भारत का पूरा स्वतंत्रता आंदोलन अहिंसा के सिद्धांतों पर लड़ा गया. लेकिन अंग्रेजों के भारत छोड़ने की आहट के साथ ही भारत के लोग एक दूसरे से खूब लड़े. हत्याएं, बलात्कार, लूटपाट, हमले हुए. इसके बावजूद मोहनदास करमचंद गांधी अहिंसा के सिद्धांत पर टिके रहे. जबकि उनके सबसे प्रिय और उनके बताए मार्ग पर आजीवन चलने वाले सरदार बल्लभ भाई पटेल ने भी कई मोर्चों पर उनसे अपनी मजबूरी जता दी थी. कश्मीर में फौज भेजने का मामला इसमें सबसे महत्वपूर्ण था.
पटेल ने गांधी की राह चलने की कामना की. साथ ही लोगों को भी समझाने की कवायद की कि गांधी के रास्ते पर पूरी तरह नहीं चल सकते तो कुछ दूर ही सही, उस रास्ते पर चलने की जरूरत है. गांधी लगातार यह कहते रहे कि हिंदुस्तान में गड़बड़ी नहीं फैलाएं और पाकिस्तान में जो कुछ हो, उसका बदला इधर न लें. बुरी चीज में मुकाबला न करें.
अहिंसा की नसीहत और हिंसा की हकीकत
गांधी ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल, हिटलर, मुसोलिनी और जापानियों को ऐसे वक्त अपना अहिंसक तरीका अपनाने की सलाह दी, जब उनके सामने जीवन मरण की समस्या खड़ी थी. वहीं जब विभाजन हुआ तो दंगे रोकने से लेकर पाकिस्तान के कश्मीर पर हमले को रोकने के लिए सेना का इस्तेमाल करना पड़ा.
ऐसे ही दौर में गांधी को एक खत आया, जिसमें लिखने वाले ने कहा था कि उन लोगों को तो आपने अहिंसा की सीख देने की हिम्मत की, लेकिन जब कांग्रेस सरकार में आपके दोस्त अहिंसा को छोड़ते हैं कश्मीर को हथियारबंद फौज की मदद भेजते हैं, तब आपकी अहिंसा कहां चली जाती है? उन्हें भी आप अहिंसा का उपदेश क्यों नहीं देते?
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गांधी की सीमाएं और कैबिनेट के फैसले
इस पर गांधी ने 5 नवंबर 1947 के प्रवचन में अपने जवाब में कहा, ‘आप लोगों को याद होगा कि मैंने बार-बार यह बात कही है कि इस मामले में यूनियन कैबिनेट के अपने दोस्तों पर मेरा कोई असर नहीं है. मैं खुद तो अहिंसा के अपने विचारों पर हमेशा की तरह आज भी डटा हुआ हूं लेकिन मैं कैबिनेट के अपने बड़े से बड़े दोस्तों पर भी अपने ये विचार लाद नहीं सकता. मैं उनसे यह आशा नहीं कर सकता कि वे अपने विश्वासों के खिलाफ काम करें. जब मैं यह कबूल करता हूं कि अपने दोस्तों पर मेरा पहले जैसा काबू नहीं रहा तो हर एक को संतोष हो जाना चाहिए.’ (दिल्ली डायरी, पेज 148-149, प्रकाशक- नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, मई 1948)
गांधी के अहिंसा मार्ग पर पटेल का जवाब
उस दौर में भी गांधी भारत के सैन्यीकरण का विरोध कर रहे थे. उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार पटेल से गांधी को बहुत उम्मीदें थीं. पटेल ने गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों और असैन्यीकरण का पालन नहीं कर पाने को लेकर मजबूरी जताई.
मुंबई के चौपाटी में 17 जनवरी 1948 को दिए गए भाषण में पटेल ने अपनी यह असमर्थता सार्वजनिक की. उन्होंने कहा, ‘मुझे राज्य चलाना है, बंदूक रखनी है, तोप रखनी है, आर्मी रखनी है. गांधी जी कहते हैं कि कोई हिंसा न करो. तो वह मैं नहीं कर सकता हूं. और मुझे ऐसी आर्मी रखनी है, जिससे हमारे सामने कोई नजर न रख सके. इस तरह की मजबूत आर्मी मुझे रखनी है. नहीं तो मुझे इधर से हट जाना चाहिए. मुझे यह चीज नहीं चाहिए. क्योंकि मैं 30 करोड़ लोगों का ट्रस्टी हो गया हूं. मेरी जिम्मेदारी है कि मैं सब की रक्षा करूं. तो इस तरह मुझे करना है. गांधी जी जिस तरह करना चाहते हैं, उस तरह तो मैं नहीं कर सकता. लेकिन गांधी जी भी यह अच्छी तरह समझते हैं, मैं उनको भी कहता हूं कि भाई, मैं तो हुकूमत लेकर बैठा हूं. मेरे पर हमला होगा, उसे मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा. क्योंकि मेरी निजी जिम्मेवारी है.’ (भारत की एकता का निर्माण, पेज 67, पब्लिकेशन डिवीजन, ओल्ड सेक्रेटरिएट, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष नवंबर 1954)
गांधी अपने साथ काम करने वाले लोगों की मजबूरियों को भलीभांति समझ रहे थे. उन दिनों पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया. कश्मीर के महाराजा के अनुरोध पर भारतीय सेना कश्मीर में उतरी. उसका गांधी ने भी समर्थन किया था. पटेल ने गांधी के बारे में कहा कि वह भी मजबूरी समझते हैं कि ऐसा क्यों करना पड़ रहा है. गांधी ने कश्मीर में भारतीय सेना के हस्तक्षेप को लेकर भी अपना पक्ष सामने रखा.
कश्मीर पर कबायली हमला और सेना का इस्तेमाल
गांधी ने नवंबर 1947 को कहा, ‘मेरा अहिंसा का तकाजा है कि मुझे योग्य आदमी की तारीफ करनी ही चाहिए फिर भले ही वह हिंसा में विश्वास रखने वाला ही क्यों न हो. मैंने श्री सुभाष चंद्र बोस की हिंसा को कभी पसंद नहीं किया, फिर भी मैं उनकी देशभक्ति, सूझ-बूझ और बहादुरी की तारीफ किए बिना नहीं रहा.
इसी तरह हालांकि मैं इस बात को पसंद नहीं करता कि यूनियन सरकार कश्मीरियों की मदद करने में हथियारों का इस्तेमाल करे. हालांकि मैं शेख अब्दुल्ला के हथियारों का सहारा लेने की बात को ठीक नहीं मान सकता हूं. फिर भी दोनों की सूझ-बूझ और तारीफ के लायक काम की तारीफ किए बिना नहीं रह सकता. खासकर अगर मदद करने वाली टुकड़ियों और कश्मीर की रक्षा सेना का एक-एक आदमी बहादुरी से मर मिटे, तो मैं उनकी तारीफ ही करूंगा. मैं तो यह कहूंगा कि अगर कश्मीर के मुट्ठी भर लोग मासूम बच्चों और औरतों की रक्षा के लिए हथियार लेकर हमलावरों से लड़ते हैं और लड़ते-लड़ते मर जाते हैं तो उनकी हथियारबंद लड़ाई भी अहिंसक लड़ाई बन जाती है. मेरा अहिंसक तरीका अपनाया जाए तो कश्मीर के रक्षकों को हथियारबंद सेना की मदद न भेजी जाए.’
कश्मीर को कबायली हमलावरों के कब्जे में जाने से रोकने के लिए जब भारतीय सेना के ब्रिगेडियर एल.पी. सेन रवाना हो रहे थे, तो उससे पहले उन्होंने महात्मा गांधी से मुलाकात की थी. उस मुलाकात में गांधी ने उनसे युद्ध की विभीषिका के बारे में कहा लेकिन साथ में ये भी जोड़ दिया कि – ‘आप निर्दोष लोगों की रक्षा के लिए जा रहे हैं. आप उन्हें उनकी तकलीफों से मुक्ति दिलाने और उनकी संपत्ति की हिफाजत करने के लिए जा रहे हैं. ऐसा करने के लिए आपके पास जो भी उपाय या संसाधन हैं, उसका आपको इस्तेमाल करना ही चाहिए.’
लेकिन कुल मिलाकर गांधी अपने अहिंसा के सिद्धांत पर टिके रहे. पटेल उन्हें सत्ता और परिस्थिति की मजबूरियां समझाते रहे. लेकिन गांधी टस से मस न होते थे. उन्होंने पटेल से कहा, ‘मैं ऐसे ही करूंगा, आप अपने रास्ते चलिए. मेरा रास्ता अच्छा है, मैं यह जानता हूं.’ गांधी को जवाब देते हुए पटेल ने कहा, ‘मैं भी जानता हूं कि आपका रास्ता अच्छा है, लेकिन वहां तक मैं नहीं जा पाता हूं.’
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गांधी का आदर्शवाद और पटेल की व्यावहारिकता
पटेल मजबूर थे. देश के तमाम इलाकों में धार्मिक संघर्ष हो रहे थे. ज्यादातर जगहों पर पटेल खुद जाकर भाषण देते. लोगों को समझाते. यह बताने की कवायद करते कि आपस में लड़ने से देश की हालत और बिगड़ेगी. पटेल ने बंबई के चौपाटी के ही भाषण में लोगों से कहा, ‘एक चीज तो हमें वही करनी है, जो गांधी जी चाहते हैं. वह यह कि इस तरफ हिंदुस्तान में कोई गड़बड़ न करो. पाकिस्तान में कुछ हो, तो उसका बदला हम इधर न लें. बुरी चीज में मुकाबला न करो. भली चीज में मुकाबला करो. गांधी जी जितना कहते हैं, अगर वहां तक नहीं जा सकते तो जो मैं कहता हूं और जवाहरलाल कहता है, वहां तक तो चलो.’
वहीं गांधी को भरोसा था कि एक न एक दिन आएगा, जब सेना, पुलिस पर देश की ऊर्जा और धन न खर्च होकर मानवता की भलाई में इसका इस्तेमाल होगा. गांधी ने कहा था, ‘मिलिट्री पर भी कम से कम खर्च करना पड़ेगा. कल से मिलिट्री पैसे लेने वाली नहीं, लोगों की अपनी बनेगी. जो मिलिट्री अपने आप बनेगी, वह अपनी रक्षा करेगी. अपने पड़ोसी की और अपने देहात की रक्षा करेगी. और इस तरह हिंदुस्तान की भी रक्षा करेगी. अंग्रेज चले गए हैं, अंग्रेजियत नहीं गई. उसे भी जाना है.’ (दिल्ली डायरी, पेज 225, प्रकाशक- नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, मई 1948)
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)