ट में जाना चाहते थे, लेकिन वकील राम जेठमलानी ने उन्हें विधायिका से कानून में संशोधन करवाने की सलाह दी. माना जाता है कि पत्र और संशोधन का मसौदा जेठमलानी के दफ्तर में तैयार किया गया.
यूपीए-1 के कार्यकाल में गृह मंत्री शिवराज पाटील और राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के दौर में परिसीमन अधिनियम में जनवरी 2008 में संशोधन किया गया. इसने राष्ट्रपति को असम, अरुणाचल, मणिपुर और नागालैंड में परिसीमन को टालने का अधिकार दे दिया. राष्ट्रपति ने 8 फरवरी 2008 को आदेश जारी करके 2001 की जनगणना के आधार पर परिसीमन को अनिश्चित काल के लिए टाल दिया. उन्होंने कहा कि इससे मणिपुर में ‘नाज़ुक सामाजिक संतुलन’ बिगड़ सकता है और इससे “विभिन्न जातीय समूहों के अंदर अलगाव की भावना पैदा हो सकती है”.
इस आदेश में यह भी कहा गया कि परिसीमन से “विभिन्न जातीय समूहों में झगड़े” शुरू हो सकते हैं” और “भारी हिंसा” हो सकती है, साथ में “भारत की संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता” को खतरा पैदा हो सकता है.
राष्ट्रपति कोविंद का फैसला
परिसीमन को फरवरी 2020 तक टाला गया, जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उपरोक्त आदेश को वापस ले लिया और सभी पांच राज्यों में परिसीमन कराने का रास्ता साफ हो गया. तब तक अनुच्छेद 370 को रद्द किया जा चुका था और उत्तर-पूर्व में हालात काफी सुधर गए थे.
मणिपुर में हिंसा का नया दौर 3 मई 2023 को शूरू हुआ, जब हाइकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर विचार करे. इसने कुकी-ज़ो समुदायों को आशंकित कर दिया कि उन्हें सरकारी कल्याण योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभों में हिस्सेदारी से वंचित कर दिया जाएगा.
समाधानों की खोज
कहने की ज़रूरत नहीं है कि मणिपुर के तीन बड़े जातीय समूह (मैतेई, तंगखुल नगा और ज़ो कुकी) राजनीतिक सत्ता के संघर्ष में उलझे हुए हैं. शायद समाधान संस्कृति, खेलकूद, उद्यम, और छात्रवृत्ति के दायरों में निहित है, बिखरे अतीत की जगह साझा भविष्य पर नज़र टिकाने में है.
इस भावना के तहत, 20-24 मई के बीच मनाया जाने वाला शिरुई लिली महोत्सव सुलह की उम्मीद जगाता है. आखिर, हर समाधान राजनीति के दायरे में निहित नहीं है.
(मणिपुर संघर्ष मसले पर दो-पार्टी की सीरीज़ का यह पहला लेख है.)
(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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